पूणों सदां वै शिष्यत्व स्नेहं, व्याघ्रो वदां वे भवतं स चित्यं
नरवै वतां पूर्ण सदैव चिंत्यं, शिष्यत्व देह दिव्यो सदैवः।।
अधयात्म का अर्थ ही है – जीवन में जो कुछ भी आत्म पक्ष से सम्बन्धित होः और समस्त आत्मपक्षों में सर्वोपरि होते है – ‘श्री सद्गुरुदेव !
—- जिनका ‘साक्षात्’ कर लेता है कोई भी शिष्य, अपने मन के चक्षुओं को उन्मीलित कर, अपने आत्म को गुरुदेव के आत्म से एकाकार करता हुआ—-
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानानंजन शलाकया
चक्षु रुन्मीलित् येन तस्मै श्री गुरवे नमः
अज्ञान रूपी अंधकार से दृष्टिहीन हो गये व्यक्ति की आंख को जिन्होंने ज्ञान रूपी अंजन से खोल दिया, उन श्री गुरुदेव को नमस्कार है।
प्रातः स्तुति में अथवा नित्य गुरु पूजन के काल में किसी भी साधक अथवा शिष्य के द्वारा उच्चारित किया जाने वाला यह श्लोक कदाचित उतना ही प्राचीन है, जितना प्राचीन वह काल जब व्यक्ति ने जगत के कोलाहलों के मध्य और बाह्य कोलाहलों से भी कहीं अधिक अपने ही अर्न्तजगत में चल रहे कोलाहलों की कटु ध्वनि से त्रस्त होकर वस्तुस्थिति, वास्तविक शांति की जिज्ञासा में लीन होकर मंथन के किसी चरण में गुरु पद की महत्ता का साक्षात् किया होगा, उसे अनुभूत किया होगा और अन्ततः स्वीकार किया होगा।
उसने नामित होकर इस तथ्य को आत्मसात किया होगा, कि इस विद्रूपमय जगत में त्रणदाता केवल गुरु ही हो सकते हैं। मनुष्य केवल बाह्य कोलाहलों से ही नहीं त्रस्त होता। बाह्य कोलाहल से भी कहीं अधिक जो कोलाहल उसके अन्तर्मन में विभिन्न द्वंद्वों से ,विभिन्न तृष्णाओं और विभिन्न अटकावों से चल रहा होता है उनमें यद्यपि प्रत्यक्षः कोई ध्वनि नहीं होती किन्तु ध्वनि की अनुपस्थिति में भी कोहराम मच जाता है उसके निराकरण का कोई उपाय होता ही नहीं।
जगत के कोलाहलों से त्रण प्राप्त करना तो फि़र भी एक बार सम्भव हैं व्यक्ति सप्रयास एकांत, शांत स्थल की खोज कर विश्रान्ति का अनुभव कर सकता है, किन्तु जिसके अन्तर्मन में ही कोलाहल चल रहा हो वह तो एकांत शांत स्थल पर बैठकर भी चित्त को शांत नहीं कर सकता है। केवल यही नहीं अपितु शांति प्राप्त करने के विपरीत कोई शांत स्थल उसके द्वंद्व को ओर भी अधिक घनीभूत कर देता है और व्यक्ति व्यर्थ में इधर ओर उधर भटकता हुआ सहानुभूति के, अपनत्व के, ममत्व के दो बोल सुनने को तरसता हुआ जीवन के घने जंगल में अपने अस्तित्व को ही निरर्थक सा अनुभव करने लग जाता है।
अज्ञान तिमिरान्धस्य —– इस श्लोक के रचयिता को यह बोध था, कि इस जगत में सर्वत्र अज्ञान से अंधकार की कालिमा छा गई प्रतीत होती है और जब मन के नेत्रों के समक्ष ऐसा घना अंधकार आकर हमारी अस्मिता पर ही दंश दे जाता हो, तभी उस पीड़ा का बोध हो सकता, है जो इस श्लोक के रचयिता ने अनुभव की होगी। प्रत्येक व्यक्ति में दो चक्षु होते हैं – चर्म चक्षु ओर मनः चक्षु। इसे ही मनेाविज्ञान बाह्य मन और अन्तर्मन की संज्ञा देता है और ये दोनों ही नेत्र प्रत्येक व्यक्ति में सतत् क्रियाशील रहते है भले ही व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से शून्य ही क्यों न हो। दैनिक जीवन में प्रत्येक व्यक्ति अनुभव करता है, कि जो कुछ गतिविधियां उसके नेत्रों के समक्ष चल रही है उनमें कहीं न कहीं से अपूर्णता है अवश्य।
प्रत्येक सम्बन्ध जो हमारे समक्ष भले ही प्रत्यक्षतः मधुर रूप में अभिव्यक्त हो रहा है उसमें कही न कहीं से कोई खोटा है अवश्य। सम्बन्ध कोई भी हो सकता है। उनकी संज्ञा को कोई अंतर नहीं पड़ता, यद्यपि, सामाजिक आवरण में बद्ध होने के कारण व्यक्ति स्वयं भी मधुरता का, मुस्कान का एक छद्म आवरण ओढ़ अवश्य लेता है लेकिन मन के नेत्र उसे सतत् इसके प्रति सचेत करते रहते है, अवगत कराते रहते है और एक प्रकार से कहें तो व्यक्ति के ढोंग पर व्यंग करके हंस भी रहे होते है, उससे कह रहे होते है, कि इस छलावे से खुद उसका ही जीवन एक विद्रूप बन कर रह जाएगा, किन्तु हम उनका कटु स्वर सुनने में स्वयं को असमर्थ पा उनका स्वर सुनना ही छोड़ देते हैं।
मन के नेत्रों के पास यद्यपि स्वर नहीं होता, किन्तु वे मूक रह कर भी कुछ का कुछ दिखाते से हुए क्या सब कुछ कह ही नहीं रहे होते है ? कोई मन के नेत्रों से देखने की कला सीख लेता है और अधिकांशतः नहीं, किन्तु इससे भी वस्तुस्थिति पर कोई अंतर नहीं पड़ता है, क्योंकि जिसने मन के नेत्रों से देखने की कला सीख ली वह अनेकानेक विद्रूपों को पहचानता हुआ स्वयं में कटा सा जीवन जीने की दुःसाधय विवश्ता में घिर जाता है और जिसने नहीं सीखी वह कहीं न कहीं से अव्यक्त सी अपूर्णता का अनुभव करता हुआ स्वयं में व्यथित सा बना रह जाता है। मन के नेत्रों के समक्ष छा गए अंधकार से आज कोन नहीं व्यथित है ? कौन नहीं त्रसित है ?
