और निश्चय ही जो ऐसा सम्बन्ध होगा, वही व्यक्ति को जीवन में पूर्णता और तृप्ति दे सकेगा। ऐसे ही सम्बन्ध के मध्य नित्य प्रति, प्रतिपल जो आत्मीयता की सरिता, एक मूक ध्वनि, अनहद के साथ प्रवाहित रहती है, वही वास्तव में किसी भी उत्सव की आधारभूमि होती है। गुरु व शिष्य के मध्य तो एक उत्सव की आधारभूमि ही होती है। गुरु व शिष्य के मध्य तो एक उत्सव निरन्तर सृजित होता ही रहता है, भले ही शिष्य अपने गुरु के सम्मुख, समीप हो अथवा उनसे दूरस्थ।
जीवन व अध्यात्म का लक्ष्य निःसन्देह उसी अर्थवान आनन्द की प्राप्ति है, जिसे कहीं परमानन्द, तो कहीं ब्रह्मानन्द अथवा कहीं इष्ट दर्शन के रूप में वर्णित किया गया है। जब तक पथ अर्थात भौतिक पक्ष पूर्ण नहीं होगा, मनोवांछित रूप में अप्लावित नहीं होगा, तब तक जीवन यात्रा का अर्थ ही कैसे हो सकेगा? आनन्द की उपलब्धि, आनन्द पथ पर चलकर ही हो सकती है। यूं कोई मंत्र जप, ध्यान, शास्त्र, अध्ययन, शास्त्रर्थ विवेचन से खुद को उलझा कर अपने को ढाढस सा देना चाहे, तो वह उसके लिये स्वतंत्र है।
मात्र ऊंची आवाज में भजन गा लेने या मंत्र जाप अथवा साधना से ही आत्मसंतुष्टि प्राप्त नहीं हो सकती, क्योंकि जब व्यक्ति अन्दर से ही श्रद्धा, विश्वास आदि गुणों से रिक्त है, तो किसी भी बाह्य क्रिया से उसे कैसे आनन्द मिल सकता है। फिर ऐसा करना तो आत्मप्रवंचना ही होती है, स्वयं से झूठ बोलने का ही एक प्रकार होता है। व्यक्ति का छल दूसरे से शायद तब भी कुछ दूरी तक चल सकता हो, लेकिन खुद से किया गया छल एक अभिशाप होता है।
जीवन में ऐसी ही स्थितियों में, ऐसे ही मन को मथ देने वाले मोड़ों पर जहां समस्त ज्ञान-विज्ञान, मत-मतान्तर, धर्म अथवा पथ मूक हो जाते हैं, वहीं जिस दिव्य चैतन्य सत्ता के स्पर्श की आवश्यकता अनिवार्य होती है, उन्हें ही शास्त्रों में श्री सद्गुरुदेव कहकर अभिनंदित किया गया है। जो अपने विविध उपायों, स्पर्शों, वचनों, हास्य इत्यादि के माध्यम से साधक के जीवन में आशा का संचार करते हैं, उन्हें ही अत्यंत सम्मान के साथ जीवन में समाहित कर अपने पथ को निष्कंटक करने की क्रिया करता है, क्योंकि गुरु का सहचर्य एक पल, दो पल अथवा कुछ वर्षो का साथ न होकर एक निरन्तर चलने वाला साथ होता है। शिष्य जब अपने दम्भ, प्रमाद, आलस्य या किसी अन्य संवेग से वशीभूत होकर अपनी गति स्तम्भित कर देता है, तब भी गुरु की गति अविराम बनी रहती ही है। वे उसके आत्म में स्थापित होते हुए उसे निरन्तर देवगंगा में अवगाहन करने का मर्म विवेचित करते हैं, क्योंकि जीवन के समस्त पक्षों, समस्त स्थितियों के उपरान्त भी सद्गुरुदेव का एक ही प्रयास होता है, कि जिस आनन्द के महोदधि में वे स्वयं निमग्न हैं, उसी में निमग्न होने की, आनन्द से अभिसिक्त होने की पात्रता उनका आत्मीय, उनका प्रिय, उनका सर्वस्व, उनका शिष्य भी प्राप्त कर सके।
