जिस उत्सव में गुरुदेव अत्यन्त प्रसन्नता पूर्वक अपने पूर्ण स्वरूप में विद्यमान रहते हैं और सबको अपनी कृपा, अपनी करूणा से आपूरित करते हैं। यह तो आनन्द महोत्सव है, जो निमंत्रण दे रहा है प्राणों को झंकृत करते हुए पूर्णत्व प्राप्त करने के लिए, मस्ती में डूबने के लिए, आनन्द में सराबोर होने के लिए, दग्ध हृदयों पर अमृत फुहार बरसाने के लिए। यह तो संदेश है उनसे एकाकार होने का, अपने अस्तित्व को भुलाने का, जिनके श्रीचरणों में हम सभी शिष्यों के लिए समस्त तीर्थ सिमट आये हैं।
क्योंकि यह दिन सामान्य दिन नहीं है, यह तो कई-कई विशेषताओं और सुयोगों से निर्मित है, इसीलिए तो इसका हर क्षण पकड़ने योग्य है, क्योंकि ये अमूल्य क्षण हैं। इन क्षणों में पूज्य गुरुदेव का एकमात्र यही उद्देश्य है, कि किस प्रकार से मेरे शिष्यों का जीवन पूरी तरह से सुगन्धित हो सके, बूंद समुद्र से मिल सके। ऐसे दिव्यता भरे क्षणों में सभी शिष्यों के मन में यह दृढ़ निश्चय होना ही चाहिए कि ऐसे दिव्य महत्त्वपूर्ण क्षणों को तो छोड़ना ही नहीं है, क्योंकि इन क्षणों में ही तो गुरु और शिष्य के बीच की दूरियां समाप्त हो जाती हैं और पूर्णता को प्राप्त कर लेता है शिष्य।
यदि ये क्षण छूट गये, तो हमारा दुर्भाग्य ही होगा, क्योंकि इन क्षणों में गुरुदेव मुक्त हस्त से साधना व दीक्षा रूपी अमृत वर्षा करते हैं और मृत्यु से अमृत्यु की ओर ले जाने का पथ प्रशस्त करते हैं। सद्गुरुदेव की तो हर पल यही चेष्टा रहती है, कि मेरे शिष्य का प्रत्येक क्षण आनन्दमय हो, उत्सवमय हो, मस्ती से छलछलाता हुआ हो, पूर्णता के साथ जगमगाता हुआ हो। और जब यह क्षण निकट से निकटतम आ रहा है, तो हमें अपने पांव पीछे हटने ही नहीं देने हैं, चूकना नहीं है। क्षणों को समेट लेना है अपनी निधि बनाकर, अपनी कोष वृद्धि करनी है।
फिर भी यदा-कदा कुछ शिष्यों के इस जन्म के या पूर्व जन्म के दोषों के कारण, वे लाख प्रयत्न करके भी ऐसे दिव्यतम क्षणों पर उपस्थित नहीं हो पाते हैं। ऐसे शिष्यों के हृदय के अन्दर झांक कर देखा जाये, तो उनके मन में व्याप्त असीम वेदना का सहज ही एहसास होने लगता है, प्रतिपल वे तड़पते हुए अत्यधिक कष्टमय क्षण व्यतीत करते हैं।
क्षणिक भावों से कुछ घटित नहीं होगा। यदि आनन्द की लहलहाती फसल उगानी है, तो गहरी जुताई करनी होगी और यही गहरी जुताई मैं इन तीखे शब्दों के माध्यम से करना चाहता हूं। तब उस खेत में जो बीज आप गुरुदेव से प्राप्त करते रहे हैं, उन्हें जमा सकेंगे और यदि तर्क-कुतर्क की खर-पतवार निकालते रहे, साधना की सिंचाई करते रहे, तो निश्चित ही आनन्द की फसल प्राप्त कर सकेंगे। परम्परागत ढंग से आने और लौट जाने से न तो कुछ घटित हुआ है, न घटित होगा।