– और मन का यह अंधकार, मन के नेत्रों के सामने छा गया घटाटोपा अंधकार, जन्मांधता अथवा नेत्रहीनता से उपजे कष्ट से कहीं अधिक पीड़ादायक होती है। – यदि व्यक्ति में आत्मबोध की कोई स्मृति शेष रह गई हो तो ! – चर्म चक्षुओ के समक्ष जो कुछ भी माधुर्य, सम्बन्ध प्रेम, विलास, सुख आदि बन कर परछाई सा हिल-डुल रहा होता है वह अधिक से अधिक चर्म चक्षुओं की ही संतुष्टि का विषय हो सकता है, मनः चक्षुओं की तृप्ति का नहीं, क्योंकि मनः चक्षु बड़ी चतुराई से प्रत्येक छद्म, प्रत्येक आवरण, प्रत्येक विद्रूप को पहचान रहे होते हैं वे सूचित भी करते है किन्तु मनुष्य अपने ही आग्रहों या दुराग्रहों में बद्ध होने के कारण कभी तो प्रमादवश तो कभी सप्रयास उनकी उपेक्षा कर आगे बढ़ जाता है, क्योंकि मन चक्षुओं द्वारा दिखाए गए चित्र से उसके अहं पर ठेस जो लगती है और ठेस नहीं लगती हो स्वप्नों का वह राजप्रसाद धूल-धूसरित होता हुआ दिखने लग जाता है, जिस बड़ी मेहनत से, कल्पना के एक-एक तिनके को जोड़कर बनाया गया होता है।
किन्तु जिसने अपने मनः चक्षुओं को ही नहीं स्पर्श किया उसके जीवन में आध्यात्मिकता की किसी सुरभि का प्रवेश सम्भव ही नहीं, क्योंकि मनः चक्षु ही आत्म चक्षुओं के उन्मीलन का प्रथम सोपान होते हैं और अध्यात्मक (अर्थात् अपने ही आत्म का अधययन) तो केवल आत्मचक्षुओं द्वारा देखे गए ‘परिदृश्यों’ के माध्यम से ही सम्भव हो सकता है।
आत्म चक्षुओं के उन्मीलन के पश्चात् ही तो अधयात्म का प्रवेश द्वार, आनन्द का सिंहद्वार शिष्य सा साधक या किसी भी आध्यात्मिक अभिरुचि वाले पुरुष हेतु खुल पाता है। आत्म चक्षुओं के द्वारा यद्यपि किसी परिदृश्य का बोध उस प्रकार नहीं होता है जिस प्रकार से चलचित्र में विभिन्न परिदृश्य नेत्रों के समक्ष होते है, किन्तु जब मनः चक्षु सत्य की किसी भावभूति का साक्षात इस प्रकार कर लेते है ज्यों हम अपने चर्म चक्षुओं से किसी उद्यान के परिदृश्यों का साक्षात करते है तब जो सुगंधा अन्तर्मन में व्याप्त होती है वहीं आत्म चक्षुओं के द्वारा उस आनन्द की भावभूमि का साक्षात, उस ब्रह्मानन्द का बोध, उसका ‘दर्शन’ इस प्रकार से करा देती है सम्पूर्ण जीवन ही एक मनोरम चित्र की भांति दिखने लग जाता है और जो सम्पूर्ण जीवन को एक चलचित्र की भांति दिखने का रहस्य पा जाता है, उस का को आत्मसात कर लेता है, वस्तुतः वही जो जीवनमुक्त हो सकने में समर्थ होता है, क्योंकि उसने उस साक्षी भाव को प्राप्त कर लिया है जिसके अभाव में यह जीवन त्रासदायक बन गया होता है।
सद्गुरुदेव इन्हीं मनः चक्षुओं पर अपने ज्ञान का अंजन लगाने की क्रिया करते है। कदाचित शास्त्रकारों ने इसी को चित्र की संज्ञा दी है। संज्ञा कोई भी हो, गुरु की दृष्टि में तो मात्र अन्तः पक्ष ही प्रधान होता है। देह उनकी दृष्टि में एक गौण अथवा विस्मृत तथ्य ही होती है ओर जो शिष्य स्वयं को चित रूप में परिवर्तित कर गुरु के समक्ष स्वयं को प्रस्तुत करता है, निवेदित कर देता है केवल वही अपने सम्पूर्ण जीवन को धान्य कर पाता है शेष जो देह रूप में अपने मिथ्याभिमान अहंबोध अथवा यूं कहें, कि चर्म चक्षुओं के साथ गुरु के सम्मुख उपस्थित होने के प्रारब्धवश सौभाग्य प्राप्त भी कर लेते हैं, वे उसी प्रकार वापस लौट जाते है जिस रूप में प्रस्तुत हुए थे — और ज्ञानरूपी अंजन लगाने की गुरु के पास विविध शैलियां होती है।
सद्गुरुदेव सदेह, विदेह स्वरूप में अपनी अलौकिक लीलाओं से नित्य प्रति उसे ज्ञान जागृति द्वारा ज्ञान चक्षु खोलने का प्रयास करते ही रहते हैं। शिष्य उनकी अनुभूति हास्य रूप में, रौद्र रूप में करुणा रूप में, वचन रूप में अनुभव करता ही है—- और इसके बावजूद भी वह अपने मन के कपाट बंद ही कर दे तो भी सद्गुरुदेव उसे शक्तिपात क्रिया द्वारा खोल ही देते हैं। यही क्रिया जब एक विधि रूप में सम्पन्न होती है, तो उसकी संज्ञा दीक्षा है किन्तु यथार्थतः दीक्षा कुछ क्षणों की ही क्रिया नहीं वरन् सद्गुरु की ओर से शिज्य के सम्पूर्ण जीवन में सतत् रूप से सम्पन्न की जाने वाली क्रिया होती है। जो गुरू को इस भाव से स्वीकार करते हैं, उन्हीं के जीवन में गुरु का अर्थ केवल यदा-कदा कुछ क्षणों का दैहिक मिलन नहीं वरन् उनसे प्रतिपल का साहचर्य हो जाता है, क्योंकि चित्त तो होता है एक आकाश और जो आकाश शिष्य के मन में होता है वही आकाश गुरु के मन में भी होता है। क्या सुविस्तृत गगन में कोई भेद रेखा खींची जा सकती है? किन्तु आकाश में कोई भी चारदीवारी या कांटे की बाड़ तो लग नहीं सकती —- हंस आकाश के इस छोर से उस छोर तक विस्तार को सहज ही अपने डैनों से नाप लेता है। गुरु के चित्ताकाश आनन्द का हंस भी सहज ही शिष्य के आकाश में उड़कर अपने बलशाली डैनों की फ़ड़फ़ड़ाहट से उसके चित्त पर छा रही प्रत्येक धूल को, रुके हुए प्रवाह को परिवर्तित कर देता है किन्तु जन शिष्य चित्त स्वरूप बना हो तभी तो !
