ज्योतिष का संस्कृत में अर्थ- ज्योति-तारा, ष- गणक या (भाग्य वेत्ता)। ज्योति शब्द में प्रकाश या जीवन का महत्व झलकता है। ज्योतिष को वेदों का चक्षु बताया गया है। जिस प्रकार बाह्य जगत में प्रकाश दिखाई देता है, उसी प्रकार वेदों में ज्योतिष है। भारतीय दर्शन का मूल सिद्धान्त है, जो कुछ शरीर में है वही ब्रह्माण्ड में भी है, अर्थात सौर जगत में सूर्यादि ग्रह पर परिभ्रमण में जो नियम कार्य करते हैं वही नियम मानव शरीर स्थित सौर जगत के ग्रहों के भ्रमण करने में भी करते हैं। इसी कारण ग्रहों का मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करने को ज्योतिष कहा जाता है। ज्योतिष में औषधि, विज्ञान (तंत्र) और कला (मंत्र), तीनों का मिश्रण है।
आचार्य वराहमिहिर के सिद्धान्त के अनुसार शरीर ग्रह का निवास स्थल है। इसके अनुसार मेष (मस्तक) राशि, वृष (मुख), मिथुन (वक्षस्थल), कर्क (हृदय), सिंह (उदर), कन्या (कटि), तुला (वस्ति), वृश्चिक (लिंग), धनु (जंघा), मकर (घुटना), कुम्भ (पिंडली), मीन (पैर) पर निवास करती है। समस्त ग्रह इन बारह राशियों पर भ्रमण करते हैं, जिनमें मानव जीवन का सर्वाधिक प्रभाव वाले सात ग्रह सूर्य (आत्मा), चन्द्रमा (मन), मंगल (धैर्य), बुध (वाणी), गुरु (विवेक), शुक्र (रस), शनि (संवेदन)।
प्रत्येक राशि अपने गुण के अनुसार प्रभाव दिखाते हैं। राहु और केतु छाया ग्रह हैं। सूर्य की छाया राहु तथा पृथ्वी की छाया केतु है। जब सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी एक सीध में होते हैं, एक राशि में तथा एक अंश में होते हैं तो छाया लोप हो जाती है, जिसे सूर्य या चन्द्र ग्रहण कहते हैं। उदाहरण के लिए जब सूर्य मेष राशि पर होता है तब मनुष्य के मस्तक पर प्रभाव दिखाता है। उस समय मस्तक संबंधी रोग हो सकते हैं या मनुष्य के मुख पर प्रखरता आ सकती है। ठीक उसी प्रकार जब सूर्य-मीन राशि पर होता है तो तलवों पर प्रभाव दिखाई देता है।
ज्योतिष शास्त्र में गुरु, मंगल, चन्द्र व्यक्ति के बाह्य व्यक्तित्व को, शुक्र, बुध, सूर्य आंतरिक व्यक्तित्व को एवं शनि अंतः करण को प्रभावित करते हैं। प्रत्येक ग्रह व्यक्ति के पारिवारिक सम्बन्धों को भी बताता है। सूर्य से आत्मा, पिता, पराक्रम, योग्यता, आसक्ति, लक्ष्मी आदि। मंगल से पराक्रम, रोग, भाई-बहन, भूमि एवं शत्रु। बुध से विद्या, विवेक, माता, बुद्धि, मित्र, वाणी आदि। गुरु से बुद्धि, पुत्र, धन, आरोग्यता और आध्यात्मिक शक्ति आदि। शुक्र से आयु, जीविका, मृत्यु का कारण, नौकरी और विपत्ति आदि। शनि से आयु, अध्यात्म, नौकर, मुकदमा, जेल आदि। राहु से दादा, तथा केतु से नाना का विचार करें।
बुध का नाक (सुगंध), चन्द्र एवं शुक्र का जीभ (स्वाद), सूर्य एवं मंगल का नेत्रें (रूप), गुरु का कण्ठ (शब्द) पर और शनि, राहु और केतु का त्वचा (स्पर्श) पर आधिपत्य होता है।
