विश्वमित्र सैकड़ों वर्षों तक ब्रह्म कहलाए ही नहीं, ब्रह्म ऋषि नहीं कहलाए, राज ऋषि कहलाए। बहुत बाद में ब्रह्म ऋषि कहलाए क्योंकि वे अपने गुरु के हृदय में उतर नहीं पाए। अपने अहंकार की वजह से, घमंड की वजह से, अलग धारणाओं की वजह से ब्रह्म ऋषि नहीं कहला पाए और बहुत बाद में जब गुरु के हृदय में उतर सके तो ब्रह्म ऋषि कहलाए।
सद्गुरुदेव के प्रवचनों के माध्यम से स्पष्ट किया जा रहा यह क्रांतिकारी प्रवचन जिसे गुरुदेव ने अपने शिष्यों को ललकारते हुए उन्हें अपने जीवन की वास्तविकता को समझाने का प्रयास किया है कि क्या है तुम्हारा जीवन। भाग्य उसका ही साथ देता है जो पुरूषार्थ के साथ कार्य करता है, जिसका जीवन में गुरु के प्रति समर्पण है। इस ओजस्वी प्रवचन को बार-बार पढ़कर एक-एक शब्द को अपने जीवन में उतारें-
श्वेता श्वेतोपनिषद का अर्थ है कि हम ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं, श्वेत या अश्वेत, काले हैं या गोरे हैं। देवत्व जगाने की क्रिया इस उपनिषद में है। उपनिषद का तात्पर्य है कि गुरु के नजदीक बैठना। केवल शारीरिक दृष्टि से नहीं आत्मिक दृष्टि से उनके पास बैठकर के उनके एक-एक शब्द को सुनें, ठीक उसी प्रकार से सुनें जैसे अमृत पीते हैं और हृदय में हमेशा के लिए उसको धारण कर लें, जिससे कि हम वो स्थान प्राप्त कर सकें जो जीवन में दुर्लभ है। आज के परिवेश में, आज के वातावरण में, आज के विचारों में, लोगों के संपर्क के कारण आप इस चीज को समझे या नहीं समझें। महानता क्या है और सामान्यता क्या है शायद आप नहीं समझेंगें। आपको समझ में आएगा तो महानता तक पहुंच जायेगें। वहां का एक अलग आनन्द है। जिसने शास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया है वह समझ पाएगा कि शास्त्र का आनन्द क्या है। जो कालीदास पढे़गा वह उसका आनन्द ले पाएगा कि कालीदास ने कितनी अद्भुत कल्पनाएं की हैं। आम आदमी नहीं समझ पाएगा।
श्वेताश्वेतोपनिषद् भी 108 उपनिषदों में श्रेष्ठ उपनिषदों की गणना में आता है। उसमें एक श्लोक हैं।
दधतां सदैव दधतां परिपूर्णरूपं,
अज्ञान अन्ध दधतां सततं श्री देवः।
तस्यैव दुर्भाग्य भागय वदतां सहितं पवित्रः
स्वात्मैव कर्म भुक्ति र्न विधातृ भर्ता।।
बहुत सुन्दर श्लोक है और जीवन में उतारने लायक श्लोक है। ऋषि ने कहा भाग्य और र्दुभाग्य कोई चीज नहीं होती और विधाता जैसी भी कोई चीज नहीं होती। ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं कि पैदा होते हुए विधाता ने आपके ललाट पर कुछ लिख दिया हो, ऐसा कहीं शास्त्रों में उल्लेख नहीं हैं। शास्त्रों ने कहा है कि कि अहम् ब्रह्मास्मि, हम स्वयं ब्रह्म हैं, विधाता हैं तो दूसरे विधाता कौन से हो गए जिन्होंने आपके भाग्य में अच्छा या बुरा लिखा। ऐसा कौन सा विधाता पैदा हो गया?
विधाता का अर्थ है ब्रह्मा, निर्माण करने वाला, निर्मित करने वाला, रचने वाला। और जब विधाता हैं ही नहीं तो भाग्य जैसी भी कोई चीज नहीं हैं। उसका निर्माण भी हम ही करते हैं क्योंकि यदि पढ़े लिखे नहीं तो उनके काव्य को नहीं समझ सकते।
ठीक उसी प्रकार यदि हम ब्रह्म नहीं हैं तो भाग्य का निर्माण नहीं कर सकते। जो नहीं निर्माण कर सकते वह विनाशकारीं हैं, उसको भाग्य नहीं कह सकते। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे पास मकान नहीं हैं, यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम सफल नहीं हुए या पूर्णता प्राप्त नहीं की। हमारी केवल ईश्वर पर आश्रित होने की आदत पड़ गई है।
यह बहुत बड़ी बात कही है इस उपनिषद ने। बाकी सब शास्त्रों ने ईश्वर के अस्तित्व को माना हैं। इस उपनिषदकार ने कहा कि हम स्वयं ब्रह्म हैं तो फिर विधाता कौन है। हम स्वयं विधाता हैं। इसलिए ब्रह्म की परिभाषा इस श्लोक में की गई है कि ब्रह्म पाँच साल का प्रहलाद भी पूर्ण ब्रह्म था, शुकदेव पाँच साल के थे तब भी पूर्ण ब्रह्म थे और कश्यप अस्सी साल के थे तब भी पूर्ण ब्रह्म नहीं थे। जो गुरु के समीप रह सकता है और गुरु के हृदय में प्रवेश कर सकता है वह ब्रह्म है। यह श्लोक ने परिभाषा दी है। जो गुरु के समीप रहता है, शारीरिक रूप से या आत्मिक रूप से वह ब्रह्म है और वह गुरु के हृदय में प्रवेश करे। गुरु को भी आप स्नेह दें, यह तब होगा जब आपका कार्य होगा, जब आप नजदीक होंगे, आप उनके हृदय में उतर जाएंगे, तब आप ब्रह्म बन जाएंगे।
ब्रह्म की व्याख्या ऋषि ने बिल्कुल नए तरीके से की। ब्रह्मचारी रहने को ब्रह्म नहीं कहा, शास्त्र पढ़ने वाले को ब्रह्म नहीं कहा गया और ऐसे सैकड़ों ऋषि हुए जिन्होंने विधिवत ज्ञान प्राप्त नहीं किया, स्कूल में नहीं पढ़े और उन्हें ब्रह्म कहा गया। विश्वामित्र सैकड़ों वर्षों तक ब्रह्म कहलाए ही नहीं। ब्रह्म ऋषि नहीं कहलाए, राज ऋषि कहलाए, बहुत बाद में ब्रह्मऋषि कहलाए क्योंकि वे अपने गुरु के हृदय में उतर नहीं पाए। अपने अहंकार की वजह से, घमंड की वजह से, अलग धारणाओं की वजह से ब्रह्म ऋषि नहीं कहला पाए और बहुत बाद में जब गुरु के हृदय में उतर सके तो ब्रह्म ऋषि कहलाए।