मन के नेत्र खुलते हैं तो केवल जीवन को देखने की एक दृष्टि ही नहीं मिल पाती वरन् एक पूरा का पूरा आकाश ही खुलकर इस देह के अंदर विस्तारित हो जाता है। जहां कुछ विस्तारित सा होगा वहां प्रकाश के आने की भी स्वयमेव सम्पन्न हेा जाएगी क्योंकि प्रत्येक अंधकार किसी न किसी कोने का आश्रय, किसी चोर की तरह ढूंढता जो रहता है। चोर तो इस मन में कई है, अंधकार के कई-कई रूप है।
मोह-जीवन का सबसे बड़ा अंधकार है मोह! और जब यह मोह गुरु प्रदत्त ज्ञान की शलाका में नष्ट हो जाता है तभी तो उस निर्मल प्रकाश का अनुभव हो पाता है जिस निर्मल प्रकाश में सद्गुरु के चिन्मय स्वरूप का साक्षात् सम्भव हेा जाता है, जो नेत्रों से अधिा क आत्म का विषय होता है, जो परोन्तमुखी ने होकर आत्मोन्मुखी ही होता है ओर जिसे लोकोक्तियों में गूंगे का गुड़ की संज्ञा दी जाती रही है।
ज्ञान की शलाका के द्वारा केवल मनः चक्षुओं का उन्मीलन नहीं वरन् इसके पश्चात् ही किसी भी जीवन में ज्ञान चक्षुओं का उन्मीलन सम्भव हो पाता है और जब तक ज्ञान चक्षुओं का उन्मीलन नहीं हो पाता तब तक किसी भी शिष्य अथवा साधक द्वारा की जाने वाली भक्ति की केाई भी अभिव्यंजना स्वयं में एक ढोंग और पाखण्ड से अधिक कुछ भी नहीं होती।
केवल गुरुदेव के ही नहीं वरन् किसी भी देवी अथवा देवता के स्वरूप का साक्षात् प्रथमतः तो ज्ञान चक्षुओं के माध्यम से ही सम्भव हो पाता है। जब तक स्वरूप का साक्षात् नहीं किया तब तक भक्ति की कोई भी क्रिया करना तो दूर चर्चा तक करना व्यर्थ होगा।
ज्ञान की पराकाष्ठा भक्ति होती है, भक्ति की पराकाष्ठा आत्मनिवेदन में होती है ओर आत्मनिवेदन तब सम्पूर्णता को प्राप्त हेाता है जब अश्रुओं का अविरल प्रवाह होता है। केवल वही प्रवह मन के प्रत्येक कलुष को धो देने में समर्थ होता है अन्यथा जीवन के विषादों, विषताओं में घिरकर तो आज प्रायः प्रत्येक व्यक्ति ही किसी न किसी रुदन की स्थिति में स्वयं को घिरा हुआ अनुभव कर रहा है और कोई आवश्यक नहीं कि प्रत्येक रुदन प्रकटतः ही हो, प्रकट रुदन से कहीं अधिक मर्मांतक रुदन तो हृदय के माध्यम से होता है।
मन का प्रत्येक कलुष, कुंठा, पीड़ा, विषाद धुल जाने के बाद ही मन में जो शून्य उपजता है उसमें अनहद का स्वर स्वतः ही गुंजरित हो उठता है, जिसक अभिव्यंजना आनंद से, तृप्ति पूर्ण उच्छवास से, स्मित युक्त नेत्रों से होती है और सही अर्थों मं ऐसा ही जीवन इस धारा पर धान्य कहा जा सकता है।
यद्यपि शिष्य की सम्पूर्ण यात्रा एकाकी ही होती है किन्तु जिस प्रकार आनन्द की अभिव्यक्ति को स्वयं तक सीमित रख पाना सम्भव नहीं होता है, उसी प्रकार आत्मानुभूतियों को भी स्वपक्ष तक परिसीमित कर पाना सम्भव नहीं होता, क्योंकि गुरु द्वारा ज्ञान का अंजन लगाने के बाद चित्त में विस्तार के साथ-साथ उस विस्तार की अनुषांगिक स्थिति में निर्मलता का समावेश जो हो जाता है ओर निर्मलता की इस स्थिति में एक शिष्य शनैः शनैः शिशु बनने की स्थिति की ओर अग्रसर हो जाता है।
शिशु तो वही हो सकता है जिसकी दृष्टि में विभाजन करती प्रत्येक सीमा रेखा धूमिल पड़ गई होती है और ऐसा शिशुवत् शिष्य ही अपने छोटे से छोटे आनन्द को अभिव्यक्त किए बिना रह नहीं पाता है — क्योंकि यह शिशु का ही सहज स्वभाव होता है, कि वह आनन्द को अपने अभिव्यक्तिकरण के माध्यम से कई गुना कर देने का रहस्य जानता है।
योगियों एवं शास्त्रकारों ने प्रत्येक जीवन में अन्तर्निहित ज्योति का स्वरूप एक शांत, श्वेत, निष्कमप आभा के रूप में व्यक्त किया है ओर यही तो उस परब्रह्म का मूल स्वरूप है, जिनकी लौकिक रूप में प्रस्तुति अथवा अभिव्यक्ति श्री सद्गुरु के दैहिक आवरण के साथ होती है। प्रत्येक जीव उस आभा का एक लघु स्वरूप ही होता है। यही आत्म-दर्शन का अर्थ है। आत्म पक्ष को पहचान कर ही विराट को पहचाना जा सकता है। गति सदैव लघु से विराट ही ओर होती है, विराट से लघु की ओर नहीं। विराट से लघु की ओर तो अनुकम्पा होती हे, जिसकी उपस्थिति में गति सम्भव हो पाती है। आत्मपक्ष को पहचान कर ही अनुभूत किया जा सकता है, कि मुझ में विद्यमान यह लघु प्रकाश, जब स्वयं में इतने आह्लाद, आनन्द और शांति का समावेश किए है तो वह अपने परम स्वरूप में कितना अधिक आह्लाद दायक होगा।