यह पतझड़ तो नई कोंपलों के आगमन का संदेश लाया है। जो बिछड़ा, जो बीता, जो गया, जो नहीं आया, वे उस वसंत की बातें हैं, इस वसंत में तो गुरुदेव स्वयं ही बुलाने आए हैं, निमंत्रण लेकर ही नहीं! क्या वसन्त अपने स्वागत के लिए भी कभी कुछ कहकर उपस्थित हुआ है, वह तो सुगन्ध का एक झोंका बन कर आया और दिलों पर दस्तक दे गया कि आओ रसमय हो लो, उत्सवमय हो लो, कुछ खिलखिला लो, शरारतें कर लो, प्राणों को चैतन्य कर लो। एक अप्रतिम व्यक्तित्व, एक यौवन और एक ‘प्राण’ उपस्थित होगा इन्हीं दिनों में और पुनः एक ऐसा अवसर तो आ पायेगा आषाढ़ पूर्णिमा, अमृत वर्षा करने के लिए उस वर्षा की ऋतु में, यह भी तो ऐसा निमंत्रण है। जो कोंपले इस वसंत में नहीं खिल पाईं, वे उस अमृत वर्षा का संगीत नहीं सुन पाएंगी। नन्हीं कोंपलें ही अनुभव कर सकेंगी, भीग सकेंगी और रीझ सकेंगी। ठूंठ पर वर्षा का कोई असर नहीं होता, बस खड़-खड़ होती है। टप-टप, टुप-टुप के संगीत का सृजन कोंपलों से ही होता है। एक क्रम है यह, ज्यों इस जीवन का भी तो कोई क्रम होता है। इस जन्म के दिन 21 अप्रैल के वसंत से लेकर गुरु-पूर्णिमा की वर्षा तक का, तभी तो उत्सव महोत्सव में बदल सकेगा।
उत्सव का महोत्सव में बदलना ही अहोभाव है, स्वयं की उपस्थिति का प्रमाण है, जीवन की अस्मिता है, मुस्कुराहट है, सौन्दर्य है और खिलखिलाहट है। स्वप्न हैं और कसक हैं, अंगडाइयां हैं और इरादे हैं, व्यक्ति हैं और जीवन है, गुरुतत्व है और शिष्यत्व है। क्योंकि प्रकृति भी एक नहीं, कई रंगों में सजी संवरी है। तभी तो उत्सव है।
अन्तिम सीमा तक ले जाते हुए भी अपने-आप को फना कर देने का हौसला, लुटाने का हौसला, लुट जाने का नशा ही तो हो सकता है किसी उत्सव के मनाने की सही कला और वह भी जब एक शिष्य के गुरु का जन्मदिन हो, उसके प्राण स्वरूप गुरुदेव की इस धरा पर उपस्थिति का अवसर हो, फिर—- बचाकर रखना भी क्या? जो कुछ था वह ले ही चुकी थी तेरी अदा एक जान ही बाकी थी वो है एक नजरे नजर आज जान तक लुटा देने का हौसला रख लेना है, दिल तो लुट ही चुका है तभी तो आप गुरुदेव के पास तक आए हैं, तभी तो आप उत्सव मनाने निकल पड़े हैं। प्रत्येक व्यक्ति उत्सव मनाने नहीं निकल पाता, कुछ खोने और लुटा देने वाले अलमस्त ही उत्सव मनाने निकल पड़ते हैं, क्योंकि उन्हें जीवन की बंधी लीक रास जो नहीं आती और उदास भी नहीं होना है। सब कुछ लुटा देने के बाद भी, यों आना है कि कितने तारे पलकों पर सजाये हुए, जगमगाहट ही तो बच जाती है आंखों में सब कुछ खो देने के बाद, क्योंकि जिसने खो दिया उसी ने तो पा लिया। खाली किया और अपने प्रिय को अन्दर तक उतार लिया, पलकों पर नाज से सितारों की तरह सजा लिया, आंखों से गुनगुना लिया, होठों को सी लिया, एक मस्ती का जाम जो पी लिया।
ठीक एक साल पहले ही तो मिले थे नेपाल में और फिर अब लखनऊ में मिलन होने जा रहा है। कुछ वक्त कट गया जो तेरी याद के बगैर हम पर तमाम उम्र वो लम्हे गरां रहे अब इस मिलन में तो बस उठ कर खो जाने की ही बात होगी क्योंकि इसी दिन की तो प्रतीक्षा थी, इसी के तो गिले-शिकवे थे, बेकरारी और शिकायतें थी लेकिन- इक तेरी तमन्ना ने कुछ ऐसा नवाजा है मांगी ही नहीं जाती अब कोई दुआ मुझसे दुनिया ने तीर्थ स्थानों को देव और मनुष्य का संगम माना पर यह संगम तो कुछ अलग ही होना चाहिए। जहां जीवित लहरें आकर मिलेंगी और पीछे बरसों-बरस के लिए इस मिलन के संगीत की लहरियां फिजा में छूट जाएंगी। ऐसी धुन न तो बजी होगी न फिर कभी बज ही सकेगी क्योंकि इस बार फिर शिष्य रूपी राधा के पास कृष्ण जीवित जाग्रत रूप में गुरु बन जो उपस्थित हैं।