इसका तात्पर्य यह है कि जो गुरु के हृदय में उतर सकता है, चाहे जो भी हो, चाहे मैं ही हूं और उनका इतना प्रिय बन सकूं कि उनके हृदय में उतर सकूं, उनके होठों पर अपना नाम लिखवा सकूं, गुरु को याद रहे, कि यह कौन है। हजारों-लाखों शिष्यों के नाम होठों पर नहीं खुदते और होठों पर नाम अंकित करने के लिए गुरु के हृदय में उतरना आवश्यक होता है और उसके लिए असीम प्यार की आवश्यकता होता है! समर्पण की आवश्यकता होती है और प्राणों से प्राण जुड़ने की जब क्रिया होती है तो प्राणों में उतरा जा सकता है। जब उसके बिना रह नहीं सकें तो हृदय में उतरा जा सकता है। जिसके बिना संसार सूना-सा लगे, उसके हृदय में उतरा जा सकता है।
हृदय में उतरने के लिए आपकी परसनैलिटी, आपकी सुन्दरता, आपकी महानता, आपकी विद्वता, आपका ज्ञान वे सब अपने आप में गौण हैं। इसलिए श्वेताश्वेतोपनिषद ने भाग्य और दुर्भाग्य की बिल्कुल नयी व्याख्या की। उसने सब कुछ आपके हाथों में सौंप दिया कि आप स्वयं ब्रह्मा हैं, आप स्वयं भाग्य निर्माता हैं, आप स्वयं दुर्भाग्य के निर्माता हैं, आप स्वयं उपनिषदकार हैं और आप स्वयं उपनिषद है। आप स्वयं गुरु के हृदय में उतरने की क्षमता रखते हैं, सारी बागडोर आपके हाथों में सौंप दी उस उपनिषदकार ने और मैं समझता हूं कि 108 उपनिषदकारों में से इसने बिल्कुल यथार्थ चिंतन किया है।
यह श्लोक सोने के अक्षरों में लिखने के योग्य है। इसलिए कि पहली बार एहसास हुआ कि हम सामान्य मनुष्य नहीं हैं, हम स्वयं नियंता हैं, निमार्णकर्ता हैं, मैं बहुत कुछ हूं और मैं स्वयं का निर्माण करने वाला हूं और मैं सामान्य शरीर से प्रारम्भ होकर के बहुत ऊंचाई तक पहुंचने वाला हूं।
पैदा होते समय व्यक्ति महापुरूष नहीं होता। एक भी महापुरूष पैदा नहीं हुआ। न राम महापुरूष थे, न बुद्ध महापुरूष थे। राजा के पुत्र थे वे सब। शुरू में सामान्य बालक थे, वैसे ही दौड़ते थे, घूमते थे, खेलते थे। वैसे ही थे जैसे हम और आप हैं। बाद में जाकर उन्होंने उस चीज को समझा जिसका मैंने अभी उल्लेख किया कि मुझे अगर कुछ निर्माण करना है और कुछ बनना है तो मेरी बागडोर मेरे हाथों में है। जब यह भाव आपके मन में रहेगा तो यह भाव भी रहेगा कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। यह भाव हो कि मैं तो अपना खुद का हूं नहीं, मैं किसी के हृदय में उतर चुका हूं।
जब उतर चुका हूं तो यह उनकी डयूटी है कि वह मुझे उस जगह पहुंचाएं। पत्नी शादी करने के बाद निश्चिंत हो जाती है कि यह पति की ड्यूटी है कि झौपड़ी में रखें, महल में रखें, गहन पहनाए या नहीं पहनाए, मारे या प्यार करे। वह अपना हाथ उसके हाथों में सौंप देती है।
इसलिए कबीर ने कहा कि मैं राम की बहुरिया हूं। सूर ने कहा कि मैं कृष्ण की प्रेयसी हूं। जायसी ने कहा कि मैं तो सही अर्थों में नारी हूं, ईश्वर के हाथों में सौंप दिया है और आप गाते हैं कि अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में। है जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में ये सब पुरूष हैं जिन्होंने ये बाते कहीं और इसलिए कहीं कि इन्होंने अपने आप को ईश्वर के हाथों में सौंप दिया था और आप गाते हैं कि अब सौंप दिया इस जीवन का भार————————
मगर जीवन में यह भाव उतारने की क्रिया होनी चाहिए केवल बोलने की क्रिया नहीं होती चाहिए। बोलने से आप अपने आप में ही रहेंगे। करने कि क्रिया से आप उनके हृदय में उतर सकेंगे। अंतर यहीं पर आता है! जब आप आपने आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर देंगे तो ब्रह्म बन पाएंगे। पूर्ण रूप से समर्पित करने का मतलब है कि आप अपना अस्तित्व खो दें, यह भूल जाएं कि मैं क्या हूं तो आप कुछ प्राप्त कर पांएगे और जिसने खोया है उसने सब कुछ प्राप्त किया है। मैं शिष्यों के पास बैठता हूं तो एक घण्टा खोता हूं। मगर यह नहीं खोता तो आपका प्यार, आपका समर्पण नहीं खोता। बिना खोए कुछ प्राप्त नहीं किया जा सकता और खोने के लिए चिंतन नहीं किया जाता। उसके लिए तो अंदर का भाव होना चाहिए और अंदर के भाव के लिए संकल्प शक्ति की आवश्यकता होती है। संकल्प शक्ति ही व्यक्ति को पूर्ण ऊंचाई तक पहुंचा सकती है।
