यही उनका आहवान है, संदेश है शिष्यों के लिये, उन्हीं की ओजस्वी वाणी में-
सदामेव चित्यं पापोत्मनांय परिपूर्णयक्षं सदाहं वदामि,
न जानामि केवं कदवं ने वेवं, ज्ञानो ही देवं गुरुत्वं ही देवं।
शंकराचार्य ने यह बहुत ही सुंदर श्लोक अपने जीवन में कहा है। सौंदर्य लहरी उनके द्वारा रचित एक अमूल्य ग्रंथ है और इस श्लोक में शंकराचार्य ने कहा है कि मैं न जाने किन जन्मों के संचीभूत पुण्यों से एक मनुष्य शरीर धारण कर पाया और फिर गुरु के समीप पहुंचा और अगर यदि मैं इस जीवन में भी पाप को एकत्र करता हुआ, पाप की कमाई एकत्र करता हुआ, पाप में लिप्त होता हुआ, कुतर्क में और दोष में लिप्त होता हुआ बढ़ता रहूंगा, तो यह जीवन निरन्तर दुःख पूर्ण बना ही रहेगा, वेदना बनी ही रहेगी। उनको दूर करने के लिए मैं जीवन पर्यन्त शिष्यवत बने हुए, उन पापों को समाप्त करने की क्रिया करूंगा तभी जीवन में श्रेष्ठता और दिव्यता प्राप्त हो सकेगी। उन्होंने अपने आप को शिष्य बताकर दूसरे शिष्यों को एक प्रेरणा दी है, एक चिंतन दिया है, ज्ञान दिया है, एक धारणा दी है और बताया है कि सब कुछ सुविधाएं होते हुए भी आदमी दुःख क्यों प्राप्त करता है?
आदमी दुख प्राप्त करता है क्योंकि उसके जीवन में पाप हैं और वे पाप छः प्रकार से या छः रूप में प्रकट होते हैं। पूर्वजन्म और पिछले सोलह जन्मों के पाप। वे जो पिछले सोलह जन्मों के पाप होते हैं वे छः प्रकार से इस जीवन में प्रकट होते हैं। जाने अनजाने में पाप, दोष, असत्य, न्यूनता हो सकती है, इस पर हमारा वश नहीं है। इनको समाप्त करने की कोई टैकनीक या विधि भी संसार में नहीं है। ये पाप अपने साथ ओढ़ा है तो उसे ढोना ही पड़ेगा, अगला जीवन फिर लेना पड़ेगा। या फिर इस जीवन में ही गुरु सेवा करते हुए वह ऋण चुकाना पड़ेगा और वह ऋण चुकाना पड़ता है पिछले जीवन के दोषों को समाप्त करने के लिए जिससे कि यह जीवन पूर्ण पवित्र और दिव्य बन सके। ये पाप छः रूपों में हमारे सामने प्रकट होते है और जो मैं शब्द पाप बोल रहा हूं उसका अर्थ है- पतितः इति पापः
जहां भी हम गिरते हैं, गिरने का अर्थ है – मन या कर्म या वचन या विचारों या भावनाओं या चिंतन से, उसे पाप कहते हैं और पाप समाप्त नहीं हो सकते। ऋण समाप्त नहीं हो सकते। जो पिता का कर्जा है वह मुझे स्वीकार करना ही पड़ेगा, उसे उतारना ही पड़ेगा, जब मैंने किसी का ऋण लिया है तो वह चुकाना ही पड़ेगा मेरे बेटों को। यह पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा है। पिछले सोलह जन्मों में यदि आपने चाहकर भी, न चाहकर, अपनी इच्छा से या दूसरों की प्रेरणा से या दूसरों की कुबुद्धि से अपने जीवन में जो पाप इक्कठा किया है वह इस जीवन में केवल गुरु पूजन से या गुरु साधना से या गुरु मंत्र जप से या गुरु सेवा से ही समाप्त हो सकता है।
वह पाप सामने आता है – एक कुबुद्धि युक्त संगति से। हम कैसे भी हों, मगर हमारी संगति अगर कुबुद्धि युक्त है तो वह कुबुद्धि अपने आप में पाप है। जिसकी तुम संगति कर रहे हो वह अगर पाप पुंज है, एक पाप का स्वरूप है तो उसकी संगति करने से आपके अंदर भी पाप व्याप्त होगा ही और वह पाप भी इस जीवन में आपको ढोना पड़ेगा और उसके परिणाम आपको भोगने ही पड़ेंगे। दूसरा पाप आपके रोग के द्वारा प्रकट होता है। पिछले जीवन के जितने पाप हैं वे रोग के माध्यम से प्रकट होते हैं और समाप्त होने की प्रक्रिया की ओर अग्रसर होते हैं। इसका तात्पर्य है कि जो पिछले जन्म के पाप हैं वे रोग के माध्यम से भी समाप्त होते हैं।
तीसरा कुतर्क के माध्यम से पाप प्रकट होते हैं। अगर पिछले जन्म के पाप हैं तो हरदम शंका और कुतर्क बने रहते हैं। यह क्या है, यह कैसा है? यह सही है या नहीं है? और फिर आप कुतर्क की ओर ज्यादा बढ़ते हैं। सेवा की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति फिर कम होती है। इसलिए अगर कुछ पाप हैं वे अगले जीवन में रहते ही हैं या इस जीवन में वे ऋण उतार दें तो इसी जीवन में वे समाप्त हो जाएंगे।
चौथे पाप प्रकट होते हैं पुत्र के रूप में। या तो पुत्र नहीं हो तो भी और पुत्र कुपुत्र हो तो भी इस रूप में पाप सामने आते ही हैं और उन पापों को इस जीवन में भोगना ही पड़ेगा।
पांचवा पाप प्रकट होते हैं मन के विकारों से। हम ऊपर से चाहे कितनी ही मधुरता से बोलें, गुरु शब्द का उच्चारण करें पर मन में यदि तर्क हैं, मन में यदि छल है, मन में यदि द्वेष है, मन में यदि गलत भावनाएं हैं, मन में यदि कुविचार हैं, ये भी पाप के ही पुंज हैं जो या तो धीरे-धीरे समाप्त होंगे या बार बार आपको गलत पापो की ओर धकेलेगे। आप गुरु शब्द मुंह से बोलेगे मगर आपके क्रिया कलाप में वही कुबुद्धि, वही कुविचार, वही तिकड़म बाजी, द्वैष, वही दूसरों को भड़काने की प्रवृत्ति है तो इस प्रकार से पाप आपके सामने खड़े ही रहते हैं, समाप्त नहीं हो सकते।