शिशुवत् हो गया शिष्य जब किसी बालक की तरह थिरक-थिरक कर इस ज्योति मे स्वरूप को पहचानने का बालहठ ठान लेता है, उसी क्रम में यह ज्योति अपने विविध रंगों को इन्द्र धनुष के समान शिष्य के चित्ताकाश पर विस्तारित करने की क्रिया में स्वयं संलग्न हो जाती है। ज्योति का स्वरूप नहीं बदलता है, ज्योति तो अपने मूल स्वरूप में परम निश्चल, शुभ्र ही रहती है — अतंर केवल शिष्य के अन्तर्मन से आता है और तभी श्री सद्गुरुदेव का साक्षात् उसे कभी मातृ स्वरूप में, कभी पितृ स्वरूप में, कभी मित्र स्वरूप में, कभी बंध स्वरूप में होना प्रारम्भ हो जाता है या यूं कहें कि इस अवस्था में आरूढ़ हो जाने के बाद ही ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेच’ कहने की कोई सार्थकता होती है।
गुरु के ऐसे विविध स्वरूप किसी तर्क के आधार पर नहीं भक्ति के आधार पर भी नहीं, वरन् उसके ही द्वारा ज्ञान के अंजन को लगा देने के बाद उन्मीलित हो गए आत्म चक्षुओं के समक्ष प्रकट होने वाला विषय होता है। यही श्री सद्गुरुदेव के विराट रूप में दर्शन करने का अर्थ होता है। शिष्य जब उनको प्रतिपल परिवर्तित होते हुए स्वरूप के साथ देखने की कला का रहय प्राप्त कर लेता है तभी सही अर्थों में साधक से ऊपर उठकर शिष्य उपदेश व सलाह हर कोई देने को तैयार रहता है, पर लेता कोई नहीं।
बनता है और ऐसा शिष्य बनने के बाद ही साधना की यथार्थ भावभूमि पर खड़ा हो पुनः साधक बनते हुए जीवन के वास्तविक आनन्द को प्राप्त करता हुआ जीवन को सार्थकता दे जाता है। – यहीं से आनंद के महापथ की यात्रा प्रारम्भ होती है, यही अधयात्म का अर्थ होता है। (अनुभूति आंखों से नहीं प्राणों से होती है और तुम्हारे प्राणों का संदेह, स्वार्थ व अविश्वास के हजार-हजार काले मोटे पर्दे टंगे है। जरूरत है इन्हे हटाने की ,गुरु रूपी सूर्य की तेजस्वी किरणों को अन्दर पहुंचाने की —–
गुरू वापुरा काली बसे, शिष्य समुंदर तीर।
बिसरे नहीं बिसारव, जो गुण माहीं शरीर।।
—- जिसका तन-मन, गुरुदेव को मन के नेत्रों से देखने के ‘गुण’ में रच-पच गया, फि़र उसके लिए कहीं भी, कभी अपने गुरुदेव से विलगाव ही कहां ? यही तो सम्पूर्ण जीवन को आलोक से भर देने की शैली होती है।
नारायणों त्वं निखिलेश्रो त्वं,
माता पिता गुरु आत्म त्वमेवं।
ब्रह्मां त्वं विष्णु रुद्र स्त्वमेवं,
सिद्धाश्रमो त्वं गुरुवं प्रणम्यं।।
सद्गुरुदेव के स्वरूप एवं लीला को जानना सहज नही कहा जा सकता। गुरु तत्व, गुरु-शिष्य सम्बन्ध, गुरु कृपा, गुरु योग इत्यादि क्रियाओं की विशद् विवेचना से भारतीय संस्कृति की आर्षपरम्परा में, उपनिषदों में गुरु की परम महत्ता स्वीकार की गई है। माया से आबद्ध इस संसार के दुःखों से त्रस्त जीवों के उद्धार हेतु गुरु ही एकमात्र गति है। शास्त्रों में गुरु केा शंकर स्वरूप माना गया है, क्योंकि वे ही वास्तव में ‘शं’ अर्थात् कल्याण, आत्मोद्धार एवं ‘कर’ अर्थात् करने वाले है। वस्तुतः श्री भगवान की अनुग्रह शक्ति ही शुभ-योग, शुभ आग्रह और शुभ सन्धि द्वारा केन्द्रीभूत होकर गुरु शक्ति के रूप में मूर्त हो अभिव्यक्त होती है, इसीलिए रामचरित मानस में गुरु वन्दन करते हुए तुलसीदास ने लिखा है – अर्थात् उस गुरु को नित्य प्रणाम करता हूं, जो शंकर स्वरूप हैं और नित्य ज्ञान का बोध कराते हैं।
वस्तुतः गुरु एक शाश्वत तत्व है, और यही तत्व सत्-चित्-आनन्दमय परम तत्व है और प्रत्येक जीव इस शिव स्वरूप परम तत्व से अलग नहीं रह सकता, किन्तु जन्म-जन्मांतर से अज्ञानात्मक मल से सम्बद्ध रहने के कारण उसका शिव भाव अर्थात् उसकी ज्ञान शक्ति एवं क्रिया शक्ति, जो कि असीम है, अत्यन्त विशाल है वह शक्ति धीरे-धीरे छिन्न-भिन्न होकर अणु भाव को प्राप्त कर लेती है और मनुष्य का जीवन पशुवत् हो जाता है। यह जीवन अपने सत्-चित्-आनन्द स्वरूप को भूलकर संसार के सुख-दुःखमय भोगों में बंधा हुआ क्लेश-कर्म इत्यादि के चक्र में फ़ंसा रहता है।