हम द्वन्द्व में जीते हैं और पूरा जीवन द्वन्द्व में बिता देते हैं। चाहे गृहस्थ हैं या संन्यासी, पूरा जीवन द्वन्द्व में बिताते हैं, जीवन के अस्सी साल की उम्र में सोचते हैं क्या करें, क्या नहीं करें। प्रतिक्षण आपके मन में तर्क-वितर्क चलता ही रहता है और आप निर्णय नहीं कर पाते। लोग जहां आपको ठेलते हैं आप ठेल जाते हैं क्योंकि आप अपने हाथों में नहीं होते।
ऐसे व्यक्ति साधारण होते हैं, मुट्ठी भर व्यक्ति, लाख में से एक दो व्यक्ति अपना जीवन अपने हाथ में रखते हैं। औरंगजेब जब राजा बना तो उसको हाथी पर बिठाया गया कि हमारे यहां पर यह परंपरा है कि हाथी पर बैठकर राजतिलक किया जाता है। औरंगजेब पहली बार हाथी पर बैठा सीढ़ी लगा करके। बैठने के बाद उसने कहा मुझे लगाम दीजिए जिससे कि मैं इसे चलाऊं जैसे घोड़े की लगाम होती है, ऊंट की होती है। उसने कहा- शहंशाह-ए-आलम, हाथी की लगाम नहीं होती। वह एकदम से नीचे उतर गया, उसने कहा कि मैं इसकी सवारी नहीं करूंगा, जिसकी लगाम नहीं होती, मैं वह सवारी नहीं कर सकता, यह सवारी मेरे काम की नहीं है।
वह जीवन भी काम का नहीं है जिसकी लगाम आपके हाथ में नहीं है। इसका अर्थ है कि शिष्य और गुरु का एकात्म, क्योंकि आप तो आपने को समर्पित कर चुके हैं। वह जीवन जीना बेकार है जो आपके हाथों में नहीं है, वह जीवन सार्थक है जिसमें गुरु से सामीप्यता हो, प्रसन्नता के साथ सामीप्यता हो, पूर्णता के साथ सामीप्यता हो, प्रेम के साथ सामीप्यता। मजबूरी के साथ सामीप्यता नहीं हो सकती, छल, कपट और झूठ के साथ सामीप्यता नहीं हो सकती।
यदि आप कोई गाली दे दें कोई उसे सुने या नहीं सुने, गुरु उसे सुने या नहीं सुने मगर वातावरण में वह बात तैरती है और आपको नीचे के धरातल पर उतार देती है। आप जब भी ऐसी कोई बात करते हैं, निन्दा करते हैं या गाली देते हैं तो अपने आप में एक सीढ़ी नीचे उतर जाते हैं। जब भी आप चिंत्तन करते हैं कि आप उन मुट्ठी भर लोगों में से एक बनेंगे, बनूंगा तो नानक बनूंगा, वीर विक्रमादित्य बनूंगा, तो आप एक कदम आगे बढ़ जाते हैं। विक्रमादित्य भौतिक दृष्टि से एक पूर्णता प्राप्त राजा और नानक एक फक्कड़ युक्त दोनों की तरह जीना चाहें तो राजा की तरह जिएं। मगर गधे की तरह काम करेंगे तो राजा की तरह जी पाएंगे। शेक्सपीयर ने कहा हैं कि दिन में गधे की तरह मेहनत करनी चाहिए और रात में राजा की तरह आराम करना चाहिए।
श्वेताश्वेतोपनिषद में कहा है कि वह चाहे बालक हो, पुरूष हो या स्त्री हो, जो जीवन अपने हाथ में रखता है या गुरु के हाथ में रखता है वही सफल हो सकता है। सिक्के को हम दो भागों में नहीं बांट सकते कि यह सिक्के का अगला भाग है और यह पिछला भाग है। सिक्के के दो भाग अलग-अलग होते नहीं। एक ही सिक्के के दो भाग होते हैं। इसी तरह एक ही परसनैलिटी के दो भाग होते हैं जिसमें एक को गुरु कहते हैं, एक को शिष्य कहते हैं। दोनों को मिलाकर एक पूरा सिक्का बनता है और वह बाजार में चलता है, जीवन में चलता है।
जब शिष्य गुरु में मिल जाता है, प्रसन्नता के साथ में तो यह मिलना एकनिष्ठता की वजह से होता है। एकनिष्ठता का अर्थ है निरंतर गुरु कार्य में संलग्न और सचेष्ट रहना। मेरा मतलब यह नहीं है कि आप मेरा काम करें। मैं तो केवल श्लोक का अर्थ स्पष्ट कर रहा हूं। आप गुरु को देखें या नहीं देखें परन्तु प्रतिक्षण उनके कार्य में संलग्न रहते हैं, सचेष्ट रहते हैं, निरन्तर आगे बढ़ कर उनके कार्य को करते हैं तो मन में एक संतोष होता है कि मैंने वास्तव में एक क्षण को जिया है, फेंका नहीं हैं इस क्षण को। इस क्षण में मैंने कुछ सृजन किया है, व्यर्थ नहीं किया है इस क्षण को। इस क्षण में कुछ रचना की हैं, गालियां नहीं दी हैं। इस क्षण में किसी का स्मरण किया है, किसी के हृदय में उतरने की क्रिया की है। क्षण आपका है, आप चाहें दो घंटे ताश में बिता दें, या चाहे आप चिंतन करके या कोई कार्य करके बिता दें।
भाग्य या जीवन तो आपके हाथ में है। सामान्य मनुष्य बस जीवन जी कर बिता लेते हैं। आप जाकर देख लें सड़क पर सब सामान्य मनुष्य हैं। उनमें कुछ विशेषता है ही नहीं, उन्हें पता ही नहीं कि उनके आस-पास कौन रहता है।
शिव कहां रहते हैं यह मुझे मालूम है क्योंकि हर क्षण मैंने सृजन किया है। इस पद को प्राप्त करने के लिए तिल-तिल करके अपने खून को जलाया है। जलाया है तो आज पूरा देश, पूरा विश्व मानता है कि यह कुछ परसनैलिटी हैं। उस सृजन को करने के लिए व्यक्ति को अपने आप को जलाना ही पड़ता है। खून जल जाता है तो वापस आ जाता है, मांस जल जाता हैं तो वापस आ जाता है, मगर गया हुआ समय वापस नहीं आता। अगर मैं कंकाल भी हो जाऊं, मांस वापस चढ़ जाए। मांस चढ़ाने वाले बहुत मिल जाएंगे जो मिठाई खिला देंगे, घी खिला देंगे, मालिश कर देंगे तो मांस चढ़ जाएगा।
