देवराज की अनुपस्थिति के कारण देव लोक में हाहाकार मच गया। यदि देवराज ही न होंगे तो इस स्वर्ग का संचालन कौन करेगा? कौन वर्षा कर पावन धरती को उपज प्रदान करेगा ? कौन दुष्ट दानवों से हम देवताओं और ऋषियों की रक्षा करेगा ? चारों ओर देवराज को ढूंढा जाने लगा। जब सभी निराश हो गए तो सभी ने यह फैसला लिया कि हमें नए राजा की तलाश करनी होगी जो हमारा प्रतिनिधि बन सके और जब तक देवराज इंद्र वापस नहीं आ जाते, वह स्वर्ग का संचालन करे।
उस समय नहुष नामक एक राजा था जिसने घोर तपस्या की थी। यह उसकी तपस्या का अंश ही था कि उसको इंद्रासन का उचित वर माना गया। नहुष ने यह कह कर इंद्रासन लेने से इन्कार कर दिया कि वह इतना शक्तिशाली नहीं है कि वह देवताओं का प्रतिनिधि बन सके। उसके मुंह से ऐसी बातों को सुनकर सभी देवताओं ने उसे अपनी थोड़ी-थोड़ी शक्ति प्रदान की ताकि वह बलशाली व योग्य बन सके। बार-बार मना करने पर भी जब देवता नहीं माने तो हार कर नहुष ने राजा बनने की स्वीकृति दे दी।
इंद्रलोक में पहुंच कर नहुष जैसा तपस्वी भी स्वयं को इंद्रलोक की चमक से बचा न सका। उसने मन ही मन सोचा इतना वैभव, इतना सम्मान तो मेरा तब भी नहीं हुआ था जब मैंने हुंड नामक दैत्य का वध किया था। यहां तो चारों ओर भोग ही भोग फैला हुआ है। ये सुंदर अप्सराएं – मेनका, उर्वशी सभी मेरी आज्ञा की प्रतीक्षा में बैठी रहती हैं। धीरे-धीरे नहुष पूर्णतः भोग-विलास में ही डूब गया।
कहते हैं कि मनुष्य अपने पापों और पुण्यों के कारण ही सब कुछ भोगता है। भोग में डूबे नहुष को अब यह ध्यान ही नहीं रहता कि वह देवराज है और उसके अन्य भी कई कर्तव्य हैं। एक दिन बैठे-बैठे उसके मन में यह विचार आया कि जब इंद्रासन ही मेरा है, तो मैं ही तो इंद्र हुआ। इस प्रकार से शची, जो कि पहले इंद्र की पत्नी थी, वह भी अब मेरी ही होनी चाहिए। ऐसा विचार मन में आते ही उसने शची को बुलाने का आदेश दे दिया।
नहुष का संदेश सुनकर शची घबरा गई। उसकी समझ में नहीं आया कि वह इस मुसीबत से स्वयं को कैसे बचाए। वह एक पतिव्रता स्त्री थी और किसी और पुरुष के बारे में सोचना उसके लिए पाप से कम न था। स्वयं को इस विपदा से बचाने का उसे जब कोई रास्ता न सूझा तो उसने देवताओं के गुरु बृहस्पति की शरण में जाना ही उचित समझा।
गुरु बृहस्पति ने उसकी बात को सुनकर कहा कि घबराओ मत! नहुष का पतन शीघ्र ही होने वाला है। तुम उससे कहो कि तुम उससे तभी शादी करोगी जब वह कोई ऐसा कार्य करेगा जो देवराज इंद्र ने भी न किया हो। जब नहुष ऐसे किसी कार्य के बारे में पूछेगा तो कहना कि उसे सप्त ऋषियों द्वारा ढोई गई पालकी में बैठ कर तुम्हारे पास आना होगा और जब वह आ जाएगा तो तुम उससे शादी कर लोगी। शची ने अपने गुरु द्वारा बताई गई नीति के अनुसार ही नहुष को शादी के लिए आमंत्रण भेजा।
शची की बात सुन कर नहुष ने मन ही मन सोचा, बस इतनी सी बात ! भला देवराज के लिए सप्त ऋषि तो क्या सभी ऋषियों को भी पालकी ढोनी पड़ती तो इसमें कौन सी बड़ी बात हो जाती। मैं भी तो इन सभी का इतना ख्याल रखता हूं। भला वो मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकते क्या ? अवश्य कर सकते हैं, उन्हें करना ही होगा ! ऐसा सोच कर उसने शची को अपनी स्वीकृति दे दी और सप्त ऋषियों को भी संदेश भिजवा दिया। न चाहते हुए भी सप्त ऋषियों को हांमी भरनी पड़ी!
