वराभीति-हस्तं द्वि बाहुं प्रसन्नं,
शिव सु प्रसन्नं स्व- शक्त्योपविष्टम्।
प्रसन्नास्य बिम्बं प्रकाश स्वरूपं,
शिरः पद्म मध्ये गुरुं भावयामि।।1
बकं वह्ति संस्थं त्रि मूर्त्या प्रजुष्टं,
शशाड्केन युक्तं तवाद्यं स्वः बीजम्।
सुवर्ण प्रभं ये जपन्ति त्रि शक्ते,
श्रियं सौभगत्वं लभन्ते नरास्ते।।2।।
नभे वायु मित्रं ततो वाम नेत्रं,
सुधा-धाम बिम्बं नियोज्यैक वक्त्रम्।
द्वितीय स्वय बीजं सुर श्रेणि वन्द्यं,
त्वदीयं विभाव्य श्रियं प्राप्नुवन्ति।।3।।
विरिंचं क्षितिस्थं ततो वाम-नेत्रं,
विधुं नाद युक्तं दिनेशाभ बीजम्।
विभाव्यैव सम्मोहयन्ति त्रिलोकीं,
जपादीश्वरत्वं लभन्ते नरेन्द्राः।।4।।
त्रयं सिन्नयोज्य स्मरारि प्रिये ये,
त्रि सन्ध्यं जपन्ति त्वदंड्गं विभाध्य।
न तेषां रिपुर्वाक् प्रयोगं करोति,
स्मरास्तेऽड्गनानां गृहे श्रीस्तु तेषाम्।।5।।
मुखे भारती गद्य-पद्य प्रबन्धा,
न हिंसन्ति हिंस्त्रा: सुरास्तान्नमन्ति।।
तदंध्रि द्वयं भूषणं मूधि्र्न राज्ञाम्,
करे सिद्धयो दुर्गहास्तांस्त्यजन्ति।।6।।
वने पारिजात द्रुमाणां पृथिव्याम्,
सुवर्ण प्रभायां मणि व्यूह गेहे।
स्मरेद् वेदिकाया लसद् रत्न सिंहासने,
पद्ममष्टाराभं पदम् संविचिन्त्यम्।।7।।
स्फुरत् कम्बु कण्ठां सु वक्षोज नम्राम्।।8।।
महा रत्न वज्रोल्लसद् बाहु वृन्दैः,
सु पद्म द्वयं पाशकं कार्मुकं च।
सुवर्णांकुशं पुष्प बाणान् दधानाम्,
बृहद् रत्न भूषां सु मध्यां सुकांचीम्।।9।।
तुला कोटि रम्य स्फुरत् पाद पद्माम्,
किरीटाद्यलड्कार युक्तां प्रसन्नाम्।
सिते चामरे दर्पणं तत् करपदमं,
समुद्गं सु कर्पूर पूर्णं धृताभिः।।10।।
त्रिलोकी विधात्रीं जगत् ताप हर्त्रीम्,
जगत् क्षोभ कत्रीं जगत्लोक धात्रीम्।
सदानन्द पूर्णां हकारार्द्ध वर्णाम्,
त्रि बिन्दु स्वरूपां त्रि शकि्ंत भजामि।।11।।
चिरं चिन्तयित्वा तदेतत् स्वरूपाम्,
पुरो यंत्र मध्ये समावाह्य भक्त्या।
स्वयम्भू प्रसूनादिभिः पूजयित्वा,
चतुर्वर्ग सिद्धिं लभेत् पामरोऽपि।।12।।
श्रियं च पतिं पार्वतीमीश्वरं च,
रति काम देवं षड्डगेन सार्द्धम्।
स्व योनौ तथा मंत्रमुक्त्वा भवानीम्,
क्रमात् पूजयित्वा नरेन्द्रो भवेत् सः।।13।।
निधी द्वौ च पाश्र्व्र द्वये संविभाव्य,
प्रपूज्या महिष्यस्ततो लोक पालाः।
तदस्त्राणि तत्तद् दलाग्रे प्रपूज्य,
भवस्याष्ट सिद्धिं लभेन् मानवोऽपि।।14।।
क्षितिस्त्वं विधात्री जगत्सृष्टि कर्त्री,
तवमापोऽपि विष्णुर्जगत्पालिका च। त्वमग्निस्तु रुद्रौ
जगत् क्षोभ कर्त्री,विष्णु पत्नी लक्ष्मी च
त्वमैश्वर्य युक्ता जगद् वायु रूपा।15।।