छठा और अंतिम जिस रूप में पाप प्रकट होते हैं वे हैं आपके जीवन की न्यूनताएं। आपके मन में यह इच्छा बनी रहती है कि यह भी प्राप्त हो, वह भी प्राप्त हो। सब इच्छाएं पूर्ण नहीं हो पातीं और जब सब इच्छाएं पूर्ण नहीं हो पातीं तो आपके मन में एक मलिनता, एक न्यूनता, एक रोष, कुबुद्धि, कुविचार, फिर से पैदा होते हैं। इच्छाएं अनंत हैं और इच्छाओं की समाप्ति हो ही नहीं सकती। जो इच्छाओं को समाप्त कर लेता है कि जो जीवन है वह अपने आप में परिपूर्ण है, प्रभु ने बहुत अच्छा जीवन दिया है, शरीर दिया है, अच्छा वातावरण दिया है, सूर्य दिया है, पक्षियों की चहचहाहट दी है, गुरु दिया है, गुरु का पूजन दिया है, एक सद्विचार दिया है, सद्प्रेरणा दी है। यदि इसी को आप सही मान लें तो यह एक अच्छा चिंतन है और न्यूनता मान ले कि मेरे पास यह नहीं है, वह नहीं, मुझे यह काम करना है, वह काम करना है तो यह आपके मन की न्यूनता है। यह न्यूनता आपके सामने खड़ी होती है और वह मन में तर्क, दुःख, पीड़ा के रूप में आपके जीवन में आती है।
न तो कोई आपके काम आता है, न आप किसी के काम आ सकते हैं। न पुत्र आपके काम आ सकता है, न पिता काम आ सकता है, न मां आपके काम आ सकती है। यदि आपको तकलीफ है तो आपको ही भोगनी पड़ेगी। आपकी मां या आपके पिता नहीं भोग सकते। आपका सुख है तो आप ही भोगेंगे। आपके मां या पिता नही भोगेंगे। आपका असत्य और न्यूनता आप ही भोगेंगे। आपके कुविचार आप ही भोगेंगे। यानि जो कुछ आप कर रहे हैं, वह आप ही भोगेंगे। इसलिए शंकराचार्य ने कहा है – न तातो न माता, न बंधु न भ्राता उसके पीछे उनका तर्क यही था कि हम जो कुछ कर रहे हैं, जो फसल बोएंगे वही हमें प्राप्त होगा। बबूल बोएंगे तो कांटे ही उगेंगे और वे कांटे हमारे पैर में चुभेंगे। कल जब वह पेड़ बड़ा होगा तो वह कांटे हमारे पैरों को छेदेंगे। आज हमें पता नहीं पड़ रहा है, परन्तु कल ऐसा होगा ही और अगर हम गुलाब के पौधे लगायेंगे तो तब गुलाब के पुष्प उगेंगे तो हमारे जीवन में पंखुडि़यां व्याप्त होंगी और हमारा जीवन सुगंधित और सुरक्षित हो सकेगा। इसलिये यह जानना आवश्यक है कि हम अपने जीवन को किस जगह स्थापित कर रहे हैं, किस प्रकार से अपने कार्यो को सम्पन्न कर रहे हैं। और ये सोलह जन्मों के पाप गुरु सेवा और गुरु साधना से ही समाप्त हो सकते हैं, चाहे मैं हूं,, चाहे आप हैं, चाहे कोई हो।
यह बात व्यक्ति नहीं समझेगा तो यह पाप पुंज समाप्त भी नहीं होगा। जब व्यक्ति को गुरु नहीं प्राप्त हो पाता तो यों समझिये कि उसके पिछले पाप घनीभूत होकर सामने खड़े हो गए हैं। अधिकतर व्यक्तियों को गुरु नहीं मिलता और मिलता है तो ये पाप धनीभूत होकर सामने खड़े हो जायेंगे और आप उस गुरु को पहचान नहीं पायेंगे। गुरु को पहचान भी लिया तो भी पाप पुंज सामने खड़ा हो जाते है और हमारे मन में कुतर्क पैदा हो जाता है और कुतर्क पैदा होने पर हम पाप की ओर प्रवृत्त होंगे ही होंगे। फिर हम इस जीवन में भी पाप एकत्रित करते रहेंगे, फिर हमें जन्म लेना पड़ेगा और फिर हमें इस जीवन के दुःख ज्यों के त्यों भोगने पडेंगे, अगला जीवन सुधर नहीं सकता। और अगले जीवन का अर्थ है आने वाला वर्ष या आने वाला समय। मृत्यु के बाद में जो जीवन प्राप्त होगा वह तो आप न देख रहे हैं न देख पायेंगे। पिछला जीवन भी आपने नहीं देखा है इसलिए आप सही से नहीं कह सकते कि पिछले जीवन मे आपने क्या किया। मगर वर्तमान में आप भोग रहें हैं दुख, तो इसका मतलब आपने पहले कुछ पाप किया है और अभी जो आप कर रहे हैं अगर अच्छा कुछ कर रहे हैं या गुरु सेवा या साधना कर रहे हैं तो उससे वे पाप समाप्त होंगे ही और आपका अगला जीवन अपने आप में अच्छा होगा।
शिष्य एक शब्द है, है तो वह मनुष्य ही। अब वह शिष्य है या अशिष्य है वह तो उसकी खुद की सोचने की बात है। वह जो करता है वह पाप है या पुण्य है वह व्यक्ति खुद सोचे। वह तार्किक है या कुतार्किक है वह खुद सोचे। वह सेवा कर रहा है, या असेवा कर रहा है, वह खुद सोचे। हम अपने पापों को बढ़ावा दे रहे हैं या पापों को समाप्त कर रहे हैं वह खुद सोचे। वह खुद सोचे कि मैं गुरु की सेवा में रत हूं या गुरु को दुःख दे रहा हूं या वेदना दे रहा हूं। गुरु तो अपने होठों से या शब्दों से कभी व्यक्त करेगा ही नहीं कि मुझे तुमसे दुःख मिल रहा है। वह तो सबको समान भाव से देखता हुआ मन ही मन शिष्यों के भावी भविष्य को विचारता हुआ भी निरन्तर आगे बढ़ता ही रहता है और जो कुछ गुरु को अपने जीवन में कार्य मिला है उसका समापन करता हुआ फिर किसी अन्य लोक में जाकर के कुछ और कार्य करना प्रारम्भ कर देता है।