अगले दिन प्रातः ही नहुष सप्त ऋषियों द्वारा ढोई जाने वाली पालकी में सवार हो गया। अब भला सप्त ऋषि, जो खुद ही अत्यन्त सामान्य कद-काठी के थे, भला नहुष को कैसे आराम से ले जाते। बेचारे भार के कारण जल्द ही थक गए और बार-बार अपने कंधे बदलने लगे। इधर नहुष के क्रोध की कोई सीमा न थी। काम का विकार इतना बढ़ चुका था कि वह सप्त ऋषियों पर क्रोधित होने लगा। उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे ये सप्त ऋषि रेंग रहे हों। उनकी दशा को देख कर नहुष उन्हें तेज चलने के लिए ‘सर्प-सर्प’ कहने लगा। सर्प का अर्थ संस्कृत में तेज चलना होता है और सांप भी होता है।
क्रोध में आकर उसने अपना पैर पटका। पर यह क्या ! उसका एक पैर अगस्त मुनि को जा लगा। अब तो सप्त ऋषियों की क्रोध की कोई सीमा न थी। उन्होंने नहुष को कहा कि, ‘हम तुम्हारी तब से बातें सुन रहें हैं, तुम्हारा भार भी सह रहें हैं। तू क्या चाहता है कि हम तेरी लातों को भी चुपचाप सहते रहें। तू हमें तब से सर्प-सर्प कह रहा है। हम तुझे श्राप देते हैं कि तेरा पतन होगा और तू सर्प योनि में हजारों साल तक रहेगा।’
सप्त ऋषियों के श्राप को सुनकर नहुष एकदम से होश में आया। उसके सिर से उसी समय भोग का दैत्य भाग खड़ा हुआ। अब उसे अपने किए पर पछतावा होने लगा। उसने सप्त ऋषियों से क्षमा मांगी और शची से भी अपने किए की क्षमा मांगी। उसने प्रण किया कि वह जीवन में हार नहीं मानेगा और पुनः इसी उच्चता को प्राप्त कर के ही दम लेगा। अब तक सप्त ऋषियों का क्रोध भी थोड़ा शांत हो चुका था। सप्त ऋषियों को उस पर तब दया आ गई और उन्होंने उसे कहा कि दस हजार साल बाद तुम्हारी भेंट धर्मराज युधिष्ठिर से होगी और वो ही तुम्हें ज्ञान दे कर तुम्हें सर्प योनि से मुक्ति दिलाएंगे।
कई वर्षों तक सर्प योनि में रहने के बाद अंतः वह समय आ ही गया जब युधिष्ठिर से उसका सामना हुआ। अज्ञातवास के समय भीम भोजन की तालाश में जंगल में भटक रहा था कि अचानक एक दैत्यकाय अजगर ने उसे पकड़ लिया। अपने सारे प्रयत्नों के बाद भी जब वह नहीं छूट पाया तो भीम को यह ज्ञात हो गया कि अवश्य ही यह कोई सामान्य अजगर नहीं है। उधर भीम को न पा कर युधिष्ठिर उसे ढूंढने निकल पड़े।
अपने भाई को अजगर की कुण्डली में जकड़ा देख कर युधिष्ठिर ने अजगर को अपना परिचय देते हुए उससे अपने भाई को छोड़ देने की प्रार्थना की। युधिष्ठिर की बातें सुनकर नहुष को याद आ गया कि उसकी मुक्ति केवल युधिष्ठिर ही करा सकते हैं। उसने युधिष्ठिर को अपने बारे में बताया। उसने कहा कि मैं तुम्हारे भाई को छोड़ दूंगा पर तुम्हें मेरे प्रश्नों का उत्तर देना होगा। युधिष्ठिर ने कहा कि मैं हर संभव कोशिश करुंगा कि मैं आपकी मुक्ति में सहायक बन सकूं।
