गुरु तो श्रेष्ठ ज्ञान और सांसारिक जीवन में हर तरह की श्रेष्ठता को किस तरह से प्राप्त करना है ऐसा मार्ग दर्शन शिष्य को देने का प्रयत्न करता है, वह इस बात को देखता रहता है कि शिष्य में कितनी परिपक्वता या कितना स्नेह-सम्बन्ध आ पाया है। वह जितना ही ज्यादा गुरु की साधना में लीन होगा, गुरु उतनी ही तेजी के साथ उसे ज्ञान देने का प्रयत्न करेंगे। इसके लिए पूरा प्रयत्न शिष्य की तरफ से ही होता है। इसके साथ ही साथ जब वह ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेता है तो उच्चकोटि के योगी, संन्यासी और उसके प्रिय गुरु का भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष आशीर्वाद प्राप्त हो जाता है, जिससे वह अवश्य ही अपने क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता ही है।
वह जीवन ही क्या जो गुमनामी के साथ व्यतीत हो जाये, उस जीवन का मकसद ही क्या जिसके द्वारा आप हजारों-लाखों लोगों का कल्याण न कर सकें। वह जीवन, जीवन कहा ही नहीं जा सकता, जो पूरे देश में प्रसिद्धि और समृद्धि प्राप्त न कर सके, जो अपने जीवन में अद्वितीय न बन सके और जो साधना के क्षेत्र में पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं कर सके।
यह दिवस ‘दृढ़ संकल्प दिवस’ है, मनोयोग पूर्वक पूर्ण निश्चय का दिवस है, मन के चिंतन और आत्मलोचन का दिवस है। यह दिवस इस बात का साक्षी है, कि मैंने अपने जीवन में अब तक क्या प्राप्त किया है, और मुझे क्या प्राप्त करना है। मैंने अब तक जो जीवन बिताया है, उसका क्या प्रयोजन रहा है और मुझे इस एक वर्ष में जीवन की पूर्णता के लिए क्या कार्य, क्या साधना सम्पन्न करनी चाहिए और यदि ऐसा आत्म विश्लेषण शिष्य दृढ़ता पूर्वक कर लेता है, तो यह दिन उसके लिए परिवर्तनकारी, सौभाग्यशाली और श्री विद्या से युक्त होता है।
जब जीवन प्राप्त हुआ है तो जीवन में कई प्रकार के संयोग-वियोग बनते ही हैं। हर संयोग किसी कार्य का निमित्त बनता है। लेकिन ऐसा कौन सा कार्य है जो व्यक्ति स्वतंत्र रूप से कर सकता है? जब व्यक्ति सम भाव से जीवन जीना प्रारम्भ कर देता है, स्वाध्याय और स्वयं से वार्तालाप प्रारंभ कर देता है तथा समष्टि भाव आ जाता है तो व्यक्ति स्वतंत्र हो जाता है और वही संन्यासी बन सकता है। जीवन चक्र से मुक्त होना, जीवन से भागना नहीं है। कर्त्तव्य भाव से, कर्म से ही संन्यास प्राप्त हो सकता है।
इसीलिये हजारों वर्षों पूर्व महर्षि पाराशर ने संन्यास, संन्यासी और जीवन के दस नियम बताये। ये नियम व्यवहार में लाने योग्य नियम हैं और जो व्यक्ति इन नियमों का पालन करता है, वह संन्यासी बनकर जीवन का आनन्द प्राप्त कर सकता है। वह छोटे गांव में रहे अथवा बड़े शहर में, वह नौकरी पेशा हो अथवा व्यवसायी, वह स्त्री हो अथवा पुरुष इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। इसीलिये महर्षि पाराशर कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति संन्यासी बन सकता है, उसे जीवन में भागने की आवश्यकता ही नहीं है। उनके द्वारा दिये गए सूत्र निम्न प्रकार से हैं-