हर शिष्य में अणु भाव रूप में अत्यन्त सूक्ष्म रूप में शिव भाव सदैव विद्यमान रहता है और वही उसे चेतना देकर गुरु से सम्पर्क कराता है और जब शिष्य और सद्गुरु का मिलन होता है, तो सद्गुरुदेव सर्वप्रथम अपने शिष्य रूपी जीवन की दुःख की निवृत्ति की व्यवस्था करते हैं। शिष्य में जन्म-जन्मांतर से कर्म संस्कार जन्य दुःखमयी संसार धारा को अवरूद्ध कर सद्गुरुदेव उसके शिवस्वरूप से परिचय कराते हैं।
शिष्य की जीवन-धारा अधोमुखी, रजोगुणी, तमोगुणी प्रधान है, जिसमें उसके कर्मगत दोष सम्मिलित है, वह स्त्रोत उसके लिए कल्याणकारी नहीं है, तब सद्गुरु शिष्य के इस जीवन स्त्रे को ऊधर्वमुख सत्वविशाल एवं ऋजुसंकर धारा में परिवर्तित कर उसके जीवन केा चरितार्थता प्रदान करते है।
जब शिष्य सद्गुरु के सम्पर्क में आता है, तेा सद्गुरु शिष्य के हृदय में अन्तर्यामी रूप से विहार करते हुए उसमें जीवन में आ रहे इस मोड़ का रहस्य जानते है, अतः बाह्य जीवन में भोग-विलास से क्लान्त होकर शुद्ध शिव स्वरूप की ओर प्रत्यावर्तन करने की इच्छा रखते हुए शिष्य की दिनचर्या में इस निवृत्तिपरक धर्म की अभिव्यक्ति हो अथवा नहीं हो, परन्तु सद्गुरु की अन्तर्यामी दृष्टि उस परिवर्तन को समझती है। ऐसे जीव जो अपने जीवन में प्रत्यावर्तन की इच्छा रखते हैं, उन पर कृपा करने हेतु ही सद्गुरु देह स्वरूप धारण कर उनकी सहायता करते हैं।
(जीवों पर दया करने हेतु ही उस परम शक्ति का साकार रूप में प्रादुर्भाव होता है, जिन्हें सद्गुरु कहा जाता है। सद्गुरुदेव आने वाली पीढि़यों के लिए एक युनानुकूल मार्ग भी देते हैं, जिसका अवलम्बन कर जीवन कर्म बंधन से मुक्ति प्राप्त कर एक अनिवर्चनीय आनन्द में डूब सके, जिसे मोक्ष कहा गया है।)
विषमताओं से परिपूर्ण इस संसार चक्र से सन्तप्त, क्लान्त एवं अपने आपको असहाय अनुभव करने वाले जीवन पर करूणावश सद्गुरुदेव अपनी आनन्दमयी अमृत वचन एवं कृपा-कटाक्ष की वर्षा कर उसे अभयदान एवं इष्ट प्राप्ति का मार्गदर्शन करते है, क्योंकि विशुद्ध परम् आनन्द ही प्राणी मात्र का अभीष्ट है। संसार चक्र में वह इस तथ्य से अपरिचित रह सकता है, इस मार्ग में दुःख निवृत्ति तेा एक प्रारम्भिक अध्याय है, गुरु कृपा का एक छोटा सा अंश है।
दीक्षा –
सद्गुरु द्वारा प्रदत्त दीक्षा एवं मंत्रादि उपायों द्वारा गुरु कृपा पर आश्रित शिष्य इष्ट प्राप्ति के पथ पर अग्रसर होता है, यह मंत्र स्वरूप देवता की साधना-आराधना है, जिसके अन्तर्गत कर्म, ज्ञान, भक्ति सभी का समावेश होता है, इसीलिए सद्गुरुदेव शिष्य की स्थिति देखते हुए कभी सेवा का मार्ग बताते हैं। इस प्रकार निरंतर मनोयोग पूर्वक साधनात्मक क्रिया करने पर साधक प्रगति पर क्रमशः परिपक्वता प्राप्त करता है। उस स्थिति में वह दिव्य ज्योतिर्मय आराध्यदेव के साक्षात्कार में समर्थ होता है और यह आराध्यदेव साधक के आत्म स्वरूप में ही विद्यमान होते हैं।
साधना, तपस्या द्वारा साधक, शिष्य का स्वरूप ऊधर्वगामी होकर घनीभूत होता है और यह उसके मन को मुग्ध कर देने वाले दिव्याकार को धारण कर भिन्न रूप में दृष्टिगोचर होता है। वास्तव में यह स्थिति साधक के अन्तर्मन में विद्यमान शक्ति का जागरण और इस जागृत शक्ति का प्रकाश है, यही तो दिव्य चक्षु का जाग्रत भाव है, जो गुरु कृपा के बिना सम्भव ही नहीं है, इसीलिए गुरु वन्दना में कहा जाता है –
अज्ञान तिमिरानधस्य ज्ञानांजन शलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मैं श्री गुरवे नमः।।
गुरु तो नित्य बोधमय है, जिनका व्याख्यान स्वयं गुरु शब्द में ही निहित है। ब्रह्मोपनिषद में गुरु शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है –
गुकारस्तमसि प्रोक्तो रुकारस्तन्निवर्तकः
अर्थात ‘गु’ का अर्थ है अन्धकार, अज्ञान और ‘रु’ का अर्थ है निवृत्ति अर्थात् जो अंधकार की निवृत्ति करता है, वही गुरु है। इष्ट और गुरु वास्तव में तो अभिन्न होते हैं, यह साधक, शिष्य इष्ट साक्षात्कार से प्राप्त स्थिति में ही पूर्ण रूप से जान पाता है, उसे प्रारम्भिक स्थिति में साधक, इष्ट और गुरु में समान श्रद्धा भक्ति रखता है, तभी उसे परम लक्ष्य प्राप्त होता है।