मगर कोई मुझे ज्ञान नहीं सिखा सकता, धर्म शास्त्र नहीं सिखा सकता, धर्म शास्त्र का सार नहीं सिखा सकता। कोई भाग्य का निर्माण करके मुझे नहीं दे सकता। मुझे महानता कोई नहीं दे सकता। वह सब मुझे खुद ही प्राप्त करना पड़ेगा, इसके लिए खुद को जलाना पड़ेगा। उसके लिए रचनात्मक चिंतन करना पडे़गा। उसके लिए प्रेम करना पड़ेगा, किसी के हृदय में उतरना पड़ेगा और एकनिष्ठ होना पड़ेगा। किनारे पर खड़े होकर नदी को या तालाब को कभी पार नहीं किया जा सकता। आप सोचेगें कि गुरु जी को भी देख लेते हैं, घर को भी देख लेते हैं और बाहर का काम भी देख लेते हैं, सब कुछ एक साथ कर लेते हैं- यह एकनिष्ठता नहीं है।
एकनिष्ठता का अर्थ है कि एक चित्त होकर के तीर की तरह एक लक्ष्य पर अचूक हो जाना। और जो तीर की तरह चलता है वह जीवन में सर्वोच्चता प्राप्त करता है और जो सर्वोच्चता प्राप्त करता है उसे संसार देखता है और जिसको संसार देखता है उसका जीवन धन्य होता है। और आपकी पीढि़यां जो स्वर्ग में बैठी होती हैं, वे भी धन्य अनुभव करती हैं कि हमारे कुल में कोई तो पैदा हुआ जो पूरे भारत में विख्यात है, पूरा भारतवर्ष इनको स्मरण करता है, इनकी आवाज पर लाखों लोग एकत्रित हो जाते हैं। इनकी आवाज पर लाखों लोग नाचने लग जाते हैं, झूमने लग जाते हैं। उन्हें भी लगता है कि कुछ तो है इस बालक में, कुछ है और उनको वह प्यारा अनुभव होता है।
और व्यक्ति पहले दिन से लगाकर अंतिम दिन तक बालक ही रहता है यदि सीखने की क्रिया हो, निरन्तर आगे बढ़ने की क्रिया हो, यदि प्यार करने की क्रिया हो और वह क्रिया भी आपके हाथों में है। इस उपनिषद में कहा गया है कि सब कुछ आपके हाथों में है, आप कैसा जीवन जीना चाहते हैं, घटिया, रोते-झींकते हुए, दुःख में अपने जीवन को बर्बाद करते हुए या अपने आप एकनिष्ठता प्राप्त करते हुए, जीवन में प्रत्येक क्षण आनन्द प्राप्त करते हुए, मुस्कुराहट के साथ में, चिन्तन के साथ में, कार्यों में डूबते हुए और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए।
कैसा जीवन आप व्यतीत करना चाहते हैं, यह आपके हाथों में है और यही आपके भाग्य का निर्माण करने वाला तथ्य होता है। इसलिए मैं हर क्षण को रचनात्मक बनाने की ओर अग्रसर रहता हूँ। यहाँ भी आया हूँ तो इससे पहले चार पेज लिख कर आया हूँ और जो भी लिखा है वह मौलिक लिखा है, जो कुछ बोल रहा हूँ वह मौलिक है क्योंकि मैं मौलिक व्यक्ति हूँ, नकलची व्यक्ति नहीं हूँ। मैं झूठन नहीं खाता हूँ, मैं झूठ नहीं बोलता हूँ। लोग बोल चुके हैं वही वापस अपने शब्दों में नहीं सुनाता हूँ। जो किसी ने आज तक नहीं बोला हैं वह प्रवचन मैं बोलता हूँ और पिछले पचास वर्षों में किसी के द्वारा कही गयी बात मैंने नहीं सुनाई है। जो कुछ मैंने अनुभव किया है वह मैं सुनाता हूँ।
जो कोई श्लोक हैं उसकी मौलिक व्याख्या करके सुनाता हूँ। जो कुछ मैंने कहा है वह कालजयी है, काल उसे मिटा नहीं सकेगा। जो श्लोक है, उसकी व्याख्या जिसने लिखा है उस ऋषि ने की होगा और किसी ने कहीं की होगी। उसका तथ्य समझा नहीं होगा, उसका चिन्तन समझा नहीं होगा। इसलिए मैं कहता हूँ कि गीता को कृष्ण के अलावा किसी ने समझा नहीं है। उनके श्लोकों को लोगों ने समझा ही नहीं। उनकी नवीन ढंग से चिंतन व्याख्या होनी आवश्यक है यह मेरे जीवन का एक लक्ष्य है, उद्देश्य है। आपका भाग्य दुर्भाग्य, आयु पूर्णायू, अमरत्व और मृत्यु, पूर्णता और अपूर्णता सब कुछ आपके हाथ में है, मगर उसका बेस एकनिष्ठता है।
आप जीवन में एकनिष्ठ बनें ऐसा ही मैं आपको हृदय से आशीर्वाद देता हूँ। श्वेताश्वेतोपनिषद बहुत ही महत्वपूर्ण उपनिषद है और इसका भाव विश्व आज नहीं तो कल अवश्य ही समझेगा और जब समझेगा तो यह ग्रंथ सबसे आगे की पंक्ति में खड़ा होगा। इस उपनिषद में ऋषि ने अपने सारे ज्ञान को बांध कर रख दिया है और उन्होंने कहा कि व्यक्ति में कमी है ही और यह कमी रहेगी भी वह समझते हुए भी नामसझ बना रहता है। जानते हुए भी अज्ञानता अपने अंदर स्थापित करता रहता है, प्रकाश की किरण बिखरने पर भी वापस अंधकार में स्वयं को ठेल देता है।
ऋषि यह कहना चाहता हैं कि मैं समझा रहा हूँ शिष्यों को मगर शिष्य पाँच मिनट के बाद फिर इस ज्ञान की किरण पर अपने अंधकार को ढक देंगे और मेरा कहा हुआ बेकार हो जाएगा। जो चिंतन मैंने प्रस्तुत किया है वह दो मिनट या पांच मिनट रहेगा और वापस इसके ऊपर रेत जम जाएगी और वह चिंतन समाप्त हो जाएगा। यह व्यक्ति का स्वभाव है और रहेगा। और जो इस स्वभाव को धक्का मार कर आगे निकल जाता है वह अपने आप में ऊंचाई की ओर पहला कदम रखता है।
तो ऋषि ने पहली बात यह कही कि व्यक्ति जानते हुए भी अनजान बना रहता है। क्योंकि अनजान बना रहना उसकी प्रवृत्ति है। अनजान इसलिए बना रहता है कि वह सुरक्षित है, वह कहता है मुझे इसका ज्ञान नहीं क्योंकि इससे कोई लाभ नहीं। परन्तु ऐसा कहकर, वह अपने को छलावा देता है, दुनिया को मूर्ख नहीं बना रहा है, अपने आप को मूर्ख बना रहा है।
