किसी भी कार्य में सफलता के लिये प्रथम और महत्त्वपूर्ण सूत्र है- मनुष्य का ‘आत्मविश्वास’ ज्यादातर ऐसा होता है कि हम किसी कार्य को करने में सक्षम होते है, परन्तु हमे अपनी क्षमता पर पूर्ण विश्वास नहीं होता। परिणाम में हमे असफलता प्राप्त होती है। कार्य के सम्बन्ध में आवश्यकता से अधिक चिन्ता और आशंका हमें विफलता की ओर धकेल देती है। वास्तविकता यह है कि हम सभी में भरपूर क्षमताएँ है एवं महानता के गुण विद्यमान हैं, परन्तु हममें दृढ़ आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति की कमी है। यही कारण है कि हम अपने लक्ष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप अपनी तैयारी नहीं पर पाते और चिन्ताग्रस्त हो जाते है। जिसके कारण हमें असफलता का सामना करना पड़ता हैं।
स्वयं की तुलना किसी से नहीं करना प्रकृति ने सबको एक-जैसा नहीं बनाया है। क्षमताओं के साथ-साथ हर किसी में कोई न कोई कमी तो रहती ही है। जब हम अपनी तुलना दूसरों से करते हैं तो ईर्ष्या की वृत्ति सहज ही उत्पन्न हो जाती है। इससे हमारा बहुत सारा कीमती समय और ऊर्जा व्यर्थ की चिन्ताओं में बेकार हो जाती है। ईर्ष्या व्यक्ति की आन्तरिक कमजोरी है। ईर्ष्या के कारण कभी हम अपने को अन्य से बेहतर और कभी कमजोर समझकर अपने आप को असक्षम बना देते है। जिससे मानसिक शांति नष्ट हो जाती है। अतः हमे अपना पूरा ध्यान अपनी क्षमताओं के विकास की ओर केन्द्रित रखना चाहिये।
एकाग्रता हमे लक्ष्य प्राप्ति के लिए एक सम्बन्ध स्थापित करती है जिससे हमारा काम भी आसान कर देती है। हमे उन वस्तुओं एवं परिस्थितियों से बचना चाहिये, जो हमारे लक्ष्य के प्रति हमारे ध्यान को भंग करती है, विराम के लिये सबसे अच्छा तरीका टहलना और सभी से प्रेमपूर्वक बातचीत करना है, जिससे नयी स्फूर्ति एवं उत्साह का संचार हो सके। विद्यार्थियों एवं परीक्षार्थियों के लिये खेलना, सिनेमा एवं टीवी देखना एकाग्रता को कम करता है। अतः जहां तक हो सके इनसे बचने का प्रयास करे।
हमे सदैव ध्यान में रखनी चाहिए कि हमारा लक्ष्य ऊंचा होना चाहिये ताकि बेहतर प्रदर्शन के लिये अच्छा प्रयास किया जा सके। यदि कभी किसी कारणों से परिणाम मन के अनुरूप न मिला तो यह संतोष तो मन में रहेगा कि हमने ऊंचे लक्ष्य के लिए अच्छा प्रयास किया। साथ ही हमारी दृष्टि सदैव सबकी सार्थक सेवा करने के ध्येय पर टिकी होनी चाहिये, तभी जीवन सुन्दर और पूर्ण बन पायेगा।
अपने भगवान और गुरु पर पूर्ण विश्वास व्यक्ति को अपने भगवान के कल्याणकारी स्वरूप एवं न्यायप्रियता पर अटूट विश्वास होना चाहिये। हम अपनी पूरी क्षमता के साथ लक्ष्य के प्रति समर्पित हो जायं और फिर जो भी परिणाम सामने आये, उसे स्वीकार करते हुए आगे बढ़े और आगे जो भी होगा वह भी हमारे हित में ही होगा। ऐसे कर्मशील भाव रहना चाहिए। गुरु करूणा के सागर होते है, उनका विधान मंगलमय है, वे कभी अहित नहीं होने देंगे, ऐसा दृढ़ विश्वास मन में होना चाहिये। भविष्य में जब हम अपने भूतकाल को सोचते है तो ज्ञात होता है, कि जो हुआ था अच्छा नहीं हुआ। परन्तु हमेशा हिम्मत के साथ आगे बढ़ना ही पुरूषार्थ की पहचान होती है। हमे जो असफलता या विपत्ति दिखलायी पड़ती है, वही हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित होती है जिसको हमने कभी सोचा भी नहीं था। बुद्धिमान व्यक्ति आशा को अपनी सहचरी बना कर रखते है। आशा और भगवान पर हमारा भरोसा हमें कभी असफल नहीं होने देता।
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