जो प्रेम की उच्चतम पराकाष्ठा को दर्शाता है वह गुरु शिष्य का संबंध है। शिष्य किसी स्वार्थ वश गुरु से नहीं जुड़ता, गुरु के प्रति उसकी भावना में कहीं कोई स्वार्थ का तत्व नहीं होता,अगर होता है तो केवल निश्छल प्रेम तत्व, समर्पण तत्व जैसे कि राधा का कृष्ण के प्रति था,मीरा का कृष्ण के प्रति।
शिष्य सभी कुछ तो गुरु से प्राप्त करता है- भौतिक स्तर पर भी तथा आध्यात्मिक स्तर पर भी परंतु उसके मन में किसी प्रकार की कोई आकांक्षा नहीं होती-न तो भौतिक सफलता की, न ही सिद्धि या साधनाओं की।
ऐसा इसलिये नहीं कि शिष्य ध्येय रहित होता है अपितु इसलिये कि उसे ज्ञात होता है कि गुरु तो मां समान है जो कि स्वयं ही उसकी सभी आवश्यकताऔं की पूर्ति कर देगी या उसके जीवन को यथोचित मार्गदर्शन दे देगी; फिर व्यर्थ में कामना करने की क्या आवश्यकता।
एक मां अबोध बालक के हाथ में चाकू नहीं थमा देती क्योंकि उसे ज्ञात है कि बालक स्वयं की हानी कर बैठेगा। इसी प्रकार सद्गुरुदेव भी सिद्धि रुपी दुधारी तलवार को शिष्य को तब तक हस्तगत नहीं करने देते जब तक कि उन्हें विश्वास न हो जाये कि शिष्य में अब संयम, उतना सामर्थ्य आ गया है कि वह शक्ति को संभाल सके। एक वास्वतिक शिष्य इस बात को समझता है तथा वह परिणाम की परवाह किये बगैर साधनाएं करता रहता है क्योंकि वह जानता है कि जब उसमें पात्रता होगी तो सद्गुरुदेव तत्क्षण सभी सिद्धिया उसमें उड़ेल देंगे।
हर कार्य करते समय, साधना सम्पन्न करते समय, हर मंत्र जप या यज्ञ करते समय शिष्य अनुभव करता है कि सद्गुरुदेव उसके समीप ही कहीं हैं तथा सूक्ष्म रुप से उसका मार्गदर्शन कर रहे हैं तथा उसकी त्रुटियो को सुधार रहे हैं। यही निरंतर भावना वास्तविक गुरु पूजा है, गुरु वंदना है,गुरु आराधना है तथा जो शिष्य इस भावना के साथ अग्रसर होता है तो विफलता उसको स्पर्श भी नही कर सकती।
गुरु के चित्र लगाना, भजन गाना, गुरु के नारे लगाना, पूर्ण समर्पण नहीं हैं ये गुरु के प्रति शिष्य की भावना के चिन्ह मात्र है। वास्तविक गुरु पूजन तो है गुरु द्वारा बताए ज्ञान को जीवित जाग्रत रखना, गुरु द्वारा बताए मार्ग पर चलना तथा औरों को भी उस पर चलने के लिये प्रेरित करना।
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