इसलिए शंकराचार्य ने उस श्लोक में कहा है कि ऐसे गुरु से मिलने का अर्थ है कि कुछ पिछले जन्मों के पुण्य उदय हो गए हों और अगर व्यक्ति ऐसे गुरु से मिलकर भी यदि अपने जीवन की दिशा को नहीं बदलता तो उसके पाप और बढ़ते ही चले जाते हैं और आपके ही नहीं आपके पूर्वजों के भी पाप सामने आते ही हैं। जब विभीषण ने राम से पूछा कि यह जो आपके सामने खड़ा है दश शीश लिए हुए, बीस भुजाएं लिए हुए यह क्या है? तो राम ने कहा – रघु से लगाकर आज तक जो रघुवंश के पाप हैं, उन पापों का पुंज मेरे सामने खड़ा है इस रावण के रूप में और उस पाप के पुंज को समाप्त करने के लिए मैं उद्यत हूं और उस पाप के पुंज को भोगते हुए मुझे अपनी पत्नी सीता के बिछोह को सहन करना पड़ा। इस पाप पुंज के कारण ही मेरा भाई लक्ष्मण आज मूर्छित है, उस दुःख को भी मैं सहन कर रहा हूं और उस पाप के पुंज के कारण ही जो रावण तीर छोड़ रहा है, जो मेरे शरीर को बींध रहे हैं उनको भी मैं सहन कर रहा हूं क्योंकि इस जीवन में ही मुझे ये पाप समाप्त कर देने हैं। ये मेरे पाप नहीं हैं, ये रघुवंश के पाप हैं। मुझसे पहले आठवीं पीढ़ी से लगाकर अब तक के पाप रावण बनकर मेरे सामने खड़े हैं।
आपके सामने भी ठीक ऐसी ही क्रिया है। आपकी संगति, आपकी धारणा, आपके विचार, आपकी न्यूनता, आपके मन का घटियापन वे पाप पुंज बनकर ही आपके सामने खड़े होते हैं और आप अपने आपको ज्यादा बुद्धिमान, ज्यादा योग्य, ज्यादा चतुर समझते हैं और ऐसा समझते हुए तो आप अपने पापों की वृद्धि कर रहे हैं और कुछ नहीं। और फिर एक दिन ऐसा आयेगा जब वे पाप पुंज बनकर के आपके सामने खड़े होंगे। उस समय आपके पास पश्चाताप के अलावा कुछ रहेगा ही नहीं और आपका पूरा जीवन अपने आप में व्यर्थ चला जाएगा। शंकराचार्य भी एक सामान्य आचार्य बनकर के अपने जीवन में धन, यश, मान, पैसा, पुत्र प्राप्त कर सकते थे, मगर उन्होंने उस रास्ते को चुना, जिस पर चलने की गुरु ने आज्ञा दी और उस गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए वे निरन्तर अग्रसर होते रहे। उन्होंने कहा – मुझे अपने विषय में, अपना काम, अपना चिंतन कुछ सोचना नहीं है। मैं इस जीवन में सोच भी नहीं सकता। मैं उस जगह पहुंच भी नहीं सकता जहां गुरु हैं, उनके विचारों को समझ भी नहीं सकता। मैं उनको पूर्ण रूप से हृदय में स्थापित कर ही नहीं सकता क्योंकि यह शरीर तो अपने आप में मलिन है, पाप युक्त है। जिसमें थूक है, लार है, मज्जा है, विष्टा है, मूत्र है, हड्डियां हैं, नाडि़यां हैं और इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो अपने आप में सुगंधित हो, जहां अपने गुरु को स्थापित कर सकूं, आसन हो जहां अपने गुरु को स्थापित कर सकूं। जब आसन ही नहीं है तो गुरु स्थापित होंगे कहां? और जब गुरु हृदय में स्थापित नहीं हो सकते तो जीवन का मूल्य ही क्या है। फिर तो एक ढोंग के रूप में गुरु की पूजा कर रहा हूं। इससे अच्छा है कि मैं पुत्र उत्पन्न करने की अपेक्षा, धन कमाने की अपेक्षा, दूसरा रास्ता चुनूं जिस रास्ते पर एक पवित्रता है, एक दिव्यता है, हो सकता है कि जीवन के अंतिम समय में कुछ ऐसा घटित हो जाए कि आने वाली पीढि़यों के लिए मैं आदर्श बन सकूं, आने वाली पीढि़यां मेरा चिंतन कर सकें।
और उन्होंने उस दूसरे रास्ते को पकड़ा। वह उनका जीवन एक दूसरे प्रकार का जीवन था, दूसरे प्रकार का युग था आज के युग से एक अलग है। मगर चाहे त्रेता युग हो, चाहे द्वापर युग हो, चाहे कलियुग हो समाज वैसे का वैसा ही है। उस समाज में कोई अंतर नहीं आया है। दशरथ ने भी पाप पुंज एकत्र किए और इतने एकत्र किए कि अपने बड़े पुत्र के हाथ से अग्निदाह भी नहीं प्राप्त कर सका। मृत्यु के समय बडे़ पुत्र को अपने पास रख नहीं सका और उसकी आत्मा मृत्यु के बाद भटकती ही रही। वे अपने आप में पूर्ण रूप से मुक्ति को प्राप्त हो ही नहीं सके और कई कई जन्मों तक प्रेत योनि में उनको भटकना पड़ा, भले ही वे राम के पिता थे। जीवन के दोनों ही रास्ते आपके सामने खुले हैं या तो आपका वह रास्ता है जिस पर चल कर और पाप एकत्र करके आप इस जीवन में मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे और पाप आपको फिर गलत रास्ते पर ही अग्रसर करेंगे। फिर अगला जीवन होगा, फिर सद् विचार कुछ क्षणों के लिए आएंगे और फिर आप पर कुविचार हावी हो जाएंगे और आप सोचेंगे कि इससे क्या फर्क पड़ता है, चलो ऐसा कर ही लो, चोरी कर लो, थोड़ा झूठ बोल लो, थोड़ा छल कर लो, थोड़ा असत्य बोल लो, थोड़ा गुरु को नुकसान पहुंचा दो, थोड़ी गुरु की आज्ञा का उल्लघंन कर दो, गुरु के सामने झूठ शब्द का उच्चारण कर लो। ये कुविचार आप पर हावी होकर आपके पाप की वृद्धि करेंगे ही और कोई न कोई फिर रावण बनकर के आपके सामने खड़ा होगा और आपको तीरों से छिदना पड़ेगा। जगह जगह तीर लगेंगे और आपको गिरना पड़ेगा, चाहे भीष्म हो, चाहे द्रोणाचार्य हो, चाहे अश्वथामा हो, चाहे और कोई हो।
