धर्म कहते हैं। धर्म प्रजा को धारण करता है-
धारणद्धर्ममित्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः।
यत्स्याद्धारणसंयुक्त स धर्म इति निश्चयः।।
(महाभारत)
आचार (सदाचार) को धर्म का लक्षण माना गया है तथा आचार से ही धर्म को फलने वाला कहा
गया है-
आचारलक्षणो धर्मः सन्तश्चरित्रलक्षणः।
साधूनां च यथा वृत्तमेतदाचारलक्षणम्।।
आचारः फलते धर्मः।
(महाभारत)
आचार तथा धर्म को परस्पर पूरक मानकर आचार को ही परम धर्म के रूप में स्वीकार किया गया है। ‘मनु’ के अनुसार, वेद तथा स्मृतियों में वर्णित है कि आचार ही श्रेष्ठतम धर्म है। आत्मज्ञान के अभिलाषी द्विज को इसमें चेष्टारत रहना चाहिए।
आचारः परमो धर्मः श्रृत्युक्तः स्मार्त एव च।
तस्मादस्मिन्सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान्द्विजः।।
(मनुस्मृति)
धर्म प्रजा को धारण करता है, इस प्रकार सभी प्राणियों की रक्षा भी धर्म ही करता है। जिसका आधार सदाचरण है तथा नैतिक नियम भी इसमें सहायक हैं एवं इसी आधार पर सभी प्राणीमात्र की रक्षा अथवा धारणा होती है।
प्रारम्भिक वैदिक ‘ऋतु’ की अवधारणा आर्यों ने विकसित की थी। ‘ऋतु’ सांसारिक व्यवस्था थी, जो कि अपने विरोधी तत्त्व ‘अनृत’ में भी नैतिक व्यवस्था स्थापित करना चाहती थी। प्रारम्भिक भारतीय आर्य समाज की नैतिक तथा सामाजिक विचारधारा ऋत से प्रभावित थी। ऋत का वास्तविक सम्बन्ध यज्ञ अवस्था तथा नैतिक विचारधारा से सम्बन्धित था। कालान्तर में वह धर्म से सम्बद्ध हो गया। इस प्रकार धर्म का अभिप्राय जीवन की ऐसी व्यवस्था से है, जो कि नैतिक एवं सात्विक आचरण से ही सम्बंधित है।
धर्म के आधार स्तोत्र, वेद, स्मृति, सदाचार तथा आत्मतृष्टि हैं, जो धर्म के साक्षात चार लक्षण हैं-
वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्।
आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च।।
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।।
धर्मसूत्रों में वेदों, स्मृतियों तथा शीलगत व्यवहार को धर्म का मूल स्वीकार किया गया है। वशिष्ठ ने भी यह मत व्यक्त किया है, कि वेद तथा स्मृतियां मनुष्य के सदाचार से अधिक महत्वपूर्ण हैं। वेदों तथा स्मृतियों में मनुष्य के लिए जो कर्त्तव्य निर्देशित हैं, उनका निष्ठापूर्वक पालन करना ही धर्म है। सदाचार काल, समय तथा परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होकर मनुष्य के गुणों का अंग बनता है। यह कोई आवश्यक नहीं कि भिन्न देशों तथा वर्गों के आचार अभिन्न हों। प्रत्येक देश तथा जाति के आचार भिन्न-भिन्न होते हैं।
कुछ अर्थों में आचार भिन्न भी हो सकते हैं और अभिन्न भी। यह भी संभव है, कि आचारों के नाम पृथक हों, किन्तु उनका मूलभूत अर्थ तथा नियम समान होते हैं। याज्ञवल्क्य ने श्रुति, स्मृति, सदाचार के साथ सम्यक वांछा का निर्देश दिया है-
श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।
सम्यक् संकल्प कामो धर्ममूलमिदं स्मृतम्।।
सदाचार के अन्तर्गत सत्यता, हितकर प्रथाएं, आचरण तथा नैतिक व्यवहार का सन्निवेश होता है। इस प्रकार धर्म का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक तथा प्रशस्त है, जिसमें शुचिता, सत्यता, दया, अनसूया, शुभ के प्रति प्रवृत्ति, दानशीलता, सम्यक श्रम एवं लोभहीनता स्वभावतः सन्निविष्ट हो जाती है।
मानव जीवन में ‘सत्य’ की महत्ता अत्यधिक है। सत्य से ही व्यक्ति और समाज दोनों की ही उन्नति होती है। सत्य से श्रेष्ठ तो कुछ भी नहीं है- नास्ति सत्यसमो धर्मो ना सत्याद्विद्यते परम्। सभी वस्तुओं का आधार सत्य है, जो समृद्धि को वर्द्धित करता है। असत्य से जीवन तथा मन कलुषित तथा समाज दूषित होता है। इसीलिए वेदों में कहा गया है-
‘सत्यम् वद धर्मम् चर’
अर्थात सत्य बोलो तथा धर्म का आचरण करो। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी मनुष्य को सत्य का त्याग नहीं करना चाहिए।
माता, पिता तथा गुरु के प्रति श्रद्धा तथा आदर से नत रहना चाहिए। जो अपने माता, पिता तथा गुरु का निरादर करते हैं, वे बहुत बड़े पाप के भागी होते हैं। उनके प्रति आदर तथा श्रद्धा व्यक्त करके ही व्यक्ति लोक व परलोक में विख्यात होता है-
