





साधक अपने जीवन में धन, वैभव, ऐश्वर्य, सम्मान, पद, प्रतिष्ठा आदि प्राप्त करना तथा तंत्र के क्षेत्र में अग्रणी होने हेतु उच्चतम तथा श्रेष्ठतम साधक, व पुराण वर्णित ऋृषि विश्वामित्र, वशिष्ठ तारा साधना को ही आधार मानते हुए समाज में प्रस्तुत किया दस महाविद्याओं में प्रमुख तथा साधकों के लिए अत्योत्तम साधना है।
तारण करने वाली और अज्ञानरूपी अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाकर अपने भक्तों को समृद्धि, यश, वैभव आदि प्रदान करने वाली देवी तारा ही है। यदि साधक तारा साधना को पूर्णता के साथ सम्पन्न करता है, तो उसके जीवन में कभी किसी प्रकार की कोई कमी रहती ही नहीं है।
धन सम्मान ज्ञान ऐश्वर्य प्रतिष्ठा
वेद धर्म में जैसे भगवती दुर्गा का स्थान है ठीक इसी प्रकार बौद्ध धर्म में तारा का स्थान है, तारा को बौद्ध गण आदिकाल से शक्ति की अधिष्ठात्री देवी के रूप में मानते हैं, इस देवी की उपासना से साधक अष्ट भयों से मुक्त होता है, तारा की उपासना मात्र से ही सांसारिक भयों का चक्र छूट जाता है। तारा अपने साधक को इस संसार सागर से तारती है। तारा को कुछ लोग बौद्ध देवी के रूप में भी स्वीकार करते हैं।
तारा शब्द का अर्थ भी ‘तार रक्षण’ के अर्थ में प्रयुक्त होता है, इसका ‘आकाश’ अर्थात् ‘शून्य’ के अर्थ में भी व्यवहार होता है। विद्वानों का यह कहना है, कि तारा बोधिसत्व के आलोक की परमशक्ति है। तिब्बतों के निवासी भी तारा को महामाया के रूप में जानते हैं, इससे तारा की उपासना की लोकप्रियता का पता चलता है।
तारा दस महाविद्या में द्वितीय शक्ति है। तारा को अवलोकितेश्वर की शक्ति के रूप में स्वीकार किया जाता है, तारा और दुर्गा में सामन्ज्स्य है, तारा और दुर्गा का शाब्दिक अर्थ भी समान है। तारा के सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि यह जलप्लावन और तूफान में रक्षा करती है, ‘लधुभट्टकारक’ के इस पद्य में यह अर्थ गुम्फित है-
भूत-प्रेत, पिशाच, राक्षस भये स्मृत्वा महाभैरवी।
व्यामोहे त्रिपुरां तरन्ति विपदस्तारां च तोय प्लवे।।
स्पष्ट है कि भूत, प्रेत, पिशाच और राक्षस भय से मुक्त होने के लिये महाभैरवी की उपासना करनी चाहिए, मोह से मुक्त होने के लिये त्रिपुरा की पूजा करनी चाहिए और जलप्लावन के भय से मुक्त होने के लिए तारा की उपासना आवश्यक है। दुर्गा और तारा में बहुत सामीप्य है, हिन्दु दुर्गा देवी को विशिष्ट रूप में भजते हैं, तांत्रिक अर्चना में तारा कुलदेवी के रूप में पूजित होती हैं।
ब्रह्माण्ड पुराण में तारा की चर्चा है, महाभारत के विराट और भीष्मपर्व में एक प्रसंग है, जिसमें युधिष्ठिर और अर्जुन भगवती की स्तुति करते हैं, इस स्तुति में ‘तारिणी’ शब्द का व्यवहार करते हैं।
चण्डि! चण्डे! नमस्तुभ्यं तारिणी वर्णिनि।