मैं तो केवल शंकराचार्य के चिंतन को इस श्लोक के माध्यम से स्पष्ट कर रहा हूं, उनका चिंतन क्या था। हम जीवन में क्या करें हमें कुछ पता नहीं है। हम वही कर रहे हैं जो समाज हमें धकेल कर करा रहा है, कुबुद्धि हमें करा रही है, हम थोड़ा सही सोचते हैं, फिर कुबुद्धि हम पर हावी हो जाती है। फिर सोचते हैं कि नहीं हमें गुरु के बताए रास्ते पर चलना ही नहीं है। हमें तो केवल दो राह का जीवन जीना है- एक जीवन जिसमें गुरु को केवल प्रसन्न करने के लिए एक चेहरा बना कर उनके सामने खड़ा होना है। एक जीवन जिसमें अपने स्वार्थ की पूर्ति करते रहना है और दोनों तरह का जीवन जीते हुए आप पाप पुंज एकत्र कर रहे हैं।
और वह पाप कभी पुत्र के रूप में खड़ा होता है, कभी रोग के रूप में सामने खड़ा होता है, कभी कष्ट के रूप में सामने खड़ा होता है और पाप कभी अकाल मृत्यु के रूप में आपके सामने आकर खड़ा होगा। होगा तो जरूर पर हम उसको समझ नहीं सकते, समाप्त नहीं कर सकते और गुरु उस सब को समझता हुआ शिष्यों को धीरे-धीरे उस पथ पर अग्रसर करता है जो प्रकाश का रास्ता है। फिर शिष्य भटकता है, फिर गुरु उसे सही रास्ते पर खड़ा करता है। हम इस जीवन मे गुरु को समझ ही नहीं पाते, जब समझ ही नहीं पाएंगे तो हृदय में स्थापित भी नहीं कर पाएंगे। हृदय में तो स्थापित तब हो पाएंगे जब बिल्कुल जनवरी’ 2014 एक भावना होगी कि मेरे जीवन का प्रत्येक क्षण गुरु की सेवा में व्यतीत होना चाहिए, उसमें चाहे नुकसान उठाना पड़े या लाभ उठाना पड़े। नुकसान, लाभ तो केवल शब्द हैं। न जीवन में कुछ नुकसान होता है, न लाभ होता है। क्या नुकसान हो सकता है? शंकराचार्य को क्या नुकसान हुआ? विश्वामित्र को क्या नुकसान हो गया? वशिष्ठ को क्या नुकसान हो गया? कृष्ण को क्या नुकसान हो गया? यह तो एक भावना थी।
कृष्ण थोड़ा कंस के हाथ पांव जोड़े लेते तो वहीं रह सकते थे। उसमें कोई बहुत बड़ी बात थी नहीं या थोड़ा सा वासुदेव का और दूसरे राजाओं का अपमान सहन कर लेते तो मथुरा में राज्य करते रहते। मगर वह उनके जीवन का चिंतन नहीं था। हृदय से आग, हृदय से एक चिंतन निकला था कि मुझे ऐसे मलीन रास्ते को पार करना है। केवल गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए एक नवीन चिंतन देना है। तभी वे कृष्ण बन सके या राम बन सके या महावीर बन सके या चैतन्य बन सके। ये आपके सामने दोनों रास्ते हैं। यह गुरु जन्म दिवस का पर्व है और हम अपने पापो को एक साथ, इतने जन्मों के पापो को संचित करके गुरु के चरणों में समर्पित कर दें और उन पापो को हमेशा के लिए समाप्त कर दें और यह पाप कैसे समाप्त हो सकते हैं यह गुरु ही बता सकता है। गुरु तब बता सकता है जब आप बिल्कुल शिष्यवत यह चिंतन करें कि मेरा प्रत्येक क्षण गुरु चरणो में ही व्यतीत हो, गुरु की सेवा में ही व्यतीत हो। गुरु कौन सी आज्ञा दे रहे हैं, क्यों दे रहे हैं, यह हम समझ नहीं पायेगे। इसलिए समझ नहीं पायेगे क्योंकि आप और गुरु अलग-अलग हैं। गुरु एक दूसरी चीज हैं आपके सामने, आपसे अलग हैं। जब तक यह डिफरेंस, यह गैप आपके बीच रहेगा तब तक आप गुरु को पूर्ण रूप से हृदय में स्थापित नहीं कर पायेगे। नहीं स्थापित कर पायेगे तो पवित्र भी नहीं हो पायेगे, आपका चिंतन शुद्ध नहीं हो पायेगा। फिर आप में कुबुद्धि पैदा होगी ही होगी और आपके सामने गुरु हैं उनको ही आप फिर धोखा देंगे। जो सामने खाने की चीज होगी वही खायेगे। आपके सामने गुरु हैं आप उसे ही धोखा देंगे, उसके साथ विश्वासघात करेंगे, उसके साथ छल करेंगे, उसके साथ झूठ बोलेंगे क्योंकि गुरु तुम्हारे सामने है। वह सामने है इसकी अपेक्षा वह आपके हृदय में स्थापित हो और स्थापित तब हो पायेगे जब अन्दर पवित्रता बने। अपवित्रता के ढेर पर गुरु स्थापित नहीं हो सकेंगे। अपवित्रता के ढेर पर तो कुविचार स्थापित हो सकेंगे, कुबुद्धि स्थापित हो सकेगी, गंदगी स्थापित हो सकेगी और वह गंदगी उन लोगों को मुबारक है जो ऐसा चाहते हैं, और करोड़ों लोग ऐसे हैं करोड़ों लोग रावण हैं, करोड़ों लोग कंस हैं।
राम तो एक ही पैदा हुए। पूरे त्रेता युग में एक ही राम हुए-हजारों राम तो नहीं हुए। द्वापर में एक ही कृष्ण पैदा हुआ, हजारों नहीं पैदा हो सके, बाकी तो दुर्योधन, दुशासन और कौरव थे जो पाप के पुंज थे। गलत रास्ते पर भटकाने वाले तो करोड़ों पैदा होंगे। आप उनके साथ भटकें या आप अपने आप में ही अद्वितीय व्यक्त्वि बन सकें यह तो आप पर निर्भर हैं। यह तो जीवन की श्रेष्ठता है कि अपने आपको गुरु में पूर्ण रूप में लीन कर सकें। जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी। मैं अगर जल हूं क्योंकि घड़े के अंदर हूं, समुद्र का पानी अलग है क्योंकि वह घड़े के बाहर है और बीच में एक मिट्टी की दीवार है- फूटा कुंभ जल जल ही समाना। ज्योंहि यह घड़ा फूट जाएगा तो इस पानी और उस पानी में मिलाप हो जाएगा। यह