यदि कोई गुरु की निन्दा करता है, तो शिष्य को चाहिये कि या तो अपने वाग्बल से अथवा सामर्थ्य से उसको परास्त कर दे, अथवा यदि वह ऐसा न कर सके तो उसे ऐसे लोगों की संगति छोड़ देनी चाहिये। गुरु निन्दा सुन लेना भी उतना ही दोषपूर्ण है, जितना कि गुरु निन्दा करना।
गुरु के पास बैठे रहने मात्र से ही साधक के हृदय मे ज्ञान का प्रकाश होने लगता है, जिसको ब्रह्म प्रकाश कहा गया है, जिससे मन के समस्त प्रकार के भ्रम व चिन्ताएं स्वतः ही भाग जाती हैं। अतः शिष्य को चाहिए कि वह गुरु की निकटता के लिए निरन्तर प्रयत्न करे। जिस प्रकार एक दीपक से दूसरा दीपक पास लाने मात्र से ही जल जाता है, उसी प्रकार गुरु के सानिध्य मात्र से ही शिष्य का कल्याण हो जाता है।
शिष्य यदि सच्चे हृदय से पुकार करे, तो ऐसा होता ही नहीं कि उसका स्वर गुरुदेव तक न पहुंचे। उसकी आवाज गुरु तक पहुंचती ही है। इसमें कभी संदेह नहीं करना चाहिए।
शिष्य चाहे वह बीस दिन पहले आया हो अथवा बीस साल पहले, गुरु की दृष्टि में सभी बराबर ही होते हैं। इसलिए प्रत्येक शिष्य को वरिष्ट गुरु भ्राताओं अथवा गुरु बहिनों को सम्मान तो देना चाहिए।
आदर तो करना चाहिए, परन्तु उसे अपनी श्रद्धा को मात्र गुरुदेव के चरणों के लिए ही सुरक्षित रखना चाहिए।
यथा सम्भव व्यर्थ की चर्चाओं मे न पड़कर गुरुदेव का ही ध्यान, मनन करें। दूसरे की आलोचना अथवा निन्दा करने से शिष्य का जो बहुमूल्य समय अपने कल्याण में लगना चाहिए, वह व्यर्थ हो जाता है, उसका प्रभाव उसके द्वारा की गई साधनाओं पर भी पड़ता है।
शिष्य के लिए गुरु ही सर्वस्व होता है। यदि किसी व्यक्ति की मित्रता राजा से हो जाए, तो उसे किसी छोटे मोटे अधिकारी की सिफ़ारिश की क्या आवश्यकता है। इसलिए श्रेष्ठ शिष्य वह है, जो अपने मन के तारों को गुरु से ही जोड़लेता है।
कोई भी शिष्य कैसे सदैव गुरु चरणों में नत बना रह सकता है, इसके लिए पूज्यपाद गुरुदेव द्वारा ही बताया गया एक सूत्र है कि यदि शिष्य को सदैव यह स्मरण रहे कि जिस प्रथम दिन वह गुरुदेव से मिला था उस दिन उसकी क्या मनः स्थिति थी तो उसे कभी प्रमाद नहीं हो सकता है।
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