इससे पता चलता है कि महाभारत युग में शक्ति की उपासना में तारिणी नाम बहुत प्रचलित था। ऐसा माना जाता है कि ईसा की पांचवी शताब्दी में दुर्गा और तारा का एकीकरण हो गया, दोनों को एक दूसरे का अंश समझा जाने लगा। दुर्गा के अंशावतार के रूप में तारा को स्वीकार कर लिया गया, दोनों की उपासना शक्ति के अभिन्न रूप में होने लगी।
हिन्दू मातृ देवी के रूप में तारा की उपासना प्रचलित हो गई, ईसा से छः सात सौ वर्ष पूर्व तैत्तरीय आरण्यक में अम्बिका नामक देवी की अभिधा की गाथा है, जो रूद्रदेव की आश्रयिता है, बौद्धों के उत्कर्ष काल में तारा की उद्भावना भी इसी क्रम में धार्मिक और सामाजिक मंच पर होने लगी। अंशग ने योग पद्धति की अवधारणा की और इसी माध्यम से महायान उपासना विधि में इस चिन्तन को आरोपित किया, यह समय चौथी-पांचवी सदी का है। यह भी माना जाता है, कि हिन्दुओं के शिव-शक्तिवाद की उपासना के क्रम में तारा की उपासना का सूत्रपात हुआ। बौद्ध धर्म की महायान-शाखा ने तांत्रिक पूजा के मोह में अनेक अवतरणों को स्वीकार किया है, तारा भी उसी महान कल्पना युग के आकाश की तरह है। तारा हिन्दुओं और बौद्धों की रहस्यमयी आध्यात्मिक विचारधारा की संधि की देन है। ऐलोरा की गुफ़ा संख्या दो में तारा को अवलोकितेश्वर के साथ प्रदर्शित किया गया है। तारा से संबंधित एक मूर्ति कन्हेरी की गुफा में भी उपलब्ध है, इस मूर्ति के संबंध में यह कहा जाता है कि यह पांचवी सदी की है, तारा की उपासना की परम्परा को छठी सदी से प्रचलित माना जाता है।
मध्यप्रदेश के सिरपुर में भी तारा की एक मूर्ति मिली है, जो सातवीं सदी की है। जैन धर्म में भी ‘सुतार’ और ‘सुतारका’ जैसे शब्दों का व्यवहार है। इन दोनों नामों के संबंधों में यह बतलाया गया है, कि ये सुविधिनाथ की यक्षिणी या शासिका देवियां है। जैन धर्म में इनके संबंध में विशेष वर्णन नहीं मिलती है। विद्वानों का कहना है कि बौद्ध धर्म की अनुकृति के कारण ही जैन धर्म में शक्ति की उपासना प्रचलित हुई।
दस महाविद्याओं का प्रथम वर्णन महाभागवत में है, इस महापुराण को 12वीं शताब्दी का माना जाता है। महाचीना तारा की उपासना 12वी शताब्दी में प्रचलित थी। ऊधर ऐलोरा और कन्हेरी गुफा की तारा मूर्तियां छठी और पांचवी शताब्दी के समय को प्रमाणित करती हैं। उस समय तारा एक लोक प्रिय देवी के रूप में मान्य थी। स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म की मूर्ति का हिन्दूकरण सातवीं शताब्दी में हुआ, किन्तु तारा को बौद्ध धर्म का ही मान लेना समीचीन नहीं है, तारा की उपासना दोनों ही धार्मिक संप्रदायों में प्रचलित हैं।
तारा की उपासना की परंपरा अति प्राचीन है, एक जटा तारा की उपासना परवर्ती युग की देन है, नागार्जुन इसे तिब्बतियों के बीच प्रसिद्ध देवी के रूप में मानते हैं, ब्रह्मयामल में बुद्ध-वशिष्ठ की कथा है, इसी कथा के आधार पर तारा को महाचीना से आगत देवी रूप में स्वीकार किया जाता है। मत्स्यपुराण के अनुसार तारा की उपासना का केन्द्रस्थल मेरूपर्वत है, भारत मेरूपर्वत का केन्द्रस्थल है। इसीलिए तारा की उपासना भूमि भारत ही है।