तथ कहा ज्ञानी। उस ज्ञानी गुरु ने कहा कि जब तुम इस बीच की दीवार को तोड़ दोगे, जब यह विचार छोड़ दोगे कि मेरे सामने गुरु खड़े हैं और जिस क्षण यह विचार मन में आ जाएगा कि मेरे हृदय में स्थापित हैं और हृदय शुद्ध पवित्र है और बाहर का कोई दूषित तूफान आपको विचलित नहीं करे- ऐसी स्थिति आपकी बने, आप प्रज्ञावान बनें, कृष्णमय बनें, राममय बनें तब आपके जीवन के सारे पाप समाप्त हो सकेंगे। अन्यथा गुरु अपने रास्ते पर गतिशील रहेगा और आप पीछे रह जाएंगे। गुरु तो आगे बढ़ जायेगा क्योंकि इस शरीर के समाप्त होने की क्रिया तो है ही, यह एक दिन समाप्त होगा ही, जीवन के क्षण तो समाप्त होंगे ही। फिर यह आपका चिंतन है, आपकी भावना है, आपकी धारणा है कि आप गुरु सेवा करें या स्वार्थमय होते हुए अपनी खुद की सेवा करें, या अपने पापों को बढ़ाते रहें या अपने पुण्यों का उदय करें या अपने स्वार्थ की पूर्ति करें या गुरु के कार्यों को सम्पन्न करें।
अब त्याग वृत्ति आपमें है तो आप ऐसा कर सकेंगे और अत्याग है, स्वार्थ है, मोह है तो अपने पापों को ही एकत्र करते रहेंगे। आप कुछ भी करें गुरु कुछ नहीं कहेगा। गुरु तो केवल एक द्रष्टा है, वह संकेत कर देता है। गुरु की दिव्यता आपके हृदय में प्रकाश बन कर उभरे, आपकी आंखों में आसू हों क्योंकि आंसू ही पापो के बाहर निकलने की क्रिया है। अंदर जो भी दुख हैं, दरिद्रता है, कष्ट हैं, पीड़ा है, पूर्व जन्म के पाप हैं वे सब आंसूओं के माध्यम से ही बाहर निकल सकते हैं। जब गुरु साधना, गुरु चिंतन के समय आंख में आंसू नहीं होते तो समझ लेना चाहिए कि मेरे अंदर कुत्सित विचार, कुतर्क और कुबुद्धि है। वे अश्रु गुरु के चरणों में प्रक्षेपित हों तब हम अंदर से पूर्ण पवित्र बन सकेंगे और जैसे एक बछड़ा गाय को देखकर, अपनी मां को देखकर दौड़कर उसके थनों से लिपट जाता है, उसी प्रकार शिष्य के मन में गुरु से हुलस करके मिलने की भावना होनी चाहिए और जब ऐसा होता है तो जिस प्रकार से एक चिडि़या अपने पंख फैला करके अपने अंडों को और बच्चों की रक्षा करती है तो ठीक उसी प्रकार से गुरु अपने शिष्यों को गोद में लेकर के उनकी रक्षा करने के लिए तत्पर हो जाता है।
अच्छे विचार और अच्छे चिंतन आपके मन में उदय हों, मैं ऐसी इच्छा करता हूं। मैं चाहता हूं कि एक प्रकाश आपके सामने उदय हो, एक स्वच्छ भावना अंदर हो, चौबीस घंटे एक चिंतन हो और अपने को पवित्र बनाकर के आप ऐसा कार्य कर सकें कि आने वाली पीढि़यां विश्वामित्र, शंकराचार्य, वशिष्ठ, कृष्ण और राम की तरह आपको याद रख सकें, दशरथ की तरह प्रेत बनकर न भटकें, वसुदेव की तरह दुखी दरिद्री जीवन न हो। जितना वसुदेव का दुखी जीवन बीता किसी का बीता नहीं। यौवन में वे बेडि़यों में कैद रहे और कृष्ण के जाने के बाद वे दुःख दरिद्रता भोगते रहे और वे कृष्ण के पिता थे! पिता अपने पाप भोगेगा, आप अपने पाप भोगेंगे। आप अपने पुण्य भोगेंगे, पिता अपने पुण्य भोगेंगे। इसलिए यह कहा है। न तातो ना माता—— हमारा कोई है नहीं, है केवल स्वार्थ युक्त। जब हम मृत्यु को प्राप्त होते हैं तो सब एक किनारे खड़े हो जाते हैं, हम अकेले ही जाते हैं। रोग होता है तो हम अकेले भोगते हैं, पति नहीं भोगता, बेटा नहीं भोगता है। हमारे मन में उत्साह है, हम ही भोगते हैं। यह जीवन का सौभाग्य होता है कि एक जीवित जाग्रत गुरु आपको प्राप्त हो। हो और आप उनकी सानिध्यता प्राप्त करें, उनके जीवन के कार्यों को अपने ऊपर ले, उनकी चिंताओं को समाप्त करें। यद्यपि गुरु अपनी चिंता, अपना दुख देता नहीं है, फिर भी कोशिश करें कि उनका कार्यभार कम हो। अपने स्वार्थ को त्याग कर, अपनी कुबुद्धि, कुतर्क और रक्त में जो न्यूनता सोलह जन्म से आ गई है, उसको त्याग कर गुरुमय बनें और ऐसा नहीं होगा तो आप कितना ही गुरु के पांवों को रगड़ कर धोये आप विश्वामित्र या शंकराचार्य नही बन सकेगे। फिर आपका जीवन वैसा ही होगा जैसा रावण का है, कंस का है, दूसरे लोगों का है और फिर वृद्धावस्था तकलीफ देगी ही देगी। फिर पाप एकत्र होंगे ही होंगे। हो सकता है जो मैं आपसे कह रहा हूं, जो चिंतन दे रहा हूं वह आप समझ नहीं पाएं क्योंकि वेद व्यास ने कहा है- पूर्णा सदा पूर्ण सदैव चिंत्यं देहोन्वतावै परिपूर्ण नित्यं कृष्ण स्वरूपं भवताप नेत्रं विचित्यं सदेहं पापं परेम्यं। वेद व्यास ने कहा है- जब हम यही समझेंगे कि मैं श्रेष्ठ हूं तो फिर अंदर दूसरी चीज, दूसरा चिंतन नहीं आ सकता। गुरु का उपदेश नहीं आ सकता तो फिर यह गुरु की मूर्खता है कि वह उपदेश दे। वह शिष्य की न्यूनता है कि वह गुरु की बात को हृदय में उतारे ही नहीं। वेद व्यास ने कहा कि कृष्ण की गीता को समझने में तो कई हजार वर्ष लग जायेगे। कोई ज्ञान हृदय में उतर नहीं सकता जब तक अहं का व्यक्ति विसर्जन न कर दे। अहं के विसर्जन का अर्थ है अपने आप को समर्पित कर दे और समर्पण तब होगा जब यह अंहकार की भावना नहीं होगी कि मैं गुरु की सेवा कर रहा हूं, या मैं सुन्दर हूं या मैं कार्य कर रहा हूं।