मातापित्रेर्गुरूणां च पूजा बहुमता मम।
इह युक्तो नरो लोकान् यज्ञश्च महदश्नुते।।
जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक माता, पिता तथा गुरु की सेवा करता है, वह प्रमादहीन गृहस्थ तीनों लोकों को विजीत कर लेता है तथा अपने शरीर में दैदीप्यामन होता हुआ सूर्यादि देवताओं के समान स्वर्ग में आनन्द प्राप्त करता है-
त्रिष्वप्रमाद्यन्नैतेषु त्रीलोकान्विजयेद्गृही।
दीप्यामानः स्ववषुषा देववद्दिवि मोदते।।
प्राचीन काल में मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन को विभिन्न स्तर के साथ अनुशासन, संयम तथा नियम के अन्तर्गत रखा गया था, जिसे आश्रम व्यवस्था कहते थे। मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक, चार आश्रम में विभाजित किया गया- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम।
ब्रह्मचर्य आश्रम के अन्तर्गत ब्रह्मचारी का यह धर्म निर्दिष्ट था कि वह गुरु के सानिध्य में रहकर वेदाध्ययन करे, सूर्योदय से पूर्व शय्या त्यागे, स्नानादि के पश्चात वह संध्योपासना तथा गायत्री जप करे, निरामिष होते हुए प्रसाधन सामग्री, नारी स्पर्श, संगीत, नृत्य आदि से दूर रहे, इन्द्रियों को वश में रखे, गुरु सेवा करे तथा भिक्षाटन कर अपना तथा गुरु का पोषण करे-
ब्रह्मचारी व्रती नित्यं दीक्षापरो वशी।
परिचार्य तथा वेदं कृत्यं कुर्वन् वसेत् सदा।
गृहस्थ का यह परम कर्त्तव्य था, कि वह त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ व काम) का पालन करता हुआ गृहस्थ कार्यों को करे। गृहस्थ के लिए अहिंसा, सत्य वचन, शम, दान आदि उत्तम धर्म माना गया है-
अंहिसा सत्यवचंन सर्वभूतानुकम्पनम्।
शमो दानं यथा शक्ति गार्हस्थ्यो धर्म उत्तमः।।
विभिन्न यज्ञों का सम्पादन गृहस्थ आश्रम के माध्यम से ही संभव था। पंच महायज्ञों की पूर्ति तथा संतानोत्पत्ति गृहस्थ आश्रम में रहकर ही सम्पन्न की जाती रही थी। देव-ऋण तथा पितृ-ऋण जैसे ऋणों से मुक्ति गृहस्थ आश्रम का अनुपालन करने से ही संभव थी।
गृहस्थ जीवन से अवकाश लेकर व्यक्ति वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। सांसारिक मोह-माया को त्याग कर एकान्त का आध्यात्मिक जीवन वानप्रस्थ आश्रम था। एक प्रकार से वानप्रस्थ आश्रम व्यक्ति के लिए संन्यास का प्रारम्भिक रूप था, जिसमें वह वन में रहकर संयम, त्याग, अनुशासन, धर्माचरण, सेवाभाव, तपश्चर्या आदि का अभ्यास करता था तथा विषय भोग पर नियंत्रण रखता था।
चतुर्थ आश्रम संन्यास आश्रम था। संन्यास आश्रम प्रवेश करने वाला व्यक्ति संन्यासी कहा जाता था, जो संसार से पूर्ण विरक्त होकर अपने को ईश्वर-भक्ति में लगाता था। उसे काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह आदि का त्याग करना पड़ता था तथा सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान आदि का पालन करना पड़ता था।
युग अथवा काल के अनुरूप भी धर्म की नियोजना की गई, क्योंकि युग अथवा काल के अनुसार धर्म परिवर्तित होता रहता है। नैतिक नियम तथा आदर्श, युग के अनुसार बनते-बिगड़ते रहे हैं। सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग जैसे युग अपने-अपने युग धर्म तथा आदर्श को व्यक्त करते हैं-
अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरे परे।
अन्ये कलियुगे चैव यथा शक्ति कृता इव।।
‘सतयुग’ तप धर्म के लिए, ‘त्रेतायुग’ ज्ञान धर्म के लिए, ‘द्वापरयुग’ यज्ञ धर्म के लिए तथा ‘कलियुग’ दान धर्म के लिए है। वस्तुतः समाज की नैतिकता, कार्यप्रणाली आचार-विचार, व्यवहार तथा सांस्कृतिक प्रतिमान में समय के अनुसार परिवर्तन होता रहता है, जिससे युग धर्म प्रभावित होता है।
इससे स्पष्ट है, कि प्रत्येक युग के अपने धर्म हैं, जो दूसरे युग से भिन्न हैं। अपने कर्त्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करना और परिवार के सदस्यों के प्रति सम्मान तथा यथोचित लगाव रखना ही स्व-धर्म है। दूसरे का धर्म चाहे कितना ही अच्छा क्यों न हो, उसकी अपेक्षा अपना धर्म ही अधिक श्रेयस्कर होता है, चाहे वह स्वधर्म सदोष ही क्यों न हो-
श्रेयान्सवधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,