दुनिया जैसी चीज इस संसार में है ही नहीं। दुनिया जैसा शब्द है ही नहीं, संसार जैसा शब्द है ही नहीं। देश जैसा भी कोई शब्द नहीं है। क्योंकि देश या संसार या विश्व ये सब व्यक्तियों के समूह से बनते हैं। ऐसा नहीं कह सकेते कि यह देश है। एक नक्शा है, वह देश तो हो नहीं सकता। देश के लिए आवश्यक है कि लोग हों। एक निश्चित भूभाग पर रहने वाले लोग देश के निवासी कहलाते हैं। आप भारतवर्ष के लोग हैं इसलिए भारतवर्ष है। भारत में कोई मनुष्य रहेगा ही नहीं तो भारतवर्ष होगा ही नहीं।
इसलिए देश जैसी चीज नहीं मनुष्य जैसी चीज है। चाहे वह मनुष्य लूला हो, लंगड़ा हो, ज्ञानी हो, अज्ञानी हो कैसा भी हो। और अगर किसी बात को वह नहीं समझेगा तो देश भी नहीं समझेगा। वह अंधकार में होगा तो देश भी अंधकार में होगा। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में देश है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में राष्ट्र है क्योंकि व्यक्ति मिलकर ही अपने आपमें राष्ट्र बनते हैं। इसलिए राष्ट्र पुरूष की कल्पना की गई है श्वेता श्वेतोपनिषद में, राष्ट्र, भू-भाग की कल्पना नहीं की गई। व्यक्ति राष्ट्र है, देश कोई चीज नहीं है, राष्ट्र कोई चीज नहीं है।
आप मिलकर के बैठे हैं तो समाज है। यह तेली समाज है, यह ब्राह्मण समाज है या कोई भी समाज है, तो वह समुदाय विशेष है जिसमें लोग हैं कोई। एक ही तरह के काम करने वाले हैं इसलिए वह जाति या समाज है और ये ही समाज मिल जाते हैं तो देश बन जाता है। तो मूलआधार तो मनुष्य हैं और अगर मनुष्य अपने ऊपर अंधकार की चादर ओढ़ लेगा तो ज्ञान आ ही नहीं सकता। मनुष्य जानबूझ कर इसलिए अनजान बना रहता है क्योंकि इसमें कुछ प्रयत्न नहीं करना पड़ता।
इसलिए देश आगे नहीं बढ़ पाता है या तो भौतिक क्षेत्र में बढ़ जाएगा और आध्यात्मिक क्षेत्र में पीछे रह जाएगा जैसे अमेरिका है। उसके पास अणुबम हैं परन्तु मनुष्यों को प्रसन्नता देने योग्य कोई चीज नहीं है। और आपने अमेरिकियों को देखा नहीं होगा-हरदम उदास, चिंताग्रस्त, तनावग्रस्त, दुखी रहते हैं। एक भी अमेरिकी व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं है। मुस्कुराहट केवल शब्दकोश में रह गई हैं वहां पर। व्यक्ति एक यंत्र बन गया है वहां पर, पति-पत्नी, बेटा-बेटी सभी! मैंने उनके समाज को देखा है, दो-दो महिने, एक बार नहीं, दस बार उनके यहां रहा हूं। वे सुबह पांच बजे उठते हैं, दौड़ते हैं। स्नान करते हैं, पत्नी भागती है, नौकरी की तरफ। उसे चिंता नहीं हैं कि पति उठा या नहीं उठा। और पति फिर उठता है, खुद चाय बनाता है और भाग जाता है काम पर। बेटी भी खुद चाय बनाती है और चली जाती है क्योंकि हरेक की अलग-अलग नौकरी है। और हफ्ते में एक बार सब मिल पाते हैं संडे के दिन। तब मालूम पड़ता है यह मेरे पिता हैं, इनका चेहरा ऐसा है, ये मेरा बेटा है इसका चेहरा ऐसा है। रात को कोई दस बजे आता है, कोई ग्यारह बजे आता है, कोई नौ बजे आता है, सब डिनर बाहर करते हैं। जीवन का वह सब आह्लाद, वह खुशी समाप्त हो जाती है क्योंकि भौतिक क्षेत्र में तो वे बहुत आगे बढ़ गए परन्तु उनका यह जो मूल ज्ञान है वह समाप्त हो गया है।
और यह समाप्त हो गया तो जीवन का कोई अर्थ है ही नहीं। और अगर आध्यात्मिक क्षेत्र में आगे बढ़ गए और भौतिक क्षेत्र में पीछे रह गए तो भी बेकार हो गए। इसलिए उस भौतिकता को आध्यात्मिकता द्वारा प्राप्त किया जाए। मैं आध्यात्मिकता को धर्म के अर्थ में नहीं ले रहा हूं। आध्यात्मिकता धर्म नहीं है। धर्म तो एक अलग चीज है। आप मजबूर हैं कि आपने हिंदू के घर जन्म ले लिया तो आप हिंदू हैं, यदि आप मुसलमान के घर जन्म लेते हैं तो आप मुसलमान हैं। आपके हाथ में नहीं था, मुसलमान बनना या ईसाई बनना या हिंदू बनना। यह तो एक संयोग है, चांस है कि हिंदू के घर जन्म ले लिया। आपकी च्वॉइस नहीं थी।
आदमी अंधकार की चादर ओढ़कर बहुत प्रसन्नता अनुभव करता है और उपनिषदकार कहता है कि इसीलिए मेरा सारा कहना व्यर्थ है। आदमी समझेगा ही नहीं और समझने की कोशिश ही नहीं करेगा तो मेरा चीखना चिल्लाना व्यर्थ हो जाएगा। वह अपने शिष्यों से ऐसा कहता है। ऋषि कहता है कि जीवन का उद्देश्य क्या है और वह कहता है कि भौतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वोच्चता प्राप्त करना जीवन का लक्ष्य है। ऊंचाई प्राप्त करना नहीं है, सर्वोच्चता प्राप्त करना है। और उसने भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों शब्द प्रयोग किए हैं।
