‘दीक्षा’ का रहस्य इतना सरल नहीं है, जिसे शब्दों के माध्यम से समझा जा सके। यह तो वह प्रक्रिया है, जिसे स्वयं अनुभव किया जाता है, अतः दीक्षा प्राप्त करके ही जीवन उसके गूढ़ एवं जटिल रहस्य को समझ सकता है।
‘दीक्षा’ गुरु-शिष्य सम्बन्ध स्थापित करने की क्रिया है। इसे प्रदान कर गुरु, शिष्य के जीवन का रक्षक बन जाता है और समय-समय पर उसे सचेत करते हुए, उसके लिए पग-पग पर उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है।
जीव उस शिव से, जो अलौकिक है, परम तत्व है, अभिन्न है उस आध्यात्मिक जीवन-पथ पर उन्नति करने के लिए, दीक्षा ग्रहण करना एक अत्यन्त आवश्यक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा जीव, जो वास्तव में उस भगवत् स्वरूप का ही अंश स्वरूप है, उसमें लीन हो जाता है, किन्तु यह ईश्वर-कृपा के द्वारा ही संभव है और वह प्राप्त होती है गुरु के माध्यम से।
‘गुरु’ जो अपने शिष्य को अपरोक्ष ज्ञानदान करते हैं, उसी का नाम है- ‘दीक्षा’। कुलार्णव तंत्र के अनुसार-
दीयते विमलं ज्ञानं क्षीयते कर्मवासना।
तस्मात् दीक्षेति सा प्रोक्ता ज्ञानिभिः तंत्रवेदिभिः।।
अर्थात् तंत्रवेत्ता ज्ञानियों ने यह कहा है- जिसके द्वारा पवित्र ज्ञान दिया जाता है और दुष्कर्मों का जहां क्षय होता है, वही दीक्षा है और जब तक दुःसंस्कारो का, कर्म-वासना का क्षय नहीं होगा, तब तक दीक्षा की वास्तविक सार्थकता सिद्ध नहीं हो सकती।
दीक्षा के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है, जिससे पुरूषत्व से सम्बन्धित अज्ञान को दूर किया जा सके, क्योंकि गुरु-कृपा के माध्यम से ही, दीक्षा द्वारा जीव माया रूपी आवरण से मुक्त हो सकता है, परन्तु जब तक उसका चित्त निर्मल नहीं हो जाता, तब तक वह उस निवारण सत्ता का अनुभव नहीं कर पाता। क्योंकि मानवीय देह इतनी मलिन और दोष युक्त होती है कि उसका जब तक शुद्धीकरण एवं पवित्रीकरण न हो जाए, तब तक जीव उस परम सत्ता के वास्तविक दर्शन नहीं कर सकता और वह तभी संभव हो सकता है, जब वह जीव गुरु द्वारा दीक्षित हो।
शास्त्रानुसार दीक्षा केवल दो प्रकार की होती हैं
1- बाह्य दीक्षा 2- आंतर दीक्षा
बाह्य दीक्षा को ‘क्रिया दीक्षा’ भी कहते हैं और अन्तः दीक्षा का दूसरा नाम ‘वेध दीक्षा’ भी है। क्रिया दीक्षा का तात्पर्य है, जीव के बाह्य दूषित आवरण और बौद्धिक अज्ञान की निवृत्ति करना और वेध दीक्षा का अर्थ है, बौद्धिक अज्ञान को दूर कर भीतरी द्वार में प्राणशक्ति द्वारा प्रवेश करते हुए उस आत्म-तत्व को प्राप्त कर लेना है।
कुलार्णव तंत्र में लिखा है-
स्वापत्यानि यथा मत्स्योह्य भीक्षणेनैव पोषयेत्।
दृगभ्यां दीक्षोपदेशश्च तादृशः परमेश्वरी।।
अर्थात् जिस प्रकार मछलियां अण्डों की ओर दृष्टिपात कर उन्हें प्रस्फुटित कर देती हैं और उनसे प्रकट संतानों की दृष्टि के द्वारा ही पोषण करती हैं, उसी प्रकार गुरु भी शिष्य पर दृष्टिपात कर उनके आत्म-तत्व को जाग्रत करके उनका भली प्रकार पोषण करते रहते हैं।