लोग कहते हैं कि संसार में धोखा, लूटपाट, स्वार्थ, व्यभिचार, असत्य आचरण, बीमारी, अविश्वास ही फैला हुआ है और मनुष्य की प्रकृति भी दूसरे पर विजय प्राप्त कर, येन-केन-प्रकारेण अपने आप को किसी भी तरह से श्रेष्ठ बनाने की भावना ही उसके मन में रहती है, लेकिन ये भावनायें मनुष्य को किसने प्रदान की? बालक जब उत्पन्न होता है तो उसको अपनी दैहिक क्रियाओं का भी ज्ञान नहीं होता है, तो उसमें झूठ, छल, अनाचार, कपट, लूट-पाट जैसे कुविचार कौन भरता है? शिशु चाहे राजा के घर में उत्पन्न हो या डाकू के घर में उत्पन्न हो, बालक तो सब एक समान ही होते हैं। ये सारी दूषित मानसिक भावनायें उसके जीवन में कौन भरता है? कौन आनन्द व प्रेम से भरे बालक के मन में इस प्रकार की विचार धारायें भर देता है कि वह जीवन में श्रेष्ठ संस्कार, आचार-विचार छोड़कर मनुष्य जीवन में ही पशु की भांति हिंसक हो जाता है। जब हर व्यक्ति का दूसरे सांसारिक व्यक्तियों के प्रति अविश्वास, वैमनस्यता की भावना और वातावरण बनने लगता है, तब उसे जीवन में इन क्रियाओं का ज्ञान होने लगता है। उसमें आशा के विपरीत निराशा उभरती है, वृद्धि के बजाय जीवन में ठहराव लगने लगता है। तिनका-तिनका चुनकर बनाया गया अपना घोंसला छिन्न-भिन्न होता हुआ नजर आता है। जीवन ऊर्ध्वगामी होने के बजाय अधोगामि युक्त हो जाता है।
शिष्य अपनी वेदना को होठों से कहे या न कहे, किन्तु सद्गुरुदेव तो क्षण-क्षण अपने प्रत्येक शिष्य की मनोभावनाओं को पढ़ सा लेते हैं। सद्गुरुदेव का तो प्रत्येक प्रयास अपने शिष्य को उमंग और चेतना युक्त बनाने के लिये समर्पित सा होता है। अपनी उच्चतम स्थिति को त्याग, शिष्यों के स्तर पर उतर कर उनकी समस्याओं के समाधान के लिये पूज्यपाद गुरुदेव को जितनी वेदना सहनी पड़ती है, वह उनकी अपने शिष्यों के प्रति समर्पित हो जाने की कला नहीं तो और क्या कही जा सकती है? यदि कभी कोई शिष्य एक बार गुरु का ‘समर्पण’ समझ ले, तो फिर उसके मुख से स्वयं के समर्पण के प्रति कोई शब्द निकल ही नहीं सकता, लेकिन सद्गुरुदेव उसी प्रकार अपने शिष्य का प्रसन्नता से दमकता चेहरा देखकर अपनी वेदना को विस्मृत कर देते हैं, जिस प्रकार कोई सद्य-प्रसूता माँ अपने शिशु का चेहरा देख अपनी प्रसव वेदना को विस्मृत कर देती है। शिष्य सम्पूर्ण रूप से प्रसन्न बने, सम्पूर्ण रूप से वर्चस्व युक्त बने, गुरु का एक यही तो स्वप्न होता है। शिष्य की वृद्धि, शिष्य की वर्चस्वता में ही गुरु का सुख निहित होता है। किन्तु उसका वर्चस्व किसी पशुबल, दम्भ, या दमनकारी प्रवृत्ति पर आधारित न होकर देवत्व पर आधारित हो, उसके वर्चस्व में दया, करुणा प्रेम, ममत्व के तत्व घुले-मिले हों, इसलिये वे जो वर्चस्व प्रदान करते हैं वह ब्रह्म वर्चस्व होता है।