भौतिकता का तुम्हारा अर्थ अगर बहुत विलासपान, दौलत, अय्यासी और फाइव स्टार होटल हैं तो गलत है। भौतिकता का अर्थ है कहीं किसी के सामने हाथ नहीं पसारना पडे़ और जहां जितनी जरूरत हो मुझे प्राप्त हो जाए उसे भौतिकता कहते हैं। जितनी जरूरत हो उतना प्राप्त हो जाए लड़की की शादी के लिए किसी के आगे हाथ नहीं पसारना पड़े। उससे ज्यादा तो अपने आप में तनाव ही तनाव है। क्योंकि आवश्यकता से ज्यादा होते ही तृष्णाएं आरंभ हो जाएंगी। एक पंखा नहीं दो पंखे होने चाहिए। कूलर लगना चाहिए, ए-सी लगना चाहिए।
फिर तृष्णाएं बढ जाएंगी और वापस चादर आ जाएगी अंधकार की! ऋषि ने कहा सर्वोच्चता प्राप्त करना जीवन का लक्ष्य है और सर्वोच्चता का प्रारंभ अंदर से होता है। इसलिए यजुर्वेद में कहा गया है-
तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु
जीवन की सर्वोच्चता मन है। जीवन की सर्वोच्चता मन में धारण करने की शक्ति है। जीवन की सर्वोच्चता मन में उस चिंतन को बिठाने की शक्ति है। जीवन की सर्वोच्चता उस अंधकार को परे धकेलने की क्रिया है और वह अंधकार धकेल कर ही दूर किया जाता है। निश्चय कर लिया जाता है कि मुझे ऐसा करना है। जब अंधकार आए उसे धकेल दिया, फिर मन में विचार आए कि यह गलत है, मुझे तो करना यह है। यह संघर्ष व्यक्ति को करना पडे़गा तो मन से लड़ना पडे़गा। पड़ोसियों से लड़ने से और आस-पास के लोगों से लड़ने से वह मामला हल नहीं होगा।
तो मन से हम कैसे लड़े? मन से लड़ने के लिए धारण शक्ति हों। ध्यान, धारणा और समाधि ये तीन शब्द हैं। मन में धारणा शक्ति हो कि मुझे सर्वोच्चता प्राप्त करनी ही है। बस एक ही लक्ष्य, एक ही बिंदु, एक ही जीवन का चिंतन, एक ही विचारधारा। और उसका आधार ईमानदारी होता है। ईमानदारी नहीं है तो सर्वोच्चता प्राप्त हो नहीं सकती। पापियों को सर्वोच्चता प्राप्त नहीं हो सकती, तस्करों को या वेश्याओं को सर्वोच्चता प्राप्त नहीं हो सकती। झूठ बोलने वाले व्यापारियों या छल करने वाले व्यक्तियों को सर्वोच्चता प्राप्त नहीं हो सकती। वे हर दम मन में डरते हैं, सशंकित रहते हैं। हरदम मन में तनावग्रस्त रहते हैं।
पैसा तो है पर नीद नहीं आती। वे सर्वोच्च नहीं हैं। सर्वोच्च की परिभाषा ऋषि ने दी है कि भौतिकता और आध्यात्मिक में परिपूर्णता प्राप्त करना और अपने आप पूर्ण आनंद महसूस करना। और जो करोड़पति हैं तो उससे ज्यादा करोड़पति अमेरिका के सफाईकर्ता हैं। बीस लाख की गाड़ी में सफाईकर्ता आती है और सफाई कर के घर को चली जाती है। अपनी आंखों से मैंने देखा हैं जब मैं न्यूयार्क में था तो उसके घर में जो सफाईकर्ता थी वह कैडिलैक गाड़ी में आती थी। मैं बालकनी में बैठा था। उसने झाडू की, बर्तन साफ किए और गाड़ी में बैठकर चली गई। मेरे आंखों देखी घटना है।
मैं वहां एक डाक्टर के घर में ठहरा था। मैंने कहा यह कौन है। वे बोले यह नौकरानी है। मैंने कहा-यहां की नौकरानी अगर कैडिलैक में चलती हैं तो हम तो कहीं खडे़ ही नहीं हैं। वे बोले यहां तो सब ऐसा ही होता है। नाली साफ करने वाला अपनी गाड़ी में आता है और साफ करके चला जाता है। अब कहां तुलना करोगो आप उस वैभव की। सफाईकर्ता की स्टेज यह है तो व्यापारी की स्टेज क्या होगी मगर उनके मन में फिर भी संतोष नहीं है। तो फिर वह जीवन का संतोष या आनंद नहीं है। जीवन का आनंद प्रेम है, जीवन का आनंद ईमानदारी है।
जब कोई कार्य करें ईमानदारी के साथ करें। रात को सोएं तो मन में पूर्ण संतोष हो कि आज का दिन पूर्ण ईमानदारी के साथ व्यतीत हुआ। चोरी न करने को ईमानदारी नहीं करते हैं। यह परिभाषा गलत है। ईमानदारी का अर्थ हैं कि आपने आज अगर चार रोटी खाई हैं तो चार रोटी का हक अदा कर दिया है, आठ रोटी खाई तो आठ का हक अदा कर दिया चाहे अपने घर में ही सही। मैं अपने घर में हूं और छः रोटी का हक अदा कर दूं सलाह से, कार्य से, प्रेम से। जो मेरी ड्यूटी है उस प्रकार से। अगर अस्सी साल का हूं तो किसी न किसी तरह क्रियाशील बन कर के।
नौकरी कर रहा हूं, व्यापार कर रहा हूं तो पहली बार ईमानदारी है। और दूसरी बात ऋषि ने कही है निष्ठा। निष्ठा का अर्थ है कि पूर्ण लगन के साथ यह मुझे कार्य करना है। यह तनाव नहीं रहे कि मैंने समय को बरबाद कर दिया। क्योंकि समय वापस नहीं प्राप्त हो सकता। तुम करोड़ रूपये खर्च कर के भी बीते हुए समय को वापस नहीं प्राप्त कर सकते। आपकी आने वाली पीढि़यों भी ऐसा नहीं कर सकती। अपने कल के दिन जो काम कर लिया वह कर लिया, उसको वापस नहीं ला सकते। समय तो अपने आप में मूल्यवान है ही। निष्ठा का तात्पर्य है कि हमने उस इच्छा को, उस समय को, जी लिया और ईमानदारी के साथ, निष्ठा के साथ काम करके जी लिया।
