मनुष्य के कई जन्म होते हैं, पहला जन्म तब उसका होता है जब वह माता के गर्भ से बाहर आता है, दूसरा जन्म तब होता है जब अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान, दूसरों से पढ़ सुनकर, संसार को देखकर प्राप्त करता है। तीसरा जन्म उसका तब होता है जब वह अपने गुरू से उपदेश लेकर मंत्र दीक्षा लेकर अपने स्वरूप को जानने के लिए आध्यात्मिक यात्रा प्रारम्भ कर देता है। जब व्यक्ति गुरू की शरण में जाता है तो यह निम्न कोटी की पराधीनता अर्थात वासना की वृतियां समाप्त होने लगती है व्यक्ति स्वयं अपने मन का स्वामी बनने लगता है अपनी वृत्तियों पर नियंत्रण करने लगता है अपनी चंचलता को संभालने लगता है, इस प्रकार व्यक्ति अपना स्वामी स्वयं बन जाता है। सांसारिक भाषा में उसका प्रमोशन तो हो गया लेकिन अब दूसरी ओर गुरू जी के आश्रित हो गये। इस स्थिति में एक चीज का चुनाव करना है हमारे सामने एक पिशाच खड़ा है और एक देव स्वरूप दयालु व्यक्ति भी खड़ा है ये दोनों हर समय हमारे सामने है। गुरू जी कहते है ‘बेटा इधर आ जाओ’ और शिष्य कहता है ‘गुरू जी हम आपके अधीन नहीं बनेंगे’ और सांसारिक पिशाच गला पकड़े हुए है ऐसी स्थिति में बुद्धिमान व्यक्ति सोचता है यदि यह सांसारिक वृत्तियों, वासनाओं और अज्ञान का पिशाच मेरा गला पकड़े हुए है तो इससे अच्छा है कि उसकी पकड़ से निकलकर गुरू जी की पकड़ लग जाए। चाहे वह हमको पराधीन बनावें, नौकर बनाएं अथवा गुलाम बनायें कम से कम कुछ तो भला होगा ही कम से कम सद्गुरू हमारा गला तो नहीं काटेंगें, नीच बुद्धि तो नहीं देंगे, संसार दुःख रूपी राक्षस से तो हम स्वतंत्र रहेंगे।
गुरू एक सर्जन की तरह है उसके हाथ में एक पैना चाकू है और उस चाकू से वह शिष्य की अविद्या की ग्रंथियों को काटता रहता है उस समय शिष्य को बड़ी तकलीफ होती है, सोचता है कि कहाँ आकर फंस गये लेकिन जब एक बार अविद्या की ग्रंथि कट जाती है तो कई प्रकार के सांसारिक दुःखों से मुक्ति मिल जाती है। गुरू शिष्य को अनुशासन देते है उसे पराधीन या गुलाम नहीं बनाते यदि गुरू शिष्य को अपने ऊपर आश्रित करते हैं निर्भर करते हैं तो वह उसका विनाश नहीं करते अपितु उसे संभालते हैं। संसार में दो प्रकार के शिष्य होते है एक तो वीतरागी संन्यासी शिष्य और दूसरे साधरण गृहस्थ शिष्य। जो संन्यासी है जिन्होंने संसार में रहते हुए भी सांसारिक जीवन से नाता तोड़ लिया है जिनके लिए गुरू सेवा और गुरू के प्रति पूर्ण समर्पण ही शिष्य बनने का रास्ता है और जब शिष्य अनुशासित होता है तो उसे आनन्द की प्राप्ति होती है सिद्धियों का ज्ञान, वेद-पुराणों का ज्ञान, योग क्रियाओं का ज्ञान व्यक्ति को शिष्य नहीं बना सकता है। मात्र आनन्द ही उसे सच्चा शिष्य बना सकता है इसीलिए संन्यासी के नाम के अन्त में आनन्द लगा होता है।
जब गुरू का शिष्य के साथ आन्तरिक सम्बध स्थापित हो जाता है तो वह धीरे-धीरे शिष्य के दोषों को दूर करता है – जब तक कि वह ईश्वर का सही माध्यम न बन जाये। इस आन्तरिक प्रक्रिया को पूर्ण रूप से समझना कठिन है, क्योंकि गुरू शिष्य सम्बन्ध आत्मिक स्तर पर होता है। गुरू हमेशा अपने शिष्य का ख्याल करता है। कभी भूल ही नहीं सकता। गुरू शिष्य का आन्तरिक सम्बन्ध कभी नहीं टूटता। जब गुरू प्रथम बार शिष्य से मिलते हैं तो शिष्य उसे देखकर एक आत्मिक स्नेह का अनुभव करता है। यह स्नेह