दीक्षा गुरु के माध्यम से ही प्राप्त हो सकती है, क्योंकि गुरु और ज्ञान का सम्बन्ध अविछिन्न एवं महत्वपूर्ण माना गया है, इसलिए गुह्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरु का योगदान अपरिहार्य है। अतः चाहे किसी भी साधना में सिद्धि प्राप्त करनी हो या जीवन के किसी भी क्षेत्र में प्रविष्ट होना हो अथवा जीवन में किसी भी प्रकार की आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक बाधा उत्पन्न हो रही हो, तो व्यक्ति को योग्य गुरु से दीक्षा प्राप्त कर लेनी चाहिए, क्योंकि गुरु ही शिष्य को अपने नेत्रों के प्रवाह एवं अंगूठे के स्पर्श से शक्तिपात कर, उसकी मलिन एवं दोष युक्त देह का नाश कर उन्नति के पथ पर गतिशील करता हुआ, उसे वास्तविक ज्ञान का परिचय देता है। यह प्रक्रिया एक बार नहीं, अपितु बार-बार सम्पन्न की जानी चाहिए, क्योंकि इस सांसारिक जगत में, जिस प्रकार एक शीशे को बार-बार साफ करने पर भी हल्की सी धूल पड़ जाने से वह धुंधला दिखाई देने लगता है, वैसे ही शिष्य को बार-बार दीक्षित करने पर भी उसके चित्त रूपी दर्पण पर कर्म वासना युक्त परत जमी रहती है और गुरु दीक्षा के माध्यम से ही उस गंदे आवरण को, उस धूल को हटाने की क्रिया करता है, जिससे कि उसका चित्त, निर्मल, पवित्र एवं शुद्ध हो सके और वह शिष्यतव को प्राप्त कर सके।
‘दीक्षैव मोचयत्यर्द्धं शैवं धाम नयत्यपि।’
अर्थात् दीक्षा प्राप्त किए बिना जीव पशुवत् जीवन से निवृत्त नहीं हो सकता और न ही सांसारिक विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त कर – ‘शिव’ पद प्राप्त कर सकता है।
उपनयन संस्कार या दीक्षा-संस्कार शिष्य का एक नया जन्म कहलाता है, पर प्रश्न यह उठता है कि क्या जन्मता है उसके द्वारा? तो यह कहा जा सकता है कि इस क्रिया द्वारा एक और देह की उत्पत्ति होती है, जिसे ‘विशुद्ध देह’ कहा गया है, सही अर्थों में इसे ही ज्ञान देह या सूक्ष्म देह कहा जाता है और इसकी प्राप्ति तभी संभव है, जब जीवन में व्याप्त अज्ञान, मैल आदि का नाश किया जा सके, किन्तु इसका नाश दीर्घकाल में भी हो सकता है और अल्पकाल में भी। इसीलिए व्यक्ति, जीवन जीव या शिष्य को अपना दीक्षा क्रम जारी रखना चाहिए, जिससे कि वह उस ज्ञान-देह अर्थात विशुद्ध देह की प्राप्ति उन अनुग्रह (गुरु) द्वारा प्राप्त कर सके और जब उसका चित्त पूर्ण विशुद्ध हो जाएगा, तभी वह अपने को शिष्य रूप में अनुभव कर सकेगा और जीवन मुक्ति का रसास्वादन कर सकेगा।
आज जीवन की इस आपाधापी में, संघर्षशील वातावरण में सांस लेना भी मनुष्य के लिए एक दुर्लभ प्रक्रिया हो गई है, फिर ऐसे में वह लम्बी-चौड़ी साधना पद्धतियों अथवा पूजा-पाठ आदि क्रिया को सम्पन्न करते हुए भौतिक क्षेत्र में पूर्णता प्राप्त कर, उस ‘आत्म तत्व’ को प्राप्त कर सके, इसका समय उसके नाम नहीं है और यही बात हमारे ऋषि-मुनि बहुत पहले से जानते थे कि इस परिवर्तनशील युग में विभिन्न आपदाओं और विपदाओं से यह मानव-समाज मलिन, अस्थिर और अनिश्चित हो जायेगा, इसलिए हर मानव-मन को एक ऐसी आश्रय-सत्ता की आवश्यकता महसूस होगी जो कि उसे, उसके परिवार को सुरक्षा कवच पहनाकर, उन्हें सभी परेशानियां, बाधाओं और उलझनों से मुक्ति दिला कर भयमुक्त कर सके और यह सुरक्षा उसे गुरु (आश्रय सत्ता) द्वारा प्रदान की गई दीक्षाओं के माध्यम से ही प्राप्त हो सकती है। इसीलिए जीवन में हर मानव के लिए दीक्षा आवश्यक एवं महत्वपूर्ण मानी गई है।