त्वमाद्या शिवे! शम्भु कान्ते! शरण्ये,
जगद् ब्रह्म रन्ध्रे सदारं भ्रमीषि।
निराधार गम्या भवस्यैक पुण्या,
त्वमाकाश कल्पा भवानि! प्रसीद।। 16।।
भवाम्भोधि मध्ये निपात्यैव सर्वम्,
मुनीनां च गर्व सु खर्वं करोषि।
अतस्त्वां न जाने चिदानन्द रूपे,
प्रकाश स्वरूपे भवानि! प्रसीद ।।17।।
जपित्वा भवत्या जनो मन्द चेता,
जपन्नेक लक्षं कवित्वं करोति।
विचिन्त्य स्वरूपं त्वदीयं त्रि लोक्याम्,
लभेद् दुर्लभत्वं भवानि! प्रसीद।। 18।।
त्वमाधार शक्ति स्त्वमाधेय रूपा,
जगद् व्यापिका त्वं जगद् व्याप्य रूपा।
अभावस्त्वमेका गुणातीत रूपा,
त्वमेवासि भावो भवानि! प्रसीद।। 19।।
अणुस्त्वं विभुस्त्यं त्वमेवासि विश्वं,
स्तुति का भवत्या जगत्यां विभाति।
तथापि त्वदीया गुणा मां दिशन्ति,
स्तुतिं कर्तुमेवं भवानि! प्रसीद।।20।।
।।फलश्रुति।।
इदं स्तोत्रमत्यन्त गुह्यं नरा ये,
पठन्ति त्रि सन्ध्यं त्रिलोकी जनानाम्,
लभन्ते स्वरूपं भवानि! प्रसीद।।21।।
अर्थ- सर्व प्रथम मैं। अपने सद्गुरुदेव का ध्यान अपने शिर के सहस्त्रार कमल में करता हूं, जो द्विभुज है, अपने दोनों हाथ में वर और अभय मुद्रा धारण किये हुए है। अपनी पूर्ण शक्ति सहित कल्याणकारी, सुप्रसन्नभाव में विराजमान हैं। तेजोमय मुख मंडल युक्त सद्गुरुदेव को मैं नमन करता हूं।1।
हे! त्रि-शक्ति-रूपीणी त्रिपुटे! ‘वक’ अर्थात् ‘श’ और ‘वहि्त’ अर्थात् ‘र’ में ‘त्रिमूर्ति’ अर्थात् ‘ई’ का योग कर उसमें ‘शशांक’ अर्थात् चंद्र बिन्दु का यो गकरने से जो बीज मंत्र है वह ‘श्रीं’ है, मैं स्वर्णकान्तिवाले ऐसे बीज मंत्र का जप करता हूं। उससे मुझे जीवन में पूर्ण लक्ष्मी और सौभाग्य प्राप्त हो।2।
‘नभ’ अर्थात् ‘ह’ ‘वायुमित्र’ (अग्नि) अर्थात् ‘र’ ‘वामनेत्र’ अर्थात् ‘ई’, ‘चन्द्र’ अर्थात् ( ँ) इन वर्णो को एकत्र मिलाने से आपका दूसरा बीज ‘ह्रीं’ बनता है। देवताओं द्वारा पूजित यह ‘ह्रीं ’ बीज मंत्र का मैं जप करता हूं जिससे मुझे जीवन में पूर्ण ज्ञान प्राप्ति हो।3।
‘विरिञ्ची’-‘क’, ‘क्षिति’- ‘ल’ ‘वामनेत्र’- ‘ई’, बिन्दु ( ँ)- इन वर्णो को मिलाने से आपक तीसरा बीज ‘क्लीं’ होता है। सूर्य के समान इस तेजस्वी बीज मंत्र का जप कर साक्षात् महाकाली सिद्ध होती है। मैं इस बीज मंत्र का जप करते हुए जीवन में पूर्ण शक्ति प्राप्त करने हेतु आपका नमन करता हूं।4।
हे! महान देवी जो व्यक्ति आपके इन तीन बीज मंत्रों का सामूहिक तीन संध्यायों में जप करते हैं, ध्यान करते है, इन के समस्त शत्रु वाक् शक्ति से विहीन हो जाते है। व्यक्तित्व कामदेव के समान आकर्षक बन जाता है और लक्ष्मी निरन्तर विराजमान रहती है। मैं आपका नमन करता हूं।5।