एक दीवानगी से सराबोर कर लेना है अपने-आपको क्योंकि यही दीवानगी तो जीवन का राज है, रास है आनन्द का उत्सव है और खुद की पहचान है- चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी वरना हम जमाने भर को समझाने कहां जाते उमड़ती हुई बूंदों की तरह, रंग-बिरंगे बिखेरते फूलों की तरह, दीवानगी से झूलते दरख्तों की तरह—- बिखरने की अदा ही दीवानगी है, मोहब्बत में डूब जाना ही दीवानगी है किसी को अपना बना लेना भी दीवानगी है, चुपके-चुपके हौले-हौले एक शुरुआत हो जाने का पर्व भी तो है यह जो गुरुदेव में डूब जाने का राज है- इश्क सुनते थे जिसे हम वह यही है शायद खुद-ब-खुद दिल में है इक शख्स समाया जाता चाहकर भी नहीं रोक पांएगे इस घटना को क्योंकि यही तो गुरुदेव का व्यक्तित्व है। बरसते आंखों के दिल में उतर कर अपने चाहने वालों को बेखुद कर देने की कला जिनकी तिरछी मुस्कान में छिपी है, लेकिन आपको आना तो पड़ेगा ही! मिलने का वायदा तो करना ही पड़ेगा! क्योंकि अब जुदाई की बातें सीमा तोड़ने को तैयार हो गई हैं बस वायदा ही नहीं, मिलने का करार भी, क्योंकि यह मिलन अब जिन्दगी की जरूरत बन चुकी है, रगे-जाँ की कसक बन चुकी है और सांस लेने की तरह ही एक हकीकत बन चुकी है।
वो फिर वादा मिलने का करते हैं यानी कुछ दिन हमको और जीना पड़ेगा फिर से मिलने के लिए, खो जाने के लिए और खोए-खोए ही इस जिन्दगी के सफर को पूरा करने के लिए ही तो यह पर्व मनाया जा रहा है। आना और दौड़ते हुए आना, लेकिन हर मोड़ पर थोड़ा आहिस्ता होकर ठहर भी जाना, पता नहीं अगले किस मोड़ पर ही गुरुदेव अपने विशाल वक्ष-स्थल, फैली हुई बांहे और मंद मुस्कान के साथ मिल जाए, अपने आप में खो जाने के निमंत्रण के साथ! बूंद खोई कहां? बूंद तो समुद्र बन गई, उसकी एक नई पहचान हो गई, एक नया जीवन हो गया, एक नया जन्म ही हो गया, एक नया उत्सव आरम्भ हो गया, मस्ती और बेफिक्री हो गई और—-यही तो उत्सव है।
मनुष्य अपनी स्थित प्रज्ञता के कारण एक घेरे में बंधा होता है और अपने घर-बार, ग्राम नगर को ही अपनी दुनियां मान लेता है तथा परिवार के बंधनों से बंधा हुआ पशुवत जीवन जीता है। ऐसे समय में जब धर्म पर अधर्म हावी होने लगता है, वेद मंत्रों की ध्वनियां मंद हो जाती हैं, यज्ञ शालाओं की ज्वालाओं पर राख पड़ने लगती है, समाज में हिंसा, व्याभिचार इत्यादि विकृतियां बढ़ने लगती हैं, तब युगपुरूष महापुरूष आकर अपने ज्ञान से संसार को संशय रहित करते हैं। सद्गुरुदेव को दी गई उपमाएं सामान्य उपमाएं नहीं हैं, इनमें से प्रत्येक उपमा के पीछे गुरुदेव का एक व्यक्तित्व लक्षण प्रकट होता है। यही कारण है कि जब कोई साधक चाहे वह गृहस्थ हो अथवा संन्यासी हो, यती हो या योगी हो इसका पाठ और श्रवण करता है तो एक विशेष अनुभूति प्रकट होने लगती है उसके रोम रोम में चेतना जाग्रत होने लगती है, गुरु तत्व जाग्रत होने लगता है।
सद्गुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी के अवतरण दिवस 21 अप्रैल को उत्सव के रूप में मनाने का भाव साधक, शिष्य स्व का आत्मीय रूप में श्रद्धा और विश्वास में उसी का हित चिंतन होता है कि वह भी गुरु के सम रूप में अपने आपको श्रेष्ठता से स्थापित कर सके तथा पूर्ण रूपेण पशुवत जीवन से निवृत्ति प्राप्त