यह कोई कार्य नहीं कर रहे। कृष्ण ने कहा है। क्रियामाणाय वही रूपं चिंत्य प्रेत वदेम्यतः जो आदमी काम करने के बाद सोचता है कि यह काम मैंने किया है वह प्रेत है और अगर प्रेत है तो उसमें और एक मनुष्य में करोड़ों मील का अंतर है क्योंकि वह तब तक मनुष्य बन ही नहीं सकता और जब मनुष्य नहीं बन सकता तो फिर देवता या महापुरूष बनना तो बहुत दूर की बात है। इतना आसान नहीं है। कृष्ण ने कहा- राधा तुम अपने आप को पूर्ण रूप से विसर्जित कर दो कि तुम हो ही नहीं। और अगर तुम हो ही नहीं फिर तुम्हारे कौन से आंसू हैं, कौन सा विरह है, तुम अगर अपने को लीन नहीं कर पाओगी तो मुझे प्राप्त भी नहीं कर सकती। अगर मीरा अपने को लीन नहीं करती तो फिर महल से नीचे नहीं उतरती। वह सौ बार सोचती कि लोग क्या कहेगे, मेरे घर वाले क्या कहेगे, तो मीरा नहीं बन पाती। फिर राधा नहीं बन पाती, लीन नहीं होते तो सूर और कबीर नहीं बन पाते, तुलसी नहीं बन पाते। और आप अद्वितीय नहीं बन पाएं तो आप फिर साधारण प्रेम लाल हैं, गोकुल चंद या हरिलाल हैं। और आप प्रेत योनी में जिंदा रहते हुए समाप्त हो जायेगे। हम ऐसे ही समाप्त हो जाते हैं। आप जीवन के प्रत्येक क्षण का आनंद ले ही नहीं पाओगे, जब तक कि अपने की विसर्जित करके गुरु के भावों के अनुरूप नहीं बन जाते। आखिर गुरु ने कोई ज्ञान प्राप्त किया है तो उसने अहं का विसर्जन किया होगा। एक नीम का पेड़ है तो वह आज से पांच-सात साल पहले एक छोटा सा बीज था। उसने अपने आपको विसर्जित किया, जमीन में गड़ गया। अगर नहीं गड़ता तो नीम का पेड़ नहीं बनता, उसके नीचे बीस लोग नहीं बैठ पाते। आप सोचेंगे कि मेरी वजह से यह काम हो रहा है, तो सोचें कि आपके बाद कौन करेगा?
कार्य कोई रूकता नहीं। आप नहीं होंगे तो भी होगा। इसलिए यह अहं बेकार है कि मैं कर रहा हूं। हां यह जरूर है कि एक व्यक्ति की पूर्ति दूसरे से नहीं हो सकती। कृष्ण की पूर्ति किसी और व्यक्तित्व या चैतन्य से नहीं हो सकती। चैतन्य भले ही कृष्ण में लीन रहे हों मगर कृष्ण की प्रतिमूर्ति नहीं बन सकते। एक व्यक्ति एक बार ही पैदा होता है और वह अपने आप अलग इकाई है। ठीक उसी प्रकार गुरु भी अपने में अलग इकाई है। यह अलग बात है हम गुरु को देखते और सुनते हैं, उनको हृदय में उतारने की क्रिया हमारे जीवन में आती ही नहीं। जब उनके शब्दों को हृदय में उतारेगे ही नहीं तो फिर उनको सुनने का फायदा भी नहीं। हम गुरु को जीवन में उतारेंगे तो एक एहसास होगा, एक सुंगध होगी। शरीर से सुगंध प्रवाहित होगी, फिर मल मूत्र युक्त देह सुवासित बन सकेगी, फिर जीवन में आनंद प्राप्त हो सकेगा। अगर जीवन में आनन्द नहीं आ पाया तो तुम जैसे प्रेत योनी में जी रहे हो वैसे ही जीते हुए समाप्त हो जाओगे और देह समाप्त होने के बाद भी तुम प्रेत योनी में भटकते रहोगे। फिर कहीं भी जन्म ले लोगे। मगर तुम्हारे हाथ में नहीं होता कुछ। तुम किसी योनी में भटक रहे थे और किसी भी घर में तुमने जन्म ले लिया-जो भी गर्भ उस समय उपलब्ध था उसमें तुमने जन्म ले लिया। तुम्हारे हाथ में था नहीं।
मगर गुरु के मिलने के बाद भी अगर तुम्हारे हाथ में नहीं है कि तुम कहां जन्म लो तो यह तुम्हारी न्यूनता है और तुम्हारे हाथ में यह भी नहीं है कि मैं जन्म लूं या नहीं लूं तो यह भी तुम्हारे हाथ में नहीं है। यह बहुत बड़ी चीज है जो तुम्हें मिल सकती है-कि तुम्हें जन्म लेना है या नहीं लेना है और लेना है तो किस गर्भ से जन्म लेना है। और नहीं लेना है तो इस शरीर के समाप्त होने के बाद कहां निवास करना है। ये निर्णय तुम नहीं कर पाते, और नहीं कर पाते तो यह निर्णय गुरु कर पायेगा। और तुम यह क्षमता प्राप्त नहीं कर पाते तो तुम्हारे जीवन की उपलब्धि क्या रही। तुम वैसे ही छल छदम से परिपूर्ण रहे जैसे पहले थे क्योंकि तुमने अपने अहम को गलित किया ही नहीं। तुम सोचते हो यह कार्य मैं करता हूं। जहां यह मैं आया तब तुम गुरु से दूर हो गए। जब आप अपने को पूर्ण समर्पित कर लोगे तो यह भाव नहीं रहेगा मैं यह कर रहा हूं।