और तीसरी चीज ऋषि ने बताई है सर्वोच्चता को प्राप्त करने के लिए एक आह्लाद की रोशनी अंदर पैदा करनी पड़ेगी और पहली दो चीजें नहीं होगी तो अंदर आह्लाद भी नहीं होगा। क्योंकि अगर चादर ओढ़ी है अंधकार की, आलस्य की, तो कुछ नहीं हो सकता। और ये दोनों चीजें हों – ईमानदारी और निष्ठा, तो उसके लिए बड़ा संघर्ष करना पड़ेगा। और निष्ठा के साथ काम करना है तो मन में आह्लाद का होना आवश्यक है। मन तो आलस्य की तरफ बढ़ेगा कि यह तो कहने सुनने की बात है। ऋषि तो यही कह रहा है कि मैं कहूंगा और आप कहेंगे कि यह सब किताबों की बातें हैं। वह पहले ही कह रहा है कि शिष्य कहेंगे कि यूं ही कह रहा है और आप इस चीज को मन में धारण करेंगे नहीं और नहीं करेंगे तो साधारण व्यक्ति बन कर रह जाएंगे।
आप इस समाज में, देश में, गौरवान्वित नहीं हो पाएंगे और गौरवान्वित होने के लिए और कोई रास्ता है ही नहीं। लखपति बनने से गौरवान्वित नहीं हो सकते आप। क्योंकि आपसे पहले करोड़ों लखपति हैं। चांदनी चौक में कोई इतने से खोके में भी बैठा है वह करोड़पति है। क्योंकि खोके की आज जो पगड़ी है वह कम से कम दस लाख है। दस लाख में तो वह खोका मिलता है, सामान तो बाद में आता है। अब आप सोच लीजिए कि आप कहां पर है। तो संपन्नता से महानता नहीं बनती। तो तीसरी बात यह बनी कि निश्चितता से उस अंधकार को धकेलना ही है। निष्ठा से यह सोच लेना है कि मुझे अपने जीवन में सर्वोच्चता प्राप्त करनी ही है इन तथ्यों के माध्यम से। तो तीसरी बात कि अंधकार भाग सकते हैं आह्लाद के साथ, प्रसन्नता के साथ। कोई यह सोचे कि आज बहुत काम किया कल आराम करेंगे, चार दिन यात्रा करके आया अब तान करके सोऊंगा, वह आलस्य के अंधकार की ओर बढ़ेगा।
हम बार-बार घुसते हैं उस अंधकार में। ऋषि कह रहा है मैं बार-बार तुम्हें धकेल रहा हूं बाहर और तुम वापस उसमें घुसते हो। तुम्हारे मेरे बीच संघर्ष बस इतना ही है। मैं तुम्हे निकालता हूं और तुम बार-बार वापस अंधकार की चादर ओढ़ लेते हो। इसलिए तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु तुम्हारा मन इस चादर को हटाएगा तो वह चादर हटेगी। और ऐसा करते रहोगे तो अभ्यास हो जाएगा फिर आपको काम करने में स्फूर्ति मिलेगी। फिर आपको थकावट नहीं होगी। चौथी बात उसने बताई कि आह्लाद से प्रसन्नता, मधुरता पैदा होगी। जो स्वयं को प्रसन्न रखता हो, जो आप-पास के लोगों को प्रसन्न रखता है, यह अपने आप में सबसे बड़ा दान है। ज्ञान दान, या लक्ष्मी दान या लंगर लगाना यह तो बहुत सेकेंडरी चीजें हैं।
पहला दान तो यह है कि हमारे अंदर आह्लाद का ऐसा स्तोत्र हो कि हम आस-पास के वातावरण को आनंदमय बना दें। हमारे संपर्क में जो आए और वह अंधकार की चादर ओढ़े हुए हो तो हम उसको उस जगह खड़ा कर दें जहां आह्लाद हो, आनंद हो, जहां कार्य करने की लगन हो, क्षमता हो, धुन हो। आप सोचे कि मुझे यह काम करना है, रात को सोते समय हिसाब देना है, या तो मेरा मन मुझे धिक्कारेगा या मेरा मन कहेगा कि यह कार्य पूरा कर लिया आज का दिन सार्थक हो गया। यह परीक्षा तो आपको स्वयं करनी होगी।
और पांचवी चीज उसने कही है गुरु की आज्ञा। ऋषि यह नहीं कह रहा कि शिष्य मेरा काम करे। वह कह रहा है कि फिर कौन समझाएगा यह सब आपको। कौन बताएगा कि अंधकार की चादर तुम्हारे ऊपर आ गई है, कौन बताएगा कि आह्लाद आया या नहीं आया। तुम्हारी कौन सी परिभाषा है आह्लाद की। क्या थोड़ा सा हंसने से, या मुस्कराने से आह्लाद फूट गया अंदर से। उस आह्लाद की परिभाषा क्या हुई। दिन भर जो आपने कार्य किया उसका मूल्यांकन कौन करेगा।
तुम उस अंधकार की चादर को धकेल कर आगे बढ़ गए उसका मूल्यांकन करेगा कौन? इसके लिए कोई न कोई व्यक्ति होना ही पड़ेगा। उस व्यक्ति को गुरु कहते हैं। यदि वह गुरु है तो वह समझाएगा कि तुम इस रास्ते पर हो, वह बताएगा कि जिंदा रहना है तो आह्लाद के साथ जिंदा रहिए नहीं तो फिर तुम्हारे ऊपर कोई दुनिया टिकी नहीं है। तुम्हारे बिना भी दुनिया चल सकती है। आप मर जाएंगे तो कोई दुनियां रूकेगी नहीं! दुनिया तो चलेगी ही। मगर आप आह्लादित हैं और पांचों गुणों के साथ जीवित हैं तो इस दुनिया में आप सर्वोच्चता के साथ हैं और आप प्रत्येक जीवनी को पढ़ लीजिए उस व्यक्ति में एक आग है, तड़प है, बेचैनी है, आह्लाद है। आगे बढ़ने की धुन है, संघर्ष करने की क्षमता है। बरटेंड रसेल काम करता था बीस घंटे, आइंस्टाइन की पत्नी जब देखती है आठ बज गए हैं और वह खाना खाने नहीं पहुंचा तो वह खाना परोस कर लैबोरेटरी में उसकी टेबल पर रख देती थी और वह काम में जुटा रहता था। सुबह आती तो भी वह काम में जुटा रहता मिलता, वह कहती क्या तुमने खाना खाया ही नहीं। यह काम करने की क्षमता है और इसलिए वह आइंस्टाइन बना। यों तो सैकड़ों पैदा हुए, सैकड़ों मर गए। आइस्टाइन क्यों जिंदा रहा और दूसरे लोग क्यों मर गए?