सार्व भौमिक सत्य तीन प्रकार के सत्य कहे गये हैं, वे हैं तात्विक, व्यवहारिक और कौटुम्बिक सत्य और ये सत्य त्रिकाल बाधित जीवन के सिद्धांत होने चाहिए अर्थात सत्य सदैव सत्य ही रहता है, वह किसी भी काल में, किसी भी बाधा में, परिवर्तित नहीं हो सकता। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने उपदेश देते हुए कहा है कि सत्य को विजय प्राप्त होने में थोड़ा विलम्ब अवश्य हो सकता है, लेकिन सत्य कभी परास्त नहीं हो सकता। जिसने अपने जीवन में निश्चित सत्य को अपना लिया, वह संन्यास मार्ग पर गृहस्थ जीवन जीते हुए भी पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकता है।
ऋषि ने सिद्धांत दिया कि सत्यनिष्ठ समाज के शरीर में ज्ञान, कर्म और धन का प्रवाह रहना चाहिए और वह प्रवाह सत्यनिष्ट व्यक्ति के जीवन में स्पष्ट रूप से दिखाई देना चाहिए। धन का प्रवाह रूकने से समाज का निधन होता है। उसी प्रकार ज्ञान के हाथ में कर्म और कर्म के हाथ में ज्ञान नहीं होने से समाज पंगु बन जाता है अर्थात प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ज्ञान, कर्म और धन की स्थिति निरन्तर बनी रहनी चाहिए। तभी वह श्रेष्ठ कर्म संन्यासी बनकर स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकता है।
ज्ञान, कर्म और धन समाज के शरीर में एक ही दिशा में प्रभावित होने चाहिए। ऐसा न हो कि धन कुछ व्यक्तियों के हाथ में एकत्रित हो जाए, ज्ञान कुछ व्यक्तियों के पास एकत्रित हो जाए और कुछ व्यक्ति केवल कर्मशील ही हों। इसलिए ज्ञानी व्यक्तियों को समाज में ही संन्यस्त भाव में रहकर धन और कर्म के बीच में समन्वय स्थापित रखना चाहिए। ज्ञान भी धन है और संन्यासी का मूल उद्देश्य ही ज्ञान रूपी धन द्वारा समाज को चैतन्य करना है।
मनुष्य जो भी कर्म करे, उसका फल उसे अपने जीवन में अवश्य ही प्राप्त होना चाहिए। निरुद्देश्य भाव से साधना, कर्म इत्यादि क्रियाएं सम्पन्न करने से पूर्णत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है। हर स्थिति में व्यक्ति को अपने सामने लक्ष्य अवश्य रखना चाहिए। उसे सच्चा तत्वदर्शी, कर्म संन्यासी बनना चाहिए।
कर्मशील संन्यासी के जीवन में नम्रता और शौर्य दोनों ही भाव अवश्य होने चाहिए। संसार में सब को अच्छा कहने से संसार नहीं चल सकता है, इसी तरह संसार में जैसा चल रहा है, वैसा ही चलने देने की भावना भी कर्म संन्यासी के मन में नहीं आनी चाहिए। असत्य का नम्रता से प्रतिकार और सत्य का दृढ़ता से पालन कर ही अन्याय और अत्याचारों से रहित अनुशासित समाज की रचना की जा सकती है और ऐसे समाज की रचना करना कर्म संन्यासी का कर्त्तव्य है।
हर व्यक्ति अपने घर में, अपने स्थान पर नेतृत्व करने की क्षमता रखता है। आवश्यकता इस बात की है कि अपने भीतर उस क्षमता का विकास किया जाए। नेतृत्व सदैव प्रभावशाली और सत्य से युक्त होना चाहिए जिससे समाज को नई दिशा सदैव प्राप्त होती रहे। जो सड़े-गले समाज में परिवर्तन लाने के लिए प्रभावशाली नेतृत्व दे सके, वही संन्यासी है।
जिस समाज में स्त्रियों का शोषण होता हो, उन्हें उचित मान सम्मान प्राप्त नहीं होता हो, ऐसा समाज उन्नति नहीं कर सकता। ऐसे समाज में व्यक्ति समाज की आधी शक्ति को व्यर्थ, नष्ट कर रहा होता। स्त्री शक्ति, जो कि सृष्टि को चलाने के लिए आवश्यक तत्व मानी गई है, उसका ही अपमान होगा तो संसार में तेजस्विता नहीं आ सकती और तेजस्व भाव जागृत करना संन्यासी का परम कर्त्तव्य है।
हर संन्यासी का कर्त्तव्य है कि वह समाज को स्वस्थ, सुखी और समृद्ध बनाने के लिए श्री, सरस्वती और शक्ति की सम्मिलित उपासना करे। जब इन शक्तियों का दुरुपयोग होता है तो समाज में अव्यवस्था बढ़ती है। इन तीनों के समन्वय से ही सुदृढ़ समाज की रचना हो सकती है।