माता-पिता, बन्धु और प्रेमी से बढ़कर होता है। गुरू के स्नेह पाश में बंधकर सांसारिक बंधनों को तोड़कर शिष्य अपने गुरू के पास चला जाता है। तब उसे लगता है कि इस जगत में अब तक मैं क्या था और वह अपने संस्कार तथा वासना के पिटारे को गुरू चरणों में सौंप देता है। गुरू उसे स्वीकार कर लेते हैं, गुरू परीक्षाओं के बाद उसे साधना और तप की अग्नि में निर्मल बनाकर अपने आत्म ज्ञान को उसे सौंप देते हैं। इसी आत्मा समर्पण के कारण शिष्य गुरू के विशाल ज्ञानमय व्यक्तित्व को पहचान लेता है और उनके सम्पूर्ण क्रिया कलापों को आत्मसात कर लेता है। इस प्रकार वह गुरू के अनन्त भंडार का उत्तराधिकारी बन जाता है।
वास्तव में गुरू ही हमारी आत्मा का दर्पण है। आपके अच्छे या बुरे जैसे भी विचार होंगे उसी के अनुरूप अच्छा या बुरा आपको अपना गुरू दिखाई देगा। उदाहरण यदि आप अंदर से दयालु एवं सरल प्रवृत्ति के हैं तो आपको अपने गुरू भी दयालु व सरल दिखाई देंगे। जैसे-जैसे आपके विचारों में पवित्रता आती जाएगी, आत्मा का रूप निखरेगा और आपको अपना गुरू भी उच्च रूप में दिखाई देगा। गुरू ही वह स्वच्छ, निर्मल तथा कभी न टूटने वाला दर्पण है जिसमें आप अपनी आत्मा का सही रूप देख सकते हैं, संवार सकते हैं, अर्थात आत्मा-साक्षात्कार कर सकते हैं।
गुरू रूपी दर्पण को कहीं काँच के दर्पण जैसा न समझ लें। काँच का दर्पण यदि गंदा हो जाएगा तो पहले आपको उसे राख-पानी या साबुन से धोकर कपड़े से रगड़ कर पोंछना होगा, तब कहीं आप अपना सही रूप देख सकेंगे। पर गुरू रूपी दर्पण तो सदैव स्वच्छ एवं निर्मल है। उस पर कभी भी धूल-मिट्टी जम नहीं सकती। जब चाहे, आप अपनी आत्मा का स्वरूप उसमें निहार लें। अपना बाह्य रूप देखने के लिए तो काँच का दर्पण आपको अपने हाथ में उठाकर देखना होगा, पर गुरू तो एक ऐसा अनमोल दर्पण है जो प्रत्येक क्षण आपके हृदय में है। जब चाहें, स्वयं का आत्मिक चेहरा देख लें।
लोग कहते है कि यदि विगत जन्म में हमारे यही गुरू है तो पुनः उन्हीं गुरू को पाने के लिए क्यों भटकना पड़ता है, साधना करनी पड़ती है। यदि किसी साधक का अपने विगत जीवन में कोई गुरू था लेकिन वर्तमान जीवन में वह उस गुरू का शिष्य नहीं है तो प्रारंभ में अपने गुरू के अभाव में उसे बहुत अनिश्चितता का अनुभव करना पड़ता है। उसे अपने जीवन की सीमाओं और क्षण भंगुरताओं के बारे में बार-बार सोचना पड़ता है। जब वह अपनी सीमाओं का अनुभव कर चुका होता है तभी उसे अपनी अन्तश्चेतना में विद्यमान, किन्तु अज्ञात उस विगत जीवन के गुरू के विषय में अधिक से अधिक अनुभूति होने लगती है। उस गुरू के प्रति उसके भीतर उत्सर्ग, सम्मान और समर्पण का भाव प्रबल होने लगता है। फिर उसे अपना वह विगत जीवन का गुरू प्राप्त हो जाता है।
शरीर भाव में गुरू शिष्य दो हैं और दो ही रहेंगे। लेकिन उनका सूक्ष्म सम्बन्ध जो आध्यात्मिक धरातल पर आधारित है वस्तुतः एक ही है इस प्रकार जब गुरू शिष्य में परस्पर एकात्म भाव स्थापित हो जाता है तब आत्म चेतना का प्रवाह सतत हो जाता है जहाँ न तो गुरू भिन्न होता है और न ही शिष्य, दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। जिस प्रकार समुद्र में मिलने पर नाले का जल ओर गंगा का जल दो नहीं रह पाते, एक हो जाते हैं और यही सब शिष्यों की मंजिल है।
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