आइंस्टाइन को दो बार नोबेल प्राइज क्यों मिला, लोगों को तो एक बार भी नहीं मिलता। इसलिए क्यों उनके अंदर ये पाचों बिंदु थे! और आइस्टाइन से सैकड़ों हजारों साल पहले ऋषि ने बता दिया था कि यह वह रास्ता है जिस पर चलकर हम वहां पहुंच सकते हैं। यही हमारी मूल शक्ति है। और मैं वापस ऋषि की पहली बात को दोहराता हूं कि एक मिनट बाद आप वापस उस अंधकार में डूबा जाएंगे, मेरा कहना बेकार हो जाएगा। आप में भी उतनी ही क्षमता है जितनी आइंस्टाइन में थी। जितनी रसेल में थी, शेक्सपीयर में थी, मिल्टन में थी। आपको उस प्रतिभा की पहचान नहीं हैं। इस प्रतिभा के लिए पांच सीढि़यां हैं जिनको मैंने आपके सामने प्रस्तुत किया है। प्रसन्नता के साथ काम करना और पूर्ण ईमानदारी के साथ काम करना, लगन और एकनिष्ठता के साथ काम करना। और गुरु के चरणों में समर्पित होना तो पूर्णता के साथ समर्पित होना जिससे कि रास्ता बराबर दिखाई देता रहे ऐसा नहीं हो कि हम अंधकार में चलते रहें और सोचते रहें कि हम रोशनी में हैं। यह बाहर सूर्य की रोशनी नहीं है। रोशनी का अर्थ है। तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु मन के संकल्प से रोशनी पैदा होनी चाहिए और इसका मूल आधार प्रसन्नता है। एक वातावरण को बनाना है। जहां भी रहें, परिवार में रहें, घर में रहें। समाज में रहें, कहीं भी जाएं, चाहे राक्षसों के बीच जाएं हमें आह्लाद बिखेरना है। और यह तब होगा जब मन बिल्कुल शुद्ध और पवित्र और दिव्य होगा, कांच की तरह। अगर उस पर धूल होगी, धूर्तता की, व्याभिचार की, बदमाशी की तो यह व्यर्थ होगा। और वह नुकसान आपका होगा क्योंकि आप पहली सीढ़ी पर भी खड़े नहीं हो पाएंगे, पांचवीं सीढ़ी तो आगे की बात है। और हम यह कर सकते हैं यदि हमें कुछ बनना है तो और ऐसा आप बन सकते हैं क्योंकि मैं आपकी प्रतिभा को जानता हूं। मैंने सही व्यक्तियों का चयन किया है। मैं सही व्यक्ति अपने पास रखता हूं। मैं घास, पतवार को काट कर के अलग खेत से फेंक देता हूं। गेहूं की बाली को जिंदा रखता हूं, उसे खाद पानी देता रहता हूं।
किसान घास फूस को इसलिए काट देता है क्योंकि पृथ्वी की जो असली चीज हैं, उसे घास फूस खा जाएगी और गेंहू की बाली ऊपर उठेगी ही नहीं। और गेहूं की बाली को उठाने के लिए खरपतवार को काटना ही पड़ेगा। मेरे जो शिष्य आते हैं उनकी निराई करता रहता हूं। मैं देखता हूं यह खरपतवार हैं इनको हटा दो नहीं तो यह फालतू शोषण मेरा करेगें। और फिर जिन गेहूं की बाली को मुझे उठाना है उन्हें कुछ नहीं दे पाऊंगा, क्योंकि ये सब शोषण कर लेंगे। आप मुझे प्यार करते हैं तो उतना ही प्यार मैं आपको करता हूं क्योंकि मैं तुम्हें जीवन में सर्वोच्चता तक पहुंचाना चाहता हूं।
इस श्वेता श्वेतोपनिषद के रचनाकार ने हमें सिखा दिया कि हम जमीन पर खड़े रहकर आसमान में छेद कैसे कर सकते हैं। जमीन पर खड़े होकर देवताओं के समान पूरे विश्व में कैसे वंदनीय हो सकते हैं, जमीन पर पड़े रहकर कैसे अपने माता-पिता का नाम रोशन कर सकते हैं। उस ऋषि की वाणी को मैं आपके हृदय में उतार रहा हूं जिससे आपके हृदय का अंधकार दूर हो और प्रकाश बिखेरा तो प्रकाश बिखरेगा ही, ऐसा ही मैं आपको हृदय से आशीर्वाद देता हूं।
रायपुर में गुरु पूर्णिमा महोत्सव 20-21-22 जुलाई को शिष्याभिषेक उत्सव के रूप में सम्पन्न होगा इसके माध्यम से साधक शीघ्रातिशीघ्र जीवन की उच्चताओं को और श्रेष्ठताओं को सद्गुरुदेव के आर्शीवाद से प्राप्त कर सके। साथ ही गृहस्थ और सामाजिक जीवन में सुचिता और चेतना आ सके और जीवन की समस्त मनोकामनाओं को निश्चिंत रूप से प्राप्त कर सके इसलिए ऐसे श्रेष्ठ अवसर पर आपको सपरिवार आना ही है। जिससे साधक पूर्ण तांत्रोक्त, मांत्रोक्त, विधि-विधान सहित रूद्राभिषेक सम्पन्न कर अपने अस्त-व्यस्त जीवन को शिवमय और सौभाग्य पार्वती गौरीमय बनाने की क्रिया की ओर अग्रसर हो सकेगे।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,