जिन्होंने गुरुपद का भावार्थ समझा होता है, जो शिष्य-तत्व की भावभूमि का साक्षात्कार कर चुके होते हैं, जो यह निश्चय कर लेते हैं, कि उन्हें अपने अस्तित्व को अपने गुरु में अत्यन्त तीव्रता से विसर्जित करते हुए अद्वितीय बनना ही है और जो सूक्ष्म बुद्धि से युक्त होकर यह समझने में सक्षम होते हैं, कि काल के ऐसे क्षण नित्य प्रति उपस्थित नहीं होते और न ऐसी दीक्षाओं को कोई मूल्य देकर खरीदा जा सकता है, वे निर्णयःअनिर्णय की स्थितियों में न उलझते हुए एक ही प्रवाह में अपने गुरुदेव से वह सब कुछ प्राप्त कर लेते हैं, जिससे उनका जीवन एक अनमोल हीरक खण्ड में परिवर्तित होते हुए सतरंगी आभा से युक्त हो जाता है।
सद्गुरुदेव सदाशिव स्वरूप भागीरथ ने तपस्या कर गंगा को विवश कर दिया कि वह हिमालय से उतर कर भारत में प्रवाहित हो। राजा भागीरथ के इसी प्रयास के कारण, तपस्या के कारण, गंगा को भागीरथी कहा गया। इस गंगा के पवित्र और तीव्र वेग को भगवान शिव ने ही अपनी जटाओं में धारण कर पूरे भारत वर्ष को आप्लावित किया। जहां एक ओर भगवान शिव पवित्र गंगा को धारण करने वाले हैं, वहीं दूसरी और भगवान शिव नीलकण्ठ महादेव भी कहलाये, जिन्होंने समुद्र मंथन के पश्चात उत्पन्न विष को अपने कण्ठ में धारण किया।
गुरु का कार्य भी भगवान शिव के समान ही होता है। शिष्य के सामने हजारों-हजारों दुख हैं और गुरु के समक्ष हजारों-हजारों शिष्य हैं। इन सब के दुख रूपी विष को अपने भीतर धारण करना गुरु का कर्त्तव्य है। अनादिकाल से ज्ञानरूपी सद्गुरु यही तो कार्य करते आए हैं। ‘सम्भ्वामि युगे युगे’ का तात्पर्य यही है कि जब-जब संसार में अज्ञान का अंधकार बढ़ेगा और ज्ञान का सूर्य अस्त होने लगेगा तो सद्गुरु किसी न किसी रूप में आकर संसार के अज्ञान को दूर कर, नवीन वातावरण, चेतनामय वातावरण का निर्माण अवश्य ही करेंगे।
इस शताब्दी का यह सौभाग्य है कि हमें सद्गुरुदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी महाराज जैसे महान सद्गुरु प्राप्त हुए जिन्होंने अपने जीवन में केवल और केवल ज्ञान का प्रकाश फैलाया, मंत्रों का उद्धार किया, तंत्र की पुर्नस्थापना की और जीवन में सिद्धाश्रम किस प्रकार स्थापित किया जाए इसका अद्भुत ज्ञान पूरे संसार को दिया। इस क्रिया में सबसे पहले आवश्यक है विखण्डन।
विखण्डन का तात्पर्य है जो कुछ भी रचना आपने कर रखी है अथवा जिस प्रकार से भी अपने आप को बनाया है वह शुद्ध नहीं है, पूर्ण नहीं है। संसार के दुखों की छोटी सी चोट लगते ही आपके जीवन में बनाया हुआ महल खण्ड-खण्ड हो जाएगा। आप अपने जीवन में हताश निराश हो जाएगें। इसलिए यह उचित है कि स्वयं इस कच्चे जीवन का विखण्डन कर स्वयं में ही नया जीवन निर्माण कर सकें।
आपके जीवन में ऐसी ही सतंरगी आभा स्थायी द्युति बनकर प्रकाशित हो सके। नूतन वर्ष का प्रारम्भ 1, 2, 3 जनवरी 2014 को त्रिवेणी भवन, व्यापार विहार, बिलासपुर, छतीसगढ़ में काल भैरव महामृत्युंजय शिव शक्ति साधना महोत्सव, महामृत्युंजय शिव शक्ति और ब्रह्म वर्चस्व शिष्याभिषेक दीक्षा से युक्त होगा। इस महोत्सव में हृदय से स्वागत है। यदि आप शिष्य हैं तो अवश्य ही आयेंगे और अपने जीवन को पूर्ण अमृतमय बनायेगें।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,