प्रत्येक साधक को संन्यासी कहना इसीलिए उचित है कि वह इन तीनों कार्यों के लिए अर्थात ज्ञान, कर्म और धन के लिए सदैव कार्यशील रहता है। केवल स्वात्म सुखाय के लिए कोई भी क्रिया संन्यासी के लिए उचित नहीं है। आत्मा को सुख और आनन्द अवश्य ही प्राप्त होना चाहिए, लेकिन उसके लिए समाज में श्रेष्ठ आनन्दयुक्त वातावरण की रचना करना भी संन्यासी का ही कर्त्तव्य है।
संन्यासी के लिए यह कर्त्तव्य निश्चित किया गया है कि उसे समाज में सदैव परमात्मा के प्रति प्रीति एवं आपस में आत्मीयता का वातावरण बनाना चाहिए। जिस समाज में किसी प्रकार का ध्यान नहीं होता हो, किसी प्रकार की निश्चित धारणा नहीं हो और साधना, तपस्या जैसे कर्म नहीं हो वह समाज सुखी समाज नहीं बन सकता है।
संन्यासी ही साधक होता है और साधक ही संन्यासी होता है क्योंकि साधना का तात्पर्य ही जीवन में निश्चित सिद्धांत अपना कर निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सदैव कर्मशील रहना है। विशेष तथ्य यह है कि संन्यास का सम्बन्ध भगवती श्री विद्या से है और श्री विद्या के ही नाम ललिता, राजराजेश्वरी, महा त्रिपुरसुन्दरी, षोडशी इत्यादि हैं।
संन्यासी का तात्पर्य यह नहीं है, कि वह जंगल में रहता हो या भगवे कपड़े पहनता हो अथवा अपनी मर्जी से जीवन बिताता हो, अपितु संन्यासी का तात्पर्य यह है कि वे गृहस्थ में रहते हुए भी गृहस्थ की झंझटों से अपने आपको बचाएं रख सके। जो निरन्तर साधना की ओर अग्रसर हो और जिसके मन में यह बलवती इच्छा हो कि मैं अपने जीवन में साधना में अवश्य ही सफलता प्राप्त करूंगा- स्वर्ण विज्ञान, रसायन विज्ञान, आयुर्वेद विज्ञान क्षेत्र में पूर्णता के साथ सफलता प्राप्त करूंगा। साधाना के द्वारा ही जीवन के भौतिक आधयात्मिक सुखों की पूर्णता संभव हो पाती है।
यदि गुरु के द्वार तक पहुंचना संभव न हो या कुछ ऐसी परिस्थितियां आ जायें जिसकी वजह से यात्रा न कर सकें और गुरु से प्रत्यक्षतः न मिल सकें तो अपने घर में ही स्नान कर, शुद्ध वस्त्र धारण कर पूजा स्थान में बैठ जायें और पूर्ण विधि के साथ गुरु पूजन करें। हाथ में जल लेकर यह दृढ़ संकल्प करें कि मैं यह पूरा वर्ष गुरु चरणों में लीन रहता हुआ (अमुक) साधना में पूर्णता प्राप्त करने के लिए ही व्यतीत कंरूगा और (अमुक) क्षेत्र में पूर्ण सफलता प्राप्त करूंगा।
मनुष्य अपने जीवन में वह सब कुछ प्राप्त करना चाहता है जो उसकी आवश्यकता और उसकी मनोकामना है,पर वह अनेक भौतिक सुखों से वंचित रहता है। इसके निवारण हेतु संन्यास दिवस 17 नवम्बर को प्रातः 6:25 से 8:30 के बीच पूजा स्थान में बैठ कर शांत चित भाव से सद्गुरु का ध्यान करें, ऐसे श्रेष्ठ मुहुर्त में सद्गुरुदेव टेलीपेथी के माध्यम से दीक्षा प्रदान करेंगे। आप शांत निर्मल भाव से सद्गुरुदेव की आत्मशक्ति की रश्मियों को पूर्ण हृदय भाव से आत्मसात कर सकेंगें, जिससे अनेक-अनेक दुखों और कष्टों से मुक्ति प्राप्त हो सकेगी और साधक के जीवन में राज राजेश्वरी श्री विद्या स्थापित हो कर साधक संन्यस्त जीवन में पूर्णता प्राप्त कर सकेगा और अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगा।
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