नहुष ने पहला प्रश्न पूछा, ‘ब्राह्मण कौन है?’ युधिष्ठिर ने कहा, ‘वह व्यक्ति जो सत्य बोलता है, दान करता है, मृदुभाषी है और अहिंसा का पालन करता है, वही ब्राह्मण है। जन्म से हर व्यक्ति शूद्र ही होता है और वह अपने कर्मों से ब्राह्मण बनता है’।
नहुष ने अगला प्रश्न पूछा, ‘इन चारों गुणों में से कौन सा गुण श्रेष्ठतम है?’ युधिष्ठिर ने कहा, ‘यह समय पर निर्भर करता है। जहां सत्य बोलने की आवश्यकता है, यदि आप मधुर झूठ बोलें तो वह भी अधर्म ही है।’ नहुष ने अगला प्रश्न पूछा, ‘वह क्या है जो जानने योग्य है?’ युधिष्ठिर ने कहा, ‘अपनी आत्मा! जब व्यक्ति अपनी आत्मा को समझ लेता है तो न तो उसे दुःख दुखी करते हैं और न ही सुख उसे सुख प्रदान करते हैं। वह दोनों ही स्तिथियों को सामान्य ढंग से लेता है।’
युधिष्ठिर की इन बातों को सुन कर नहुष का सारा पाप-संताप मिट जाता है और सर्प योनी से मुक्त हो वह पुनः स्वर्ग को प्राप्त करता है। इस वृतांत में कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण बातें हैं जो ध्यान देने योग्य हैं।
1- प्रथम तो यह कि यदि अयोग्य को कुछ प्रदान किया जाए तो वह उसका दुरुपयोग ही करता है। यदि नहुष के अलावा किसी दूसरे योग्य व्यक्ति को चुना जाता तो शायद उसका यह परिणाम न होता।
2- दूसरा यह कि शक्ति मनुष्य की सोचने समझने की क्षमता को क्षीण कर देती है। शक्ति आने के बाद नहुष ने यह तक नहीं सोचा कि शची पर उसका कोई हक नहीं था।
3- तीसरी बात यह कि जीवन में गुरु सदा ही सहायक होते हैं, आवश्यकता है उन पर विश्वास करने की। यदि शची अपने गुरु की बात नहीं मानती तो उसके लिए नहुष से मुक्ति पाना आसान न होता।
4- चौथी बात यह कि हमें किसी भी हालात में हार नहीं मानना चाहिए। जितना बड़ा पतन या नुकसान नहुष का हुआ, उतना तो शायद ही किसी का हुआ होगा। देवराज से सीधा सर्प! फिर भी उसने हार नहीं मानी और पुनः अपने उत्थान के बारे में ही सोचा, निराशा को अपने पास फटकने नहीं दिया।
प्रायः हमारे जीवन में ये सभी स्थितियां आती ही हैं, भले ही उनका आकार छोटा हो या बड़ा। आवश्यकता इस बात की है कि हम सफलता को अपने सिर पर न चढ़ने दें क्योंकि यदि ऐसा होता है तो हमारा पतन निकट ही होता है। यह भी समझने योग्य बात है कि स्थिति कितनी भी दुखदायी क्यों न हो, एक दिन अनुकूल स्थितियां आती ही हैं। इन सब से भी ऊपर जो बात है, वह यह है कि यदि आपके जीवन में गुरु हैं, यदि आपको उन पर पूर्ण विश्वास है, तो चाहे कैसी भी प्रतिकूल स्थितियां हों, वो आपके लिए सुगम मार्ग निकाल ही लेंगें।
आवश्यकता इस बात की है कि आप उनके द्वारा बताए गए मार्ग पर चल सकें। यदि आप ऐसा कर सकेंगे तो जीत अवश्य आपकी ही होगी।
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