हमारी जन्मपत्री में जन्म के समय चन्द्रमा जिस राशि में है वही राशि कहलाती है। प्रत्येक राशि के कुछ अक्षर होते हैं जिनसे कुछ नाम बनाकर बच्चे के रख दिये जाते हैं। बहुधा जन्म नाम बदलकर फिर नये नाम रख दिए जाते हैं। चन्द्रमा मन का प्रतीक है, मन हमारे शरीर में स्थित रक्त-मांस-मज्जा के संयोग से बनता है। अतः सोया हुआ व्यक्ति जिस नाम लेने से जग जाये वही नाम प्रथम अक्षर से बनने वाली राशि है।
ज्योतिष का प्रमुख ग्रंथ नारद पुराण है। उसमें त्रिस्कन्ध ज्योतिष है, जिसमें गणित (सिद्धान्त) जिसके अंतर्गत देश, दिशा, काल, ग्रह, उदय, अस्त ग्रहपात आदि योग हैं, जातक (होरा), राशि भेद ग्रहों का विवरण, गर्भाधान, जन्म-मृत्यु, आजीविका, स्त्री, राज्य आदि आते हैं और संहिता (ग्रहों की गति) चन्द्र, सूर्य चाल, ऋतु-मुहूर्त, छः संक्रांति, मनुष्य के 16 संस्कार, यात्रा, गृह प्रवेश, वर्षा, ज्ञान आदि आते हैं। नारद जी ने काल गणना के लिए इकाई, दहाई, सैंकड़ा से चलकर शंख तक माना है।
शंख तक पहुंचने के लिए 1 के बाद 18 18 जीरो(10 ), लगाने पडेंगे। भारतीय ज्योतिष में समय की गणना वर्ष में 12 राशियां, 1 राशि में 30 अंश, 1 अंश में कुछ 60 कला, 1 कला में 30 काष्ठा और 1 काष्ठा में 18 निमेष होते हैं। इससे भारतीय ज्योतिष का सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतर काल ज्ञान का पता पड़ता है। उनके गणित में ज्या, जीवा, वृत, रज्जु का विवरण भी है जो आधुनिक समय में ज्योमेट्री, कैलकुलस, स्टेटिस्टिक्स, कोऑरडिनेट, सोलिड, एलजैबरा में वर्णित है। यह सभी ज्ञान नारद पुराण में हैं। प्रत्येक ग्रह अपनी कक्षा में भ्रमण करते हुए सूर्य, बुध और शुक्र एक माह में, मंगल डेढ़ माह में, गुरु एक वर्ष में, शनि अढ़ाई वर्ष में और चन्द्रमा सवा दो दिन तक एक राशि में रहता है।
सूर्य एवं मंगल ग्रह राशि के शुरू में, गुरु-शुक्र राशि के अंत भाग में विशेष रूप से शुभाशुभ फल देते हैं। गुरू जिस भाव को देखता है, उसकी वृद्धि करता है तथा जिस भाव में होता है उसका क्षय करता है। भाव ज्ञान लग्न प्रथम भाव को कहते हैं, धन को दूसरा, पराक्रम को तीसरा, सुख को चौथा, संतान को पांचवा, मित्र को षष्ठ, ससुराल सप्तम, अष्टम से मृत्यु, भाग्य नवम से, कर्म दशम, आय एकादश, व्यय द्वादश से माना जाता है।
1, 4, 7, 10 को केन्द्र कहते हैं। 5, 9 को त्रिकोण 2, 8, 11 को पणकर 3, 6, 12 को ओपोक्लिम कहते हैं। इस प्रकार यह बारह भाव है। प्रथम भाव में उपस्थित ग्रह से मनुष्य का स्वभाव और शरीर की आकृति मानी जाती है। जैसे सूर्य पिंगलवर्ण, लम्बाई-चौड़ाई में समान देह, अधिक पित्त और थोड़े बाल वाला, मंगल क्रूर दृष्टि, युवा, उदार, चंचल स्वभाव, पतली कमर। बुध वाकपटु, पित्त, कफ, वात तीनों प्रकृति वाला, हंसमुख होता है। गुरु दीर्घ, मोटा, पीले नेत्र, श्रेष्ठ बुद्धि, कफ प्रकृति जैसा होता है। शुक्र सर्वदा सुखी, दर्शनीय, सुन्दर नेत्र होता है। शनि आलसी, कपिल वर्ण नेत्र, पतली कमर और लम्बी देह, मोटे दांत, रूखे रोम, कड़े बाल, वात प्रकृति होता है। राहु नील वर्ण, लम्बा शरीर, त्वचा रोग से युक्त, कुष्ठी, बुद्धिहीन, पांखडी होता है। केतु रक्त वर्ण उग्र दृष्टि, कटुभाषी, भंयकर शरीर, शस्त्रधारी, पतित, शरीर पर धूम और फोड़ो के निशान युक्त होता है।