आपके मंत्र जप के प्रभाव से मुख द्वारा धाराप्रवाह श्रेष्ठ वाणी निकलने लगती है। हिंसक प्राणी भी उनके प्रति हिंसा भाव नहीं रखते, देव गण सहयोगी होते हैं, राज्य का सौभाग्य प्राप्त होता है, अष्ट सिद्धियां हाथ में रहती है, दुष्टग्रह दूर ही रहते है। मैं आपके इस शक्तिशाली मंत्र जप करते हुए नमन करता हूं।6।
इस अष्टदल कमल की कर्णिका में दो त्रिकोणों के मध्य में तप्तस्वर्ण जैसी कान्ति वाली देवी मूर्ति विराजमान हैं। आपके कानों में कुण्डल हैं। मुखमंडल चन्द्रमा के समान सुन्दर है। आप त्रिपुटा त्रिशक्ति को मैं नमन करता हूं।7।
आपकी सभी भुजाएं रत्न-हीरों अलंकारों से विभूषित हैं। हाथों में दो उत्तम कमल, पाश, धनुष, स्वर्णमय अंकुश और पुष्पबाण धारण किये हुए है। आपके उस स्वरूप का मैं नमन करता है। आप मेरे जीवन में विराजमान रहें।8।
आपके चरण कमलों में दो नूपुर शोभायमान हैं मस्तक पर मुकुट धारण किये हुए है। आपकी वन्दना के लिए विभिन्न देवियों विद्यमान है। हे! प्रसन्नमुखा त्रिपुटा शक्ति देवी आप मेरे जीवन में विराजमान हो।10।
आप ही संसार के तीनों भुवनो की सृष्टि करती है। उनका संहार करती है। तीनो भुवनो को क्षुब्ध करती है, और तीनों भुवनो के लोगो का पोषण करती है तथा नाद वर्ण जैसा आपका स्वरूप है। आप त्रि-बिन्दु-स्वरूपिणी है। आप त्रि-शक्ति-मयी त्रिपुरा देवी की मैं आराधना करता हूं।11।
आप के प्राण प्रतिष्ठा युक्त ‘यंत्र’ की आपके इसी रूप मूर्ति की भावना एकाग्रचित से रखकर भक्तिपूर्वक आवाहन और पुष्पों से आपकी पूजा करता हूं। आपकी पूजा द्वारा अधम व्यक्ति भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष फल प्राप्त करता है। मैं आपकी पूजा करते हुए वंदना करता हूं।12।
इस योनि में आकर आपके इस मूल मंत्र का उच्चारण करते हुए जो व्यक्ति जो छः देवताओं के साथ क्रमशः श्री, श्रीपति, पार्वती, ईश्वर, रति, कामदेव और भवानी की अर्चना करता है वह नर से नरेन्द्र हो जाता है। मैं भी ऐसी की कामना करते हुए आपकी पूजा अर्चना करता हूं।13।
आपके ‘यंत्र’ के दोनों पार्श्व में स्थित दो निधियों अर्थात् ‘शंख निधि’ एंव ‘पप्रनिधि’ की पूजा करता हूं। ‘यंत्र’ में स्थित लोकपालो का पूजन करता हूं। पप्र के अग्रभाग में आप के अस्त्रे की पूजा करता हूं। ऋषि मुनि कहते है कि आपकी पूजा से मनुष्य भी अष्ट सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है। मैं ऐसी ही इच्छा रखे हुए आप की पूजा करता हूं।14।