वेद व्यास ने कहा है- वह जीवन क्या काम का है जिसका तुम आनंद नहीं ले सकते। और आनंद नहीं ले सकते फिर जीवन का हेतु की क्या है। ऐसा कौन सा क्षण आएगा जब आप एहसास करेंगे कि मुझे इसी जीवन में आनंद की प्राप्ति करनी है। तुम अपने मां, बाप, भाई, बहन के बारे में चिंता करते रहते हो, तुम यह चिंता करते ही नहीं कि मुझे आनंद कैसे प्राप्त हो। क्या वे तुम्हारी चिंता करते हैं? और करते हैं तो चिंता करके तुम्हारा क्या हित कर दिया? कबीर को उठा कर एक कुंवारी लड़की ने कूड़े के ढेर पर फेंक दिया और वह एक जुलाहे के घर पहुंच गया क्योंकि उस लड़की को समाज से भय था। यह चिंता थी कि लोग मुझे बदनाम कर देंगे। तो ऐसा हो भी गया तो कबीर का क्या बिगड़ गया। कबीर के अंदर बीज रूप में एक गुलाब था। वह अपने आप विकसित हो गया। उसको विकसित करने के लिए महल, या शिक्षा या ज्ञान की जरूरत नहीं पड़ी। जुलाहे के घर में भी रहकर कबीर बन गया। न मां बाप तुम्हारा निर्माण करते हैं, न मेरा निर्माण किया है। उन्होंने तुम्हें जन्म दिया है और वास्तव में तो उन्होंने तुम्हें जन्म नहीं दिया है। उन्होंने केवल एक मनोरंजन किया और तुम्हारा जन्म हो गया। कोई उनका प्लान नहीं था। जब तक आप परिवार के बंधन से जकड़े रहेगे तब तक जीवन का निर्माण नहीं हो सकता। यदि गांधी चिंता करते रहते कि मेरे बेटे क्या बनेगे मैं उनकी चिंता करूं, तो वे महात्मा गांधी नहीं बन पाते, फिर उन्हें राष्ट्रपिता नहीं कहते। वे गांधी इसलिए बने क्योंकि उन्होंने इस बात की चिंता नहीं की। जो बनता होगा। तुमने बच्चों को घिसना शुरू कर दिया, दबाना शुरू कर दिया तो तुम्हारे जीवन का आनंद कहां गया।
जब तक तुम्हारे अंदर त्याग वृत्ति नहीं आ पायेगी तब तक आनंद नहीं प्राप्त होगा और त्याग कठिन क्रिया है। दुनिया में सबसे कठिन काम है अपने अहं को गलाना, अहम् गलेगा तो त्याग पैदा होगा, त्याग होगा तो समर्पण होगा। ये क्रियाये कठिन हैं। मगर ये क्रियाये नहीं है तो आप अपने रास्ते हैं, मैं अपने रास्ते हूं। फिर तुम्हारा जीवन नहीं बदल सकता। जब तक तुम अपने आपको नहीं बदलोगे कोई तुम्हारे जीवन को बदल नहीं सकता, कृष्ण भी नहीं। अगर कृष्ण में जीवन बदलने की क्षमता होती तो दुर्योधन को बदल देते, दुशासन को बदल देते। जब द्रौपदी का चीर हरण हो रहा था और वह चिल्लाई भीष्म के सामने कि आप पितामह हैं और दुशासन मेरा चीर खींच रहा है, आप क्या कर रहे हैं? तो भीष्म ने आंख नीची कर ली। द्रौपदी ने अर्जुन से कहा- तुम्हारे धनुष की टंकार से सब हिल जाता है तुम कुछ करो। तो अर्जुन ने भी आंखे नीची कर ली। धर्मराज युधिष्ठिर ने भी आंखे नीची कर लीं। तो रूक्मणी ने कृष्ण से कहा- आप क्या कर रहे हैं? कृष्ण ने कहा- उसने मुझे आवाज ही नहीं दी तो मैं क्या कर सकता हूं? वह तो दूसरों को आवाज दे रही है। और जैसे ही द्रौपदी ने कहा- कृष्ण आप मेरी लाज बचाइए। तो कृष्ण ने तत्क्षण चीर बढ़ाया और उसके सतीत्व की रक्षा हो पाई। जब तुम्हारे हृदय से आवाज ही नहीं आ पाएगी गुरु की, तो गुरु तुम्हारी क्या सहायता कर पाएगा, क्या ज्ञान दे पाएगा।
अगर हृदय में गुरु के प्रति प्रेम न होगा तो आवाज कहां से आएगी। छः महीने के बच्चे के मुंह से कोई आवाज निकलेगी तो मां निकलेगी। और कुछ आवाज नहीं निकलेगी। सबसे पहला अक्षर मां ही सीखता है वह और जैसे ही मां बोलता है मां दौड़ी हुई आयेगी, एक क्षण का अंतर नहीं आयेगा चाहे वह कुछ भी काम कर रही हो। तुम ज्योंहि गुरु बोलोगे त्योंहि गुरु तुम्हारे पास पहुंच जायेगा। बुलाना पड़ेगा हृदय से, आत्मा से। वह बुलाना कठिन है। बच्चे के मन में एक ही भावना है कि मुझे दूध पिलाने की क्षमता केवल मां में है, केवल वह ही मुझे पूर्णता और पौष्टिकता दे सकती है। इसलिए उसके मुंह से केवल ‘मां’ ही निकलता है। न पिता निकलता है, न भाई निकलता है। परन्तु तुम्हारे मुंह से सैंकड़ो ना निकलते हैं कि भाई मेरे लिए यह कर लेगा, पिता वह कर देगा। इस प्रकार तुम्हें पूर्णता प्राप्त नहीं हो सकती।
यह सब इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यह बहुत छोटा जीवन है तुम्हारे मेरे सम्बन्ध का। सशरीर मिलने का जीवन बहुत छोटा है। यह शरीर एक न एक दिन समाप्त होगा ही और जब विनाश हो जाएगा तो फिर तुम्हारे पास क्या बचेगा तुम किस को आवाज दोगे- मां या गुरु! कौन दौड़ कर तुम्हारे पास जाएगा। फिर तुम्हें पूर्णता कैसे प्राप्त होगी। नहीं होगी तो आनंद कैसे प्राप्त होगा और आनंद नहीं मिला तो तुम्हारे जीवन का क्या अर्थ रह जाएगा। और यदि तुम्हें ऐसा घिसा पिटा जीवन जीना है तो यह गुरु गुरु कहना ढोंग है, बेकार है। इससे तो अच्छा है कि यह सब बंद कर दें या फिर पूर्ण रूप से समर्पित हो जाएं और समर्पित कर दोगे तो फिर मैं जीवन भर तुम्हारे साथ रहूंगा। तुम बेकार में अहंकार कर रहे हो कि मैं बाप की, मां की सेवा कंरू और बाप ने तुम्हारे लिए क्या किया? क्या उन्होंने तुम्हारा निर्माण किया, क्या तुम्हें चेतना दी? क्या तुम्हें एहसास कराया कि जीवन का उद्देश्य क्या है और पूर्णता क्या है? नहीं समझाया तो फिर पिता कैसा हुआ फिर तुम्हें पिता से क्या मोह है और मोह है तो जीवन में गुरु प्राप्त नहीं हो सकता और अगर वह नहीं आता तो जीवन धिक्कारने योग्य है। वह जीवन नहीं है। उस जीवन में श्रेष्ठता, दिव्यता नहीं है। मैं समझ नहीं पा रहा कि तुम्हें कब ठोकर लगेगी, कब चेतना व्याप्त होगी, कब एहसास होगा कि मुझे गुरु के प्रत्येक शब्द को आत्मसात करना है, पूर्ण बनकर आनंद प्राप्त करना है।