प्रत्येक ग्रह अपने से सातवें भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है परन्तु शनि सप्तम के अलावा तीसरे तथा दशवें को भी देखता है। मंगल सप्तम के अलावा चौथे तथा आठवें को देखता है। गुरु सप्तम के अलावा पंचम् एवं नवम् को भी देखता है। इसी प्रकार सूर्य सिंह रशि का स्वामी, चन्द्रमा कर्म का स्वामी, मंगल मेष और वृश्चिक का स्वामी, बुध, मिथुन और कन्या का स्वामी, गुरु धनु एवं मीन का स्वामी, शुक्र वृष और तुला का स्वामी, शनि मकर और कुंभ का स्वामी, राहु कन्या राशि का स्वामी माना जाता है।
जब जन्मपत्री देखी जाती है तो कौन सा ग्रह किस भाव में है, इसके अलावा ग्रह के उच्च-नीच, उदय-अस्त, ग्रह के कितने अंश हैं, ग्रह की स्वराशि या मित्र या शत्रु राशि में है या नहीं, किस भाव में कितने ग्रह हैं, उस पर किस-किस की दृष्टि पड़ रही है यह सब भी देखा जाता है। तभी उसका फल का ठीक निर्णय किया जा सकता है।
भारतीय ज्योतिष में दशा ही फल कथन का आधार है। दशा के द्वारा प्रत्येक ग्रह की फल प्राप्ति का समय जाना जाता है। फल का समय महादशा, अन्तर्दशा, प्रत्यन्तर दशा, सूक्ष्म दशा तथा गोचर पर आधारित है। सभी ग्रह अपनी अपनी दशा में फल देते हैं। दशा कई प्रकार की होती है। प्रमुखता अष्टोत्तरी, विंशोत्तरी और योगिनी उपयोग में आती है। लेकिन फलित ज्योतिष में प्रमुख विंशोत्तरी का है, क्योंकि इसका फल सत्य, प्रमाणित और फलदायी है।
जिस भाव में जो राशि होती है उस का स्वामी ही उस भाव का स्वामी होता है, जिसे भावेश भी कहते हैं। शुभ फल का अर्थ है आरोग्यता, उन्नति, धन, लाभ, विजय, स्त्री और संतान सुख, भाग्योदय, राज्य लाभ इत्यादि। इसी प्रकार अशुभ फल का अर्थ धन हानि, पराजय, बीमारी, तनाव, दुर्घटना, राज्य दण्ड, विपत्ति इत्यादि। 3, 6, 11 वें भाव में पाप ग्रह अच्छा फल देते हैं। 1, 4, 5, 7, 10वें भाव में शुभ ग्रह अच्छा फल देते हैं। 3, 8, 12वें भाव के स्वामी जहां भी बैठते हैं उस भाव को हानि पहुंचाते हैं। 11 वें भाव में सभी ग्रह शुभ फल प्रदान करते हैं। भावेश मकान मालिक है और उस भाव में स्थित ग्रह किरायेदार हैं, यदि भावेश अशुभ है तो भाव संबंधी फल में बाधाएं आयेंगी। बारहवें भाव का स्वामी उसी भाव में शुभ फल देता है। अष्टमेश लग्नेश भी हो तो शुभ फल प्रदान करता है। भाव से संबंधित फल ग्रह की दशा-अंतर्दशा में भाव संबंधी फल मिलता है। जो ग्रह जन्म पत्रिका में, जिस घर में, नवांश में भी हो तो वह ग्रह बलवान होता है।
