व्यस्त जीवन, कार्य भार एवं कर्त्तव्यों के बोझ से व्यक्ति का जीवन एक मजदूर सा हो जाता है और वह तनावों से, चिंताओं से ग्रस्त हो जाता है और कई बार तो वह मानसिक रोगी तक भी हो जाता है। जीवन पग-पग पर परिवर्तनशील है, न जाने कब, कौन सी विकट परिस्थिति से गुजरना पड़ जाये? शत्रु तो हर मोड़ पर तैनात सैनिकों की तरह खड़े रहते हैं हमला करने के लिए। उस अचानक प्रहार से व्यक्ति संकट में फंस जाता है और उस प्रहार को झेल नहीं पाता और ऐसी स्थिति में व्यक्ति निर्णय नहीं कर पाता कि अब वह क्या करें—- क्या नहीं करें?
मनुष्य के शत्रु एक नहीं, हजारों होते हैं। जब तक वह एक को परास्त करता है, तब तक दूसरा उस पर वार कर देता है और इस सामाजिक संग्राम में युद्ध करते-करते उसकी शक्ति क्षीण होने लगती है, क्योंकि व्यक्ति इस जीवन रूपी संग्राम को दैविक बल के माध्यम से जीत सकता है। मंत्रसिद्धि होना आवश्यक है।
महाभारत काल में श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ में यही कहा है, कि ‘ हे अर्जुन! तुम युद्ध को शस्त्रों के माध्यम से नहीं जीत सकते, जब तक कि तुम्हारे पीछे दैविक बल नहीं होगा, जब तक कि तुम्हें मंत्र सिद्धि नहीं होगी, तब तक विजय नहीं हो सकती। इसलिए तुमने जो द्रोणाचार्य से मंत्र सिद्धि प्राप्त की है, उस मंत्र सिद्धि को स्मरण करते हुए गांडीव उठाओ, तभी तुम महाभारत-युद्ध को जीत सकोगे, केवल धनुष और तीर चलाने से ये दुर्योधन, दुःशासन जैसे पापी समाप्त नहीं हो सकते, उसके लिए द्रोणाचार्य ने तुम्हें केवल तीर चलाना ही नहीं सिखाया, अपितु मंत्र शक्ति भी दी है।
आये दिन के क्लेश तथा पति-पत्नी के आपसी झगड़े, रिश्तेदारों, भाई-बंधुओं में आपसी मतभेद, ईर्ष्या, वैमनस्य, प्रतिस्पर्धा और द्वेष के कारण ही होते हैं, व्यक्ति का जीना दुष्कर हो जाता है, भाई-भाई का दुश्मन हो जाता है। इन आपसी मतभेदों के कारण ही शत्रु व्यक्ति की उन्नति के रास्ते में बाधा उत्पन्न करने लगते हैं, जिनसे संघर्ष करता करता व्यक्ति थक जाता है, इनसे मुक्त नहीं हो पाता। फलस्वरूप वह शारीरिक रूप से तो दुर्बल हो जाता है और तब उसे एक ही मार्ग सूझता है, दर-दर की ठोकरें खाने के बाद वह हताश-निराश होकर हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता है और अपने भाग्य को कोसने लगता है।
आज व्यक्ति के दैनन्दिनी जीवन में चारों और समस्या रूपी जो अनेक रक्त बीज खडे़ हैं, उनके संहार का क्या उपाय किया जाए? जैसे-तैसे व्यक्ति की एक समस्या सुलझती है कि उससे जुड़ी चार नई समस्याएं आ जाती हैं। केवल एक या दो वर्ष नहीं पूरे जीवन पर्यन्त ऐसी ही स्थितियां जीवन में बनी रहती हैं।
साधक को कई बार प्रयत्न करने पर भी साधनाओं में सफलता नहीं मिल पाती और बार बार उसको असफलताओं का ही सामना करना पड़ता है। इसके कई कारणों में से एक कारण यह भी होता है कि उस साधक के पिछले जीवन के या इस जीवन के दोष या पाप इतने अधिक होते हैं, कि प्रयत्न करने पर भी वह सफल नहीं हो पाता। दुखः भंजन महाकाली दीक्षा के माध्यम से आप अपने अन्दर की गहराइयों में उतरना प्रारंभ करेंगे।