तारा की उपासना धीरे-धीरे अनेक रूपों में होने लगी, एकजटा, महाचीना तारा और जांगुली के रूप में उनकी पूजा होने लगी। बौद्धों की आर्यभट्टारिका में भी तारा के 108 नामों की चर्चा है, हिन्दु तंत्रशास्त्रों में देवी तारा के सहस्त्रनामों का वाचन भी आता है, पर्णसाबरी अपने भक्तों को महामारी से बचाती हैं, जांगुली अपने सांपों काटे भक्तों को विष से मुक्त करती हैं, अष्टभया देवी भक्तों को अष्टभयों से मुक्त करती हैं।
तारा साधना दस महाविद्याओं में प्रमुख तथा साधकों के लिए अति उत्तम साधना है। तारा साधना सिद्ध करने के पश्चात् साधक अपने जीवन में धन, वैभव, ऐश्वर्य, सम्मान, पद, प्रतिष्ठा आदि प्राप्त कर लेता है तथा तंत्र के क्षेत्र में अग्रणी हो सकता है।
तारयति अज्ञानान्धातमसः समृद्धयति भक्तान् यः सा तारा।।
तारण करने वाली और अज्ञानरूपी अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाकर अपने भक्तों को समृद्धि, यश, वैभव आदि प्रदान करने वाली देवी तारा ही हैं। यदि साधक तारा साधना को पूर्णता के साथ सम्पन्न करता है, तो उसके जीवन में कभी किसी प्रकार की कोई कमी रहती ही नहीं है। कहा जाता है, कि तारा अपने साधक को नित्य स्वर्ण प्रदान करती हैं।
इस साधना में आवश्यक सामग्री ‘स्वर्णप्रदायक तारा यंत्र’, ‘महाविद्या तारा शंख’ तथा ‘शक्ति तारा माला’ है। तारा शंख साधक के जीवन में समस्त प्रकार की लक्ष्मी को प्रदान करता है तथा तारा माला साधक में भैरव के समान बल उत्पन्न करती है।
यह साधना आप नूतन वर्ष के प्रारम्भिक दिवसों में और नवरात्रि का पर्व श्रेष्ठतम रहता है या किसी भी माह में शुक्ल पक्ष की द्वितीया अथवा 29 अप्रैल 2013 को सर्वार्थ सिद्धि योग के अवसर पर संपन्न कर सकते हैं।
साधक साधना में गुलाबी वस्त्र ही धारण करें तथा आसन भी गुलाबी रखें। साधना उत्तराभिमुखी होकर ही करें। लकड़ी के बाजोट पर गुलाबी वस्त्र बिछायें, उस पर किसी पात्र में अष्टगंध से ‘हृीं’ लिखकर ‘तारा यंत्र’ स्थापित करें। यंत्र के बायीं ओर चावल की ढेरी बना कर ‘ताराशंख’ स्थापित करें। तारा का ध्यान कर पुष्प अर्पित करें।
ध्यान
प्रत्यालीढपदां घोरां मुण्डमाला विभूषितां,
पूर्णालभ्बोदरी भीमां व्याघ्रचर्मावृतां कटीं।
नवयौवनसम्पन्नां पंचमुद्राविभूषितां,
चतुर्भुजां लोलजिह्वां महाभीमां वरप्रदाम्।।
तारा माला से निम्न मंत्र का 108 माला मंत्र जप करें-
मंत्र जप समाप्त होने पर शंख तथा यंत्र का 21 दिन तक नित्य पूजन करें तथा नित्य तारा माला से एक माला मंत्र जप कर माला पहन लें। 21 दिन पश्चात् यंत्र, माला तथा शंख को नदी में प्रवाहित कर दें।
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