परन्तु दीक्षा द्वारा गुरु अपने विशिष्ट शक्तिपात से उसमें वह ऊर्जा प्रवाहित कर देता है, जिससे उसे मनोवांछित सफलता प्राप्त होती ही है। दीक्षा प्राप्त कर साधक व शिष्य के सभी मनोविकारों की निवृत्ति तो होती है, साथ ही उसे उन साधनाओं में भी सिद्धि मिलने लग जाती है, जिसमें उसे सफलता प्राप्त नहीं हो रही होती। जीवन में सभी प्रकार के दुःख, दैन्य, भय, परेशानियां, बाधाओं, अड़चनों को दूर कर शारीरिक, मानसिक और आर्थिक लाभ हेतु मनुष्य को दीक्षाओं की आवश्यकता पड़ती ही है और ये दीक्षाएं किसी भी अवस्था में प्राप्त की जा सकती हैं, चाहे वह बाल्यावस्था हो या यौवनावस्था अथवा वृद्धावस्था।
शास्त्रों में एक हजार आठ प्रकार की दीक्षाओं का उल्लेख किया गया है, जिनमें से अपनी इच्छानुसार एक दो या समस्त दीक्षायें व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, परन्तु इन दीक्षाओ में से सर्वप्रथम ‘गुरु दीक्षा’ होती है, जिसके द्वारा गुरु उसे अपना शिष्यत्व प्रदान करते हैं। इन दीक्षाओं को तीन प्रकार की अवस्थाओं के अनुरूप बांटा जा सकता है, क्योंकि व्यक्ति को संशय बना रहता है कि वह अपने अनुकूल कौन-कौन सी दीक्षाएं ग्रहण करे, यह क्रम इस प्रकार है।
18 वर्ष की आयु तक की अवस्था ‘बाल्यवस्था’ कहलाती है, इसके लिए थोड़े-थोड़े अंतराल पर आवश्यक दीक्षायें प्राप्त करनी चाहिए।
आयुवृद्धि दीक्षा- जिसके माध्यम से उस बालक को दीर्घायु जीवन की प्राप्ति होती है।
जीवन मार्ग दीक्षा- जीवन के सारे अवरोधों को समाप्त कर उस का सरल और सुगम मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।
सरस्वती दीक्षा- जिसे प्राप्त कर बालक मेघावी बनता है।
वाग्देवी दीक्षा- इसे प्राप्त करने पर बालक को वाक् चातुर्य एवं वाक्सिद्धि प्राप्त हो जाती है।
सुसंस्कार प्राप्ति दीक्षा- 16 संस्कारों से युक्त होने से जीवन में उत्तरोत्तर श्रेष्ठ वृद्धि होती रहती है।
इनके अतिरिक्त ‘गर्भस्थ शिशु चैतन्य दीक्षा’ के माध्यम से गर्भस्थ शिशु को भी दीक्षा प्रदान की जा सकती है और उसके द्वारा उसे अभिमन्यु, अष्टावक्र और शुकदेव की तरह ही तेजस्वी और पूर्णतायुक्त व्यक्तित्व प्रदान किया जा सकता है। गर्भस्थ शिशु को चेतना देने का सबसे बड़ा महत्व यह है कि जो ज्ञान बाहरी मनुष्य 25 वर्षों में ग्रहण कर पाता है, वही ज्ञान गर्भस्थ शिशु 9 महीनों मे ही अर्जित कर सकता है, क्योंकि उसके अन्दर ग्राह्य शक्ति अधिक होती है, इसीलिए गर्भस्थ बालक को दीक्षा दिलाना और भी श्रेष्ठतम कार्य है, जो कि खुद के लिए ही नहीं अपितु समाज के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगा क्योंकि ये बालक ही देश का भविष्य हैं।
इसको भी दो वर्गों में बांटा जा सकता है पुरूष वर्ग और स्त्री वर्ग।
पुरूष वर्ग
इस वर्ग के लिए विभिन्न दीक्षाओं की आवश्यकता पड़ती है, जिससे पुरूष वर्ग अपनी सामाजिक, आर्थिक व मानसिक सभी प्रकार की परेशानियों व द्वन्द्वों से मुक्ति प्राप्त कर सकें, क्योंकि आज इस समाज व देश में 95 प्रतिशत लोग आर्थिक समस्या और मानसिक तनावों से ग्रस्त हैं, कोई बेरोजगारी की समस्या से तो कोई नौकरी की समस्या से या फिर व्यापारिक हानि की समस्या को लेकर चिन्तित व परेशान है। इन धन-सम्बन्धी परेशानियों के अलावा भी उसे कई समस्याएं आ घेरती हैं जैसे की पत्नी की समस्या, जीवन में सही मार्ग चयन करने की समस्या, प्रेम-विवाह की