हे जननि! आप शक्ति-मयी ब्रह्मा मूर्ति द्वारा जगत् की सृष्टि करती हैं, जल मयी विष्णु मूर्ति द्वारा जगत की रक्षा करती हैं, अग्नि मयी रूद्र मूर्ति द्वारा जगत् का संहार करती है। आप ऐश्वर्य रूपिणी है और ब्रह्माण्ड की वायु रूपिणी है।15।
हे शिवे! हे शम्भु-महिषि! आप सबकी रक्षा करने वाली आद्याशक्ति है। आप जगत् के सभी प्राणियों के ब्रह्मा रन्ध्र में सदा भ्रमण करती रहती हैं। हे भवानि! आप गगन रूपिणी होकर भी एकमात्र शिव के पुण्य फल से स्वरूप धारण करती है। आप मुझ पर सदैव प्रसन्न हों।16।
हे देवि भवानि! आप सभी को इस भव सागर में निमग्न कर बड़े से बड़े व्यक्ति का अंहकार भी चूर कर देती हैं। आप सदानन्द-रूपिणी, प्रकाश-मयी हैं। मैं अपनी सामान्य बुद्धि से आपको पहचानने में समर्थ नहीं हूं। आप सदैव मुझ पर प्रसन्न हो।17।
हे भवानि! ऐसा कहते है कि मंदबुद्धि वाला व्यक्ति भी आपके मंत्र का एक लाख जप कर कवित्व शक्ति प्राप्त कर लेता है। इस त्रिलोक में जो आपके स्वरूप को जान लेता है, वह दुर्लभ को भी प्राप्त कर लेता हैं। आप मुझ पर प्रसन्न हो।18।
हे भवानि! यद्यपि आप आधार शक्ति रूपिणी हैं तथापि आधेय-रूपिणी भी आप ही हैं। आप जगद् व्यापिनी होकर भी जगत् की व्याप्य- रूपिणी भी हैं। आप अभाव-रूपिणी होकर भी भाव रूपिणी हैं। आप त्रिगुणातीता हैं। आप मुझ पर प्रसन हों।19।
हे देवि! आप सूक्ष्म-रूपिणी हैं, फिर आप ही स्थूल-रूपिणी विभु-मूर्ति भी है। अधिक क्या, आप ही समस्त विश्व हैं। हे भवानि! इस विश्व में आपकी स्तुति करने की शक्ति किसमें हैं? केवल आपकी गुण राशि मुझे आपका स्तवन करने की प्रेरणा देती है। मैं अक्षम होने पर भी आपकी स्तुति करता हूं। आप मुझ पर सदैव प्रसन्न हों।20।
।। फलश्रुति।।
हे भवानि। जो तीनों सन्ध्या काल में जप के अन्त में आपके इस अति गोप्य स्तव का पाठ करता हैं, उसके लिए इस त्रिभुवन में कोई भी कर्म असाध्य नहीं रहता। वह सभी कार्य करने में समर्थ होता है। आपका वास्तविक स्वरूप उसे ज्ञात हो जाता है। आप मुझ पर सदैव प्रसन्न हों।21।
वास्तव में यह त्रिशक्ति त्रिपुटा स्तोत्र साधक के जीवन में समस्त चक्रों को जाग्रत कर उसे परमानन्द प्रदान करता है, केवल इस स्तवन स्तोत्र पाठ ही विशेष कल्याणकारी है, और यदि अपने घर में यंत्र सिद्धि प्राण प्रतिष्ठा युक्त ‘त्रिशक्ति यंत्र’ का नित्य पूजन कर इस स्तोत्र का संस्कृत अथवा हिन्दी ही पाठ कर लिया जाए तो अत्यंत शुभकारी रहता है।
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