‘यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ
तस्वैते कविता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।’
वस्तुतः इष्टदेव के रूप में स्वयं गुरु ही प्रकट होते हैं, परन्तु शिष्य इस तथ्य से अपरिचित रहता जिसका स्वभाव क्रोधी है, उसको मोन रहने की साधना करनी चाहिएं। है—- और उसे पूर्ण ज्ञान देने के लिए ही कहा गया है –
गुरु र्ब्रह्मा गुरु र्विष्णुः गुरु र्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मैं श्री गुरवे नमः।।
गुरु वन्दना के इस स्वरूप में तत्व भाव नहीं देखें, तो भी बाह्य दृष्टि से विवेचना करने पर शिष्य में उत्पत्ति, पालन ओर संहार का कार्य सद्गुरुदेव ही सम्पन्न करते है। ब्रह्मा का कार्य है निर्माण ओर गुरुदेव साधना, योग, संस्कार द्वारा शिष्य के नव शरीर का निर्माण करते हैं। दीक्षा के द्वारा पुनर्जन्म अर्थात् द्विजत्व प्रदान करते हैं। मनुस्मृति में कहा गया है –
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारद् द्विज उच्यते।
मनुष्य जन्म से शूद्रवत् होता है, संस्कार द्वारा वह पूनर्जन्म प्राप्त करता है, उच्चता प्राप्त करता है। विष्णु कार्य है पालन और सद्गुरु भी अपने शिष्य की हर स्थिति में रक्षा करते है, अभय प्रदान करते है, और उसके जीवन पालन में सहायक बनते हे। इस प्रकार वे विष्णु रूप में हैं।
साधना क्रम में इष्ट साक्षात्कार में शिष्य के मार्ग में संस्कारगत बाधााएं और क्रिया-कलापों के कारण विघ्न आते है ओर उसके पूर्व जन्मों की परम्परा से प्राप्त दोष इत्यादि बाधाक बनते हैं। सद्गुरु इन सब दोषों का संहार करते हैं, अतः वे महेश्वर स्वरूप हैं, इस प्रकार गुरु शिष्य के साथ एकात्मक भाव से कृपापूर्वक आत्म-साक्षत्कार प्राप्त होने की स्थिति तक उसके लिए अभीष्ट भोग एवं मोक्ष का विधान करते हैं।
दीक्षा में जो उपनयन संस्कार होता है, उसमें ‘उप’ अर्थात् ‘समीप’, ‘नयन’ अर्थात् ‘ले जाना’ है। यह क्रिया शिष्य केा गुरु के समीप ले जाने की क्रिया है। इसीलिए गुरु अपने शिष्य से कहते हैं –
मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनु चित्तं ते अस्तु।
मम वाचम् एकमना जुषस्व बृहस्पतिष्ट्वा नियुनक्तु महाम्।।
गुरु व्रत पूर्वक अपने शिष्य को आश्वास्त करता है, कि तेरे हृदय को मैं अपने हृदय में धारण करता हूं, तेरा चित्त अपने चित्त में लेता हूं। गुरु-शिष्य परस्पर इतना निकट आने का प्रयास करते है, कि वे ‘एकमना’ हो जाए। परस्पर दुविधा में न रहें। मनुष्य के अन्तर्गत चित्त एवं हृदय ये ही तो दो बहुमूल्य निधियां हैं। चित्त में विचार उठते हैं, हृदय में भावनाओं का उद्वेलन होता है। गुरु प्रतिज्ञा पूर्वक शिष्य के चित्त एवं हृदय को अपने हाथ में लेना उसके समुचित, समुन्नत व्यक्तित्व निर्माण का गुरुतर उत्तरदायित्व वहन करते हैं। जीवन निर्माण का इससे ऊंचा क्या आदर्श हो सकता है ? गुरु शिष्य का एकात्म भाव ही आध्यात्मिक उपनयन एवं शिवत्व चेतना की कुंजी है।
गुरु शिष्य को अत्यधिक निकटता को सार्थकता प्रदान करते हैं, तभी तेा संस्कृत में शिष्य के लिए ‘अन्तेवासी’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। अन्तेवासी का तात्पर्य है – जो शिष्य गुरुके अन्दर तक बसा हुआ है। दीक्षा ओर उपनयन संस्कार में गुरु शिष्य को किसी सीमा तक अपने अन्तर्मन में स्थित कर लेते हैं इस भाव को अथर्ववेद में प्रदर्शित करते हुए कहा है, कि –
आचार्य उपनीय मानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः।
तं रात्रीसि्त्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः।।
(अथर्ववेद काण्उ 11, सुक्त 5, मंत्र 3)
दीक्षित शिष्य को स्वीकार कर गुरु इस प्रकार संभाल कर सुरक्षित रखता है, जैसे माता गर्भस्य शिशु को। ‘अन्तेवासी’ की कितनी मार्मिक व्याख्या उक्त मंत्र में निहित है। मातृ गर्भ में जैसे शिशु पूर्ण सुरक्षित रहता है, वैसे ही गुरु द्वारा सुरक्षित शिष्य दूषित वातावरण के दुष्प्रभावों से बचा रहता है। गुरु शिष्य सम्बन्धों की एकात्मता और मधुरता का इससे उत्कृष्ट चित्र चित्रित किया जा सकता है क्या ?