समस्या या किसी उच्च पद की प्राप्ति की अभिलाषा और साथ ही समाज में यश, कीर्ति ऐश्वर्य प्राप्त करने की आकांक्षा। ऐसी सैकड़ों समस्याओं का समाधान इन दीक्षाओं के माध्यम से किया जा सकता है, जो इस प्रकार हैं- इच्छापूर्ति मनोकामना सिद्धि दीक्षा, अष्टोत्तरमहालक्ष्मी दीक्षा, इन्द्राक्षी पूर्ण वैभव दीक्षा, तांत्रोक्त ऋण मुक्ति दीक्षा, आयुवृद्धि शक्तिपात दीक्षा, क्रिया योग दीक्षा, जिन्हें प्राप्त कर पुरूष हर दुष्टि से पूर्ण होकर, समाज में उच्च स्थान तथा यश, वैभव शालिता प्राप्त करता है साथ ही सर्व क्रिया-शक्ति प्राप्त कर सकता है।
स्त्री वर्ग
इस वर्ग के लिए निम्न दीक्षाएं श्रेष्ठ हैं-
1- देह चैतन्य दीक्षा-पूर्ण चैतन्यता प्रदान करने वाली दीक्षा।
2- शीघ्र विवाह दीक्षा- जिस लड़की या युवती का विवाह न हो रहा हो या विवाह में रूकावटें पैदा हो रही हों, तो उसे इस दीक्षा को प्राप्त करना चाहिए।
3- गर्भ चैतन्य दीक्षा- इसके माध्यम से स्त्री अपने मनोनुकूल गर्भ की प्राप्ति कर सकती है।
4- अप्सरा सौन्दर्य प्राप्ति दीक्षा– इसे प्राप्त कर स्त्री अद्वितीय सौन्दर्य प्राप्त कर सकती है। अतः ‘सम्मोहन एवं वशीकरण दीक्षा’ या ‘अनंग रति दीक्षा’
इस अवस्था में हर व्यक्ति समस्त प्रकार के भौतिक सुखोपभोग को प्राप्त करने के बाद, अध्यात्म मार्ग की ओर गतिशील होकर ‘शिवत्व’ अर्थात् मुक्ति प्राप्त कर लेना चाहता है और अपनी पूर्ण वृद्धावस्था को इसी कार्य हेतु लगा देता है, क्योंकि वह यही सोचता है कि इस अवस्था का अंत मृत्यु की गोद में सो जाना ही है।
जबकि ऐसा नहीं है, विशिष्ट दीक्षाओं को प्राप्त कर पुनः यौवनावस्था प्राप्त की जा सकती है और कायाकल्प द्वारा सुन्दर, स्वस्थ, तेजस्वी व्यक्तित्व प्राप्त कर ‘ब्रह्म तत्व’ को प्राप्त किया जा सकता है और वह इन दीक्षाओं के माध्यम से ही संभव है जो इस प्रकार हैं- पूर्णत्व दीक्षा, आयुवृद्धि धन्वन्तरी दीक्षा, कामदेव शक्ति प्राप्ति दीक्षा, ब्रह्म दीक्षा, शतोपंथी दीक्षा, पूर्णमदं दीक्षा, पौरूष प्राप्ति दीक्षा,पापमोचिनी दीक्षा, धर्म-अर्थ-काम प्राप्ति दीक्षा।
इन सब दीक्षाओं के अतिरिक्त भी अन्य उच्चकोटि की विविध दीक्षाएं हैं, जिन्हें प्राप्त कर व्यक्ति अपने जीवन में उच्चता की ओर अग्रसर हो सकता है।
1- कुण्डलिनी भेदन- इस दीक्षा के सात चरण हैं, इन्हें एक-एक करके ग्रहण किया जाता है और इन सातों चरणों को प्राप्त कर अद्वितीय व्यक्तित्व का धनी बना जा सकता है।
2- चक्र भेदन दीक्षा- यह समस्त षट्चक्रों को जाग्रत करने वाली दीक्षा है।
3- शत्रु संहारक दीक्षा– शत्रुओं को परास्त करने हेतु।
4- अष्टमहालक्ष्मी दीक्षा- धन प्रदायक विशेष दीक्षा।
5- सांदीपनी भिषेक दीक्षा- पूर्ण योगेश्वरमय प्राप्ति हेतु।
6- पिशाच सिद्धि दीक्षा- जिसके द्वारा भूत और वर्तमान भविष्य के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
7- पराम्बा सिद्धि दीक्षा- दैवी सिद्धि प्राप्त करने हेतु।
8- हादी-कादी दीक्षा- नींद व भूख-प्यास पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए।
9- सिद्धाश्रम प्रवेश दीक्षा- सिद्धाश्रम में प्रवेश पाने हेतु।
10- चाक्षुष्मती दीक्षा- नेत्रों की ज्योति को बढ़ाने के लिए।