जिस प्रकार भगवान शिव शांत चित्त रहते हैं, उनकी कृपा से आप व्यस्त रहते हुए भी प्रफुल्लित रह सकेंगे, क्योंकि गुरु ही शिव हैं और शिव ही गुरु हैं, इनमें कोई भेद नहीं है। यह चिन्ता मुक्ति व आनन्द सिद्धि प्राप्त करने की दीक्षा है। साधक अपने जीवन में इस दीक्षा को प्राप्त करने के उपरान्त स्वतः ही अनुभव करता है कि उसके जीवन के अभाव, परेशानियां दूर होती जा रही हैं। साधनात्मक क्रियाओं से व्यक्ति अपने अन्दर इस शक्ति का विकास कर सकता है, जिसके फलस्वरूप उसके चेहरे, शरीर एवं वाणी में आकर्षण स्पष्ट झलकेगा और लोग उसके प्रति खिंचे चले जाएंगे। यह आह्लाद आन्तरिक सौन्दर्य से सम्पन्न व्यक्ति के निकट बैठ कर ही प्राप्त किया जा सकता है। यही कारण है, कि किसी स्वच्छ, निर्मल व शान्त मन वाले साधु, पुरुष या सन्त के पास जाने से मन प्रसन्न हो जाता है, आह्लादित हो जाता है।
सद्गुरूदेव के वचनानुसार सिद्धाश्रम दिवस जैसे अतुलनीय अवसर पर शिविर हेतु ऐसे स्थान का चयन किया गया है जहां कि शिव-स्वरूप में उगना महादेव और गौरी शक्ति स्वरूप में विराजमान हैं। मिथिलांचल प्राचीन काल से ही संस्कृति एवं आध्यात्म और ज्ञान का केन्द्र रहा है। गृहस्थ जीवन का आदर्श स्वरूप भगवान सदाशिव और माता पार्वती ही हैं। जिस प्रकार भगवान शिव का गृहस्थ जीवन सभी कामनाओं से पूर्ण है, पुत्र के रूप में भगवान गणपति और कार्तिकेय हैं और पत्नी रुप में गौरी लक्ष्मी स्वरूपा पार्वती हैं। स्थान भी पूर्ण शांति युक्त हिमालय है, जहां पूर्ण आनन्द से विराजित होते हैं। गृहस्थ व्यक्तियों के लिए शिव और गौरी आदर्श स्वरूप हैं क्योंकि शिव को रसेश्वर कहा गया है और गौरी को लक्ष्मी कहा गया है।
इसी के फलस्वरूप इन्हीं पौराणिक महत्वों के साथ दिव्य, तेजमय, देव तत्व में भगवती महाकाली का जागृत स्थान है। माता जगदम्बा सीता की जन्मस्थली एवं विष्णुरूपाय नारायण भगवान श्रीराम-जानकी की परिणय स्थली है। मान्यता है कि भगवान सदाशिव पृथ्वी लोक में प्रवास काल में मैथिल कोकिल कवि विद्यापति के भावों से भाव विभोर होकर महादेव ने उगना रूप में चाकर बन कर अपना स्वरूप दिखाया इसी नाम से प्रसिद्ध उगना महादेव स्थान दक्षिण में अवस्थित है। शिवरात्रि और वैशाख शुक्लपक्ष के प्रदोष पर्व पर लाखों भक्त आकर उगना महादेव की पूजा अर्चना कर अपने जीवन को शिवगौरी मय बनाने का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
पूर्ण रूपेण दत्तचित्त होकर, संयमशील भाव से इस दिव्यतम स्थान पर साधना करने से निश्चित रूप से भगवती महाकाली साधक को सिद्धि प्रदान करती हैं। व्यक्ति को शक्ति स्वरूप में सभी विद्यायें प्रदान कर, ज्ञान और चेतना से श्रेष्ठ काव्यमय पौरूषता प्रदान कर काव्यमय युग पुरूष बना देती है। जहाँ शिव और शक्ति साथ-साथ रहते हैं उस स्थान पर साधना पूजा करने से मनुष्य पुरूषोत्तम मय बनने की ओर अग्रसर होता है जिससे जीवन की मलिनता, जीर्ण-शीर्ण स्थितियां, दरिद्रता को पूर्ण रूपेण समाप्त कर साक्षीभूत शिव-शक्ति रूप में सिद्धाश्रम के दर्शन कर अपने जीवन को भौतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से परिपूर्ण बना सकता है।
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