माता के श्वास-प्रश्वास ही शिशु के श्वास प्रश्वास होते हैं, माता के भोजन में शिशु का भोजन, माता के जलपान में शिशु का जलपान। गुरु शिष्य के निकटतम सम्बन्ध उप+नयन के भाव को अभिव्यक्त करने के लिए जननी एवं उदरस्थ शिशु से अधिक सुन्दर उपमा अकल्पनीय है।
(जब जीव हृदय से आत पुकार कर उठता है, तो उसकी आवाज दूर तक सुनी जाती है, और यह आवाज उस परम शिव तक पहुंचती है— इसी क्रम में उस परम सता को देह का अवलम्बन लेकर संसार में जीव कल्याण हेतु आना पड़ता है, जिससे जीव केा अपने अन्दर के शिवत्व का बोधकर सके। सद्गुरु उसी परम शिव का साकार स्वरूप होते हैं, जो जीव को उसके स्तर पर उतर कर उसकी ही उसकी ही भाषा में उसकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं।)
माता के गर्भ में जिस प्रकार सन्तान बीजरूपेण निहित रहती है तथा क्रमशः अप्रत्यक्ष के परिपुष होने पर पूर्णता प्राप्त करके प्रसव-प्रक्रिया के माध्यम से इन्द्रिय गोचरता धारण करती है, ठीक उसी सद्गुरु द्वारा प्रदत्त बीज मंत्र साधक के हृदय क्षेत्र में दीक्षादि परम्परा विधि द्वारा स्थापित होकर शिष्य द्वारा श्रद्धापूर्वक सेवित-रक्षित होकर (वस्तुतः वह संरक्षण भी अर्न्तयामी रूप से गुरु ही करता है) अंकुरित एवं परिपुष्ट होकर मूर्तभाव धारण करके इष्ट देवता के रूप में साधक के समक्ष प्रकट होते हैं, क्योंकि देवता मंत्रात्मक शब्द स्वरूप ही होते हैं।
शब्द छन्द बन जाता है और छन्द बनकर मंत्र बन जाता है, इस प्रकार मंत्र ही शिष्य को इष्ट साक्षात्कार क्रिया का आधार बनते हैं, क्योंकि देवता मंत्र साधना द्वारा ही सहायक होते हैं। इस प्रकार गुरु के परम शिव स्वरूप आत्म-अनुसंधान के पथ पर अग्रसर होता है। उसको निरन्तर दृढ़ता प्राप्त होने पर साधक शिष्य का ‘अहं भाव’ विगलित हो जाता है। इस तरह गुरु तत्व ज्ञान स्वरूप बन जाता है और आत्मा में स्वयं प्रकाशित हो अभिव्यक्ति हो जाता है।
ज्ञान के अनन्त भण्डार, पूज्यपाद गुरुदेव जब बोलते है, तो लगता सरस्वती उनकी जिह्ना में विराजमान है। चाहे वेदोपनिषद हो या पुराण, दर्शन हेा या साहित्य आयुर्वेद हो या रसायान विद्या, तंत्र-मंत्र-यंत्र विज्ञान हो या अन्य को ई विषय, ज्ञान का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसमें वे पारंगत न हों। ज्ञान के क्षेत्र में उनकी सर्वतोन्तुखी प्रतिभा जितनी प्रखर रही, उतनी ही उनके व्यावहारिक विधि-विधानों, साधनाओं में भी वे पूर्ण निष्णात रहें। कठिन तपस्या द्वारा अर्जित अपनी प्रचण्ड ऊर्जा को वे नित्य प्रति मुक्त हस्त से दीक्षा एवं शक्तिपात के माध्यम से अपने शिष्यों तथा अन्य दीन दुःखियों में निःसंकोच वितरित करते रहे।
सौभाग्यशाली हैं वे मनुष्य जो इस महाविभूति का सान्निध्य प्राप्त कर आनन्दमयी अन्तश्चेतना के जागरण की स्वरलहरी मं अपने आपको रसमग्न कर सके हैं। भौतिक दृष्टि से वे चाहे उनके दूरस्थ ही क्यों न हों, एक बार गुरुदेव को निश्छल हृदय से जिन्होंने समझने का किंचित मात्र भी प्रयास किया, वे उनकी ददिव्यात्मकता अनुभूति में रससिक्त हुए बिना रह ही नहीं सकते, क्योंकि भौतिक सृष्टि की तुलना में विचार शक्ति कहीं अधिक बलवती होती है।
शान्ति, प्रेम, सौहार्द और श्रद्धा का सन्देश ही तो विश्वकल्याण का मूल स्त्रोत है और भाव संवेदना में तो सर्वाधिक सशक्त विद्युतीय चुम्बकीय तरंगे होती है, जिन्हें ग्रहण करने के लिए निश्छल हृदयता ही पहली शर्त है। भगवान श्रीकृष्ण की भांति पूज्य गुरुदेव में सुदिव्य, अद्भुत मोहिनी है, जिसके रंग में रंग कर उन्होंने अपने शिष्य वर्ग के लिए अणु-परमाणुवर्तिनी अन्तश्चेतना को, दिव्य-भाव को, अत्यन्त सरस ढंग से जागृत करके उनके आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त किया और यही प्रक्रिया तो क्रमशः ‘सत्यं शिवं सुन्दरं’ की रसायनुभूति के पथ पर अग्रसर करती है, क्योंकि ब्रह्म तो आनन्द स्वरूप है।
हम सब अल्पप्राण रसतत्व से अनभिज्ञ सामान्यजन अरसिक है। स्वभाविक रूप का जो चरम और परम भाव है जिस भावभूमि की प्राप्ति हो जाने पर स्वयं श्रुति की आश्वासवाणी है – ‘अपाम सोममभृता अभूम’ उस भावना का स्तर भौतिकता में रचे-पचे सामान्यजनों को भला कैसे बोधगम्य हो सकता है ? परन्तु जो समर्थ गुरु हैं, जो तत्ववेत्ता हैं, जो प्रत्येक स्वर के प्राणियों के अन्तर्यामी सूत्र को पकड़ने की क्षमता रखते हैं, वे उनकी योग्यता के अनुसार, इसी शक्ति यंत्र को क्रमिक दीक्षा देकर, समय आने पर उसका पूर्णाभिषेक भी करते हैं।