जो ग्रह उच्च, स्व राशि, मित्र क्षेत्री, मूल, त्रिकोणस्थ, नवांशस्थ या द्रेष्कोणस्थ होता है वह स्थान बली कहलाता है। चन्द्र और शुक्र सम राशि में और अन्य ग्रह विषम राशि में बली होते हैं। लग्न में बुध और गुरु, चतुर्थ में शुक्र और चन्द्र, सप्तम में शनि, दशम में सूर्य और मंगल दिग्बली होते हैं। रात्रि में जन्म लेने पर चन्द्र, शनि, मंगल तथा दिन में जन्म लेने पर सूर्य, बुध, शुक्र बली होते हैं। शनि, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, चन्द्र और सूर्य ग्रह उत्तरोतर बली होते हैं। कोई ग्रह शुभ ग्रह से दृष्ट होने पर दृग्बली होता है। बली ग्रह से यही अर्थ लगाना चाहिए कि शुभ साथी, शुभ दृष्टि, शुभ राशि में हो। जिस राशि में नीच ग्रह हो, उसका स्वामी ग्रह स्वराशि या उच्च का हो तो उसका प्रभाव विपरीत रहेगा।
कोई ग्रह अस्त वक्री है तो प्रभावहीन रहेगा। बाल, युवक, वृद्ध ग्रह अपनी अवस्था अनुसार फल देते हैं। उच्च ग्रह अधिक फल तथा नीच ग्रह दबे हुए रहते हैं। किसी व्यक्ति का 12 भाव उसके पूर्व जन्म की अतृप्त इच्छाओं का द्योतक है, छटे भाव के स्वामी उसे पूरा करने में सहायक हो सकते हैं। नक्षत्र और राशि के अनुसार वह ग्रह उसी प्रकार का हो जाता है।
मनुष्य की अपनी जन्म राशि से 12 वें भाव में जब पंचाग के अनुसार शनि आ जाता है तो साढे़ साती शुरू हो जाती है तथा राशि (चन्द्रमा) से तीसरे घर चला जाता है तब साढ़े साती समाप्त हो जाती है। ठीक उसी प्रकार राशि (चन्द्रमा) से चौथे व आठवें में शनि रहेगा तो ढैय्या कहलायेगा। शनि की इस दशा में ही लोगों का छन्न भंग या राजतिलक होते देखा गया है।
छठे घर का चन्द्रमा-प्रमेह, सप्तम का मंगल, अर्श, छठे भाव में सूर्य-शुक्र, पत्थरी, अष्टम् में मंगल, शुक्र-उपदंश, लग्न का सूर्य अर्द्ध शिर पीड़ा, सप्तम में केतु पथरी, गुदा आदि में दर्द की सूचना देता है। लग्न में शनि चन्द्र कैंसर को जन्म देते हैं। पंचमेश व दशमेश का संबंध प्रबल राजयोग होता है। पत्नी का यदि सप्तम सूर्य हो वह पति द्वारा अनादर पाती है। द्वादशस्य शुक्र अतुलनीय धनवान एवं लोकप्रिय बनाता है। किन्तु षष्ठस्य शुक्र दरिद्र बनाता है। एक से छठे भाव तक का फल जीवन की सम्भावनाएं और प्रयत्न है, जबकि सात से बारहवें भाव तक का फल जीवन का क्रियात्मक व्यवहार, उपभोग, कर्मफल और उपसंहार है। एक से छठे भाव में पड़े ग्रह आयु के पूर्वार्द्ध में अधिक फलीभूत होते हैं। सांसारिक सुख की सफलता के 9, 10, 11 भाव पर, सुख की प्राप्ति 4 भाव पर और आध्यात्मिक साधन एवं उन्नति 4, 5, 9 एवं 10 वें भाव पर आधारित है।
मनुष्य को भाग्यवादी नहीं बनना चाहिए। कर्मवादी ही बनना चाहिए क्योंकि कर्म से ही भाग्य बनता है, कर्म से हाथ ही रेखायें बनती बिगड़ती हैं। ईश्वर पर सदा विश्वास रखें। संकल्प शक्ति को बढ़ायें।
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