तुमने प्रातः ध्यान किया, सिद्धाश्रम के सोलह श्लोक बोले, कि मैं सिद्धाश्रम जाकर उन ऋषि मुनियों के पास बैठूंगा, यह तो रोज बोल दोगे आप, परन्तु केवल बोलने से कुछ नहीं होगा क्योंकि यह जिह्ना दग्धकारी है क्योंकि उस पर झूठ कपट की परत चढ़ी हुई है। वह शुद्धता से गुरु शब्द का उच्चारण नहीं कर सकती। जली हुई धुंआ तो पैदा कर सकती है, आग पैदा नहीं कर सकती। तुम्हारी जीभ में आग नहीं है-श्राप देने की शक्ति नहीं है, वरदान देने की भी शक्ति नहीं है। तुम किसी का कल्याण भी नहीं कर सकते, तुम किसी का नुकसान भी नहीं कर सकते। तुम्हारे पास पात्रता है ही नहीं और गुरु के पास रहकर भी पात्रता नहीं प्राप्त कर सकते तो तुम्हारे जीवन का चिंतन, महत्व कुछ नहीं है। आप शिष्य बनने की पात्रता प्राप्त करें। आप एहसास करें कि मेरे जीवन का प्रत्येक क्षण व्यतीत होगा तो गुरु कार्य में ही होगा। उसके कार्य को अग्रसर करना मेरे जीवन की श्रेष्ठता है। इसके अलावा कोई कार्य करने से मैं कोई महान नहीं बन पाऊंगा।
वेद व्यास कह रहे हैं कि यह मनुष्य की सबसे बड़ी न्यूनता है कि हम सही अर्थों में शिष्य नहीं बन पा रहे हैं, इसलिए कृष्ण को समझना बड़ा कठिन है। वेद व्यास कह रहे हैं यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी न्यूनता है कि मैं वेदों को नहीं उतार पाया तो कृष्ण को कहां से उतार पाऊंगा, कृष्ण को नहीं उतार पाया तो गुरु को कहां से उतार पाऊंगा। कृष्ण भी तब बना, जब किसी गुरु के पास पहुंचा त्याग करके। सब कुछ त्याग करके। धन था उसके पास, राज्य था, देवकी थी, वासुदेव थे, गोप ग्वाले थे। इन सबको त्याग करके उसने एक जगह जाकर शिक्षा प्राप्त की और गुरु के समीप रह सका और जीवन में एक क्षण भी उसके हृदय से गुरु निकला नहीं। इसलिए गीता के अठ्ठारहवें अध्याय में कृष्ण ने कहा- ममा सर्वें त वतां आवा अज्ञाननात मनतै वदै पूर्णतां वै उच्चते गुरराधिकं कृतः मैं जो कुछ हूं, जो कार्य किया है, जो काम कर रहा हूं, जो काम करूंगा, वह सारा कार्य मैं नहीं कर रहा हूं क्योंकि मेरे अंदर एक गुरुत्व है जो निरन्तर मुझे कार्य करा रहा है। मैं एक क्षण भी उसे भूला नहीं हूं इसलिए वह मुझे काम करने से अलग कर ही नहीं पा रहा है। इसलिए जो मैं कार्य करूंगा वह ऐतिहासिक होगा क्योंकि मैं निरन्तर उनकी प्रेरणा से कार्य करता आ रहा हूं।
और तुम्हारे अंदर गुरुत्व नहीं है, तुम्हारे अंदर छल, मोह, झूठ है। वह तो तुम त्याग नहीं कर सकते और त्याग नहीं कर सकते तो गुरुत्व को प्राप्त नहीं कर सकते। आंखें भीग नहीं सकती, तुम तक आत्मा की आवाज नहीं आ सकती। नहीं आ सकती तो तुम्हारे और गुरु के बीच बहुत बड़ा गैप है तो आप गुरु से एकाकार नहीं कर सकते। गुरुत्व के द्वारा ही रक्त को शुद्ध किया जा सकता है और नए व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है। सेवा का तात्पर्य है निःस्वार्थ भाव से सेवा होनी चाहिए, तुम्हारा कोई स्वार्थ नहीं हो। मगर सेवा होनी चाहिए और सेवा के साथ त्याग होना चाहिए, त्याग भी वह जो तुम्हें सबसे प्रिय हो। तुम्हारे पास यदि पांच किलो मिठाई है और उसमें से तुमने एक गुलाब जामुन किसी को दे दिया, यह त्याग नहीं है। तुम्हारे पास केवल एक रोटी हो और तुम उसमें से आधी रोटी दान में दे दो तो वह त्याग कहलाएगा, मगर त्याग ऐसी जगह होना चाहिए जहां उसका सदुपयोग हो।
तुम त्याग कर के सौ रुपए का एक कुर्ता पहिना दो, तो वह तुम्हारा त्याग नहीं है, यूजलेस है वह। पहले ही मेरे पास चालीस-पचास कुर्ते पडे़ हैं। तुम्हारा कुर्ता मेरे काम नहीं आएगा और तुम मुझे मिठाई लाकर खिलाओ, तो मैं मिठाई खाता ही नहीं। तुम मुझे मिठाई का डिब्बा लाकर दो, उससे मुझे कोई मतलब नहीं है। वेद व्यास कहते हैं- हे कृष्ण मेरे अंदर आप और आपके अलावा कुछ और नहीं बचे, ऐसा मैं जीवन चाहता हूं, ऐसा आनंद चाहता हूं। ऐसा जीवन दें, ऐसा गुरुत्व दें, ऐसा ज्ञान दें। तब मैं जीवन को पूर्ण समझूंगा।
आपका जीवन पूर्ण बने! आप जीवन में जब तक त्याग नहीं कर पाओगे, गुरु में लीन नहीं हो पाओगे, गुरु के कार्यों को पूर्णता नहीं दे पाओगे तब तक जीवन का कोई अर्थ या आनंद नहीं हो सकता। वह आनंद त्याग से आ सकता है। आप त्याग से ज्यादा गुरुमय बन सकें, गुरु में एकाकार हो सकें, गुरु को अपने अंदर स्थापित कर सकें, पूर्ण रूप से पुण्यात्मा बन सकें और जीवन में आप अपने कार्यों से गुरु को प्रसन्नता दे सकें तो आपका जीवन धन्य हो सकेगा और आपका जीवन धन्य हो ऐसा ही मैं आशीर्वाद दे रहा हूं, कल्याण कामना करता हूं।
सद्गुरुदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी महाराज
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