इस प्रकार की अन्य कई श्रेष्ठ दीक्षायें हैं, जो मानव जीवन के लिए विशेष उपयोगी एवं महत्वपूर्ण हैं, व्यक्ति अपनी इच्छानुसार इन उपरोक्त दीक्षाओं में से कोई भी दीक्षा प्राप्त कर सकता है, इसके लिए कहीं कोई आयु बाधक नहीं होती, यह तो समय के अनुसार और व्यक्ति की मांग के आधार पर ही हमने दीक्षाओं का तीन अवस्थाओं में वर्णन किया है, अतः कोई भी बालक, युवक व वृद्ध किसी भी प्रकार की दीक्षा प्राप्त कर उच्च अवस्था को प्राप्त कर सकता है। दीक्षा का तात्पर्य यह है कि आप जिस कार्य के उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसे ग्रहण कर रहे हैं वह मार्ग प्रशस्त होता है जिस पर बढ़कर आप अपनी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति कर सकते हैं।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि मनुष्य की देह समाप्त होती है लेकिन आत्मा अजर अमर है वह एक जन्म से दूसरे जन्म तक निरन्तर गतिशील रहती है और वह नवीन देह धारण करती रहती है इसी से यह स्पष्ट है कि मनुष्य के जीवन पर पूर्व जन्म का प्रभाव अवश्य पड़ता है।
भाग्यशील व्यक्ति अपने पूर्व जन्म के कुछ पुण्य कर्म प्रभाव लेकर इस जीवन में आता है। उसी कारण उसे निरन्तर उन्नति प्राप्त होती रहती है। इसे ही ‘कर्म वर्चस्व’ कहा गया है। ‘क्रियमाण’ कहा गया है।
भाग्यहीन व्यक्ति अपने पूर्व जन्म के दोषों को लेकर उत्पन्न होता है और उसे अपने जीवन में उन्नति का मार्ग ही नहीं मिल पाता है इस जन्म के किये गये कर्मों का प्रभाव ही नहीं मिलता है और वह निराश हताश होकर भटकता है। ऐसे समय में ही उसे सद्गुरु की प्राप्ति होती है। प्रारम्भ में व्यक्ति गुरु के पास अपने जीवन की इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए ही जाता है। गुरु उसे साधना का मार्ग बताते हैं। गुरु उसे ज्ञान का मार्ग बताते हैं लेकिन शिष्य को सहज रूप से यह समझ में नहीं आता, वह तो यह चाहता है कि शीघ्रातिशीघ्र उसके कार्य पूर्ण हो जाएं, लेकिन गुरु अपनी क्रिया करते ही रहते हैं शिष्य को अपने साथ जोड़े रखते हैं, उसे साधना की अग्नि में तपाते हैं, उसके पापों का शमन करते रहते हैं।
जब सद्गुरु देख लेते हैं, कि उनका शिष्य बहुत प्रयासों के बाद भी साधनाओं में सफल नहीं हो पा रहा है और न ही भौतिक क्षेत्र में ही उन्नति पा रहा है और एक तरह से घिसट-घिसट कर जीने वाली जिन्दगी को जीने को विवश हो जाता है, तब वे सात चरण में शापोद्धार दीक्षा का उपक्रम करते हैं।— क्योंकि इसी दीक्षा के द्वारा उसके अतीत के व सातों जन्मों के उन शापों को धोया जा सकता है, जिनकी वजह से इस जीवन में रूकावट उत्पन्न हो रही है।
यह दीक्षा तो एक तरह से सभी साधकों के लिए अनिवार्य ही है, क्योंकि बिना पूर्व जन्म के शापों का, पापों का उद्धार किए सिद्धि की कल्पना करना ही मूर्खता है। कूड़े के ढेर पर सुगन्ध का स्थापन नहीं हो सकता, अतः जब कर्म दोषों का सद्गुरु के शक्तिपात से, सद्गुरु के शक्ति प्रवाह से भस्मीकरण होता है तभी वह जिस दिशा में प्रयास करता है, उसे दैवीय-कृपा, पितृ-कृपा, गुरु-कृपा, कुटुम्ब-कृपा सभी सहयोग रूप में प्राप्त होती है और वह अल्प प्रयास से वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है जिस हेतु वह कर्मशील होता है।
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