जो आप बनना चाहते है, वो आप बन सकते है लेकिन आपके विचार सकारात्मक हों और उन सकारात्मक विचारों से ही अपने भीतर की निराशा को तोड़ सकते है।
अपने आपको बलिदान कर देने में सार्थकता नहीं, अपने को समाज के सामने छाती ठोक कर खड़ा कर देना और अपनी पहचान के साथ-साथ गुरू की मर्यादा सम्मान समाज में स्थापित कर देना ही तो शिष्यत्व है।
शिष्य के लिए सद्गुरूदेव भगवान स्वरूप और समदृष्टा होते है। वे अपनी दोनों आंखों से नहीं, अपितु अपने दिव्य चक्षु से शिष्य को देखते है।
जैसे विचार अपने भीतर बोओगे, वैसे ही फसल तैयार होगी। श्रेष्ठ विचार श्रेष्ठता की ही वृद्धि करेंगे।
संयम, श्रद्धा, आत्मविश्वास, प्रेम निष्ठा और समर्पण -ये छः गुण जब स्थापित हो जाये, तब ही जानिये कि आप सफलता की सीढि़यों पर चढ़ रहे है। कोई आपके लिये सफलता के द्वार खोल कर नहीं खड़ा है। आपको ही ये छः गुण अपने भीतर विकसित करने है।
हर समय अदम्य इच्छा शक्ति बनाये रखें और आपका लक्ष्य सदैव आपके सामने लिखा हुआ होना चाहिये।
हर शिष्य का रक्त लाल है और हर शिष्य के आंसू खारे है। हर शिष्य को ऐसा मार्ग अवश्य ही खोजना चाहिये, जिससे उसके सम्मान की रक्षा और अनन्त सम्भावनाओं की पूर्ण प्राप्ति हो सके।
जिस प्रकार शरीर की शुचिता के लिये, उसे नित्य स्वच्छ करना आवश्यक है, उसी प्रकार मन और मस्तिष्क को नित्य स्वच्छ करना आवश्यक है। जब तक मन नकारात्मक विचारों से भरा है, तब तक वह एक लक्ष्य की ओर ध्यान नहीं कर सकता।
श्रद्धा के साथ ही अपने-आप को पूर्णरूप से समर्पित करने की क्रिया का भी भान होना चाहिये, इसलिये नहीं कि तुम्हारे समर्पण करने से गुरू को महानता मिलती है, गुरू की महानता उनके ज्ञान से है।
गुरू जैसा करे वैसा तुम्हें करने की जरूरत नहीं है, गुरू जैसा कहे वैसा करने की जरूरत है। गुरू ऐसा क्यों कर रहे है, तुम उसे अभी समझ नहीं पाओगे।
गुरू कहे और शिष्य करे, वह तो मामुली मनुष्य है और गुरू कहे शिष्य करे ही नहीं, वह राक्षस है, गुरू नहीं कहे और इशारा समझ कर करे, वह देवता है।
जिस क्षण शिष्य के जीवन में तरंग आती है, जिस क्षण उसके जीवन में आनन्द की हिलोर आती है, तो वह निरंतर अग्रसर होता रहता है, क्योंकि लहर रूकती नहीं। पत्थर या लकड़ी एक जगह रूक सकती है, लहर नहीं रूक सकती।
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