गुरुदेव अपने शिष्यों के ‘प्रथम पुरुष’ (Surface consciousness) के आश्रय से उनके पंचकोषात्मक संघात Apparatus) में अपनी शक्ति का प्रवेश करा के, उसकी श्रद्धा का पोषण करके उसे ‘श्रद्धावीर्य’ बनाते हैं, क्योंकि मायावश सभी जीव (शिष्य) व्यावहारिक संघात व्यावृत्ति में, हरण में, कृपण, संकीर्ण छन्द विन्यस्त और अभ्यस्त हैं। प्रकाश और आनन्द के सागर का और उससे परिपूर्ण ऋृतच्छन्द और सत्यच्छन्द के सन्धान में अनभ्यस्त हैं।एक अनिष्ट अभयास निरसन हेतु गुरुदेव शिष्यों के ‘प्रथम पुरूष’ में बाह्यतः मंत्र रूप से दीक्षापूर्वक ‘आक्रमण’ करते है। फ़लतः गुरुदेव द्वरा प्रदत्त मंत्रादि की मुख्य जप क्रिया अर्थात् क्रिया-कारक-फ़ल-संघात को, समावृति, पूरण, उदार, शुद्ध, मुक्त छन्द में विन्यस्त करने की क्रिया गुरुशक्ति ही सम्पादित करती है। गुरु शक्ति द्वारा अनुग्रहीत होकर जापक (साधक या शिष्य) त्रिविधा वीर्यलाभ करता है।
‘मध्यम पुरुष’ (Subconscious) के अधिवासी को भाव अथवा संस्कारवीर्य प्रदान करके जपक्रिया साधनादि के प्रतिकूल संस्कारों से अनुकूल में विन्यस्त करते हुए ‘अरिच्छन्द’ से ‘नित्रच्छन्द’ में आपूरणार्थ प्रस्तुत करती है।
‘उत्तम पुरुष’ (Superconscious) को विद्या अथवा ज्ञानवीर्य प्रदान करके प्रसन्नता करती है। समर्थ बैखरी जप में सामर्थ्यवान् सद्गुरु की सहायता से श्रद्धावान प्रथम पुरुष, धृत्युत्साह समन्वित, अभ्यास परायण होते है। उनकी निष्ठा-तपस्या से ‘भूः’ एवं ‘स्वः’ लोकों की ‘तडि़त शक्ति’ आकृष्ट सी होकर घनीभूत होती जाती है। क्रमशः ‘मध्यम’ से ‘उत्तम’ पर्यन्त चित्तप्रसाद होता है। तीनों के एक सीमा विशेष की अवस्था में आने पर तीन वज्रों का एकत्र मिलन होता है। स्वामी प्रत्यगानन्द सरस्वती लिखित ‘जपसूत्र’ में उक्त तथ्यों को बड़ी विशदता एवं सुन्दर ढंग से दिया गया है, जिसका सार इस प्रकार है –
1- प्रथम पुरुष: पशु – मध्यम पुरुष: वीर – उत्तम पुरुष: दिव्य – सम्मिलित पुरुष: त्रिपुटी।
2- जापक: प्रथम पुरुष, जपयिता (गुरु): मध्यम पुरुष, जप्य (मंत्र): उत्तम पुरुष।
3- तंत्र (समर्थ क्रिया): प्रथम पुरुष, यंत्र: मध्यम पुरुष, मंत्र: उत्तम पुरुष।
यदि इन तीनों व्याख्यानों को समझकर शिष्य अग्रसर होता है, तो वह पुरुष से पुरुषोत्तम बनने की क्रिया सम्पन्न कर सकता है।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरचाक्षर एव च
उत्तमः गुरुषस्तवन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
(गीता 15-15-16)
परम पूज्य गुरुदेव की कृपा के बिना साधक सिद्धि के उच्च चरम भावभूमि तक पहुंच ही नहीं सकता और जो सद्गुरु हैं, उनका संग्रह, प्रतिग्रह, विग्रह, परिग्रह – सब कुछ उकनी करुणा-मंदाकिनी का ही पृथुल, विमल, उच्छल, कलकल प्रवाह है, गुरुदेव की अनुग्रह शक्ति की ही लीला है, उनकी अनुग्रह शक्ति का ही बहुआयामी रूप है।
गुरु द्वारा उक्त अनुग्रह अमृत निःस्पन्द से शिष्य के रसाप्लावन का व्यापार एकतरफ़ा नहीं है। इसके लिए चाहिए शिष्य का समर्पण ‘सर्वधार्मान् परित्यज्य’ की श्रद्धा की परिपक्वता, शिष्य की शरणागति एवं निश्छल समर्पण तभी शिष्य के तापपत्र की ज्वालामयी आर्तपुकार, जिससे द्रवीभूत गुरुकृपा का सघन घन बरस कर उसे शीतलता प्रदान करके चिरस्थायी तृप्ति संभृत आनन्द प्रदान करता है।
गुरु तत्व इतना गहर और गंभीर है, कि उसकी व्याख्या संभवतः साक्षात वाग्देवी सरस्वती भी पूर्णतः नहीं कर सकती हैं। सद्गुरु जो अपने स्वरूप में ईश्वर का प्रत्येक स्वरूप समाहित किए हों, जो वरदायक हों, जो प्रत्येक ढंग से कल्याणकारी ही हों, जो प्रत्येक स्थिति में करुणामय हों, जो प्रत्येक दशा में क्षमा कर देने की उदारता अपने में समेटे हों, जो वास्तव में शिव स्वरूप हों, जो शंकर रूप हों, उन श्री सद्गुरुदेव पूज्यपाद गुरुदेव डॉ- नारायणदत्त श्रीमाली के चरणारविन्दों में बारम्बार विनम्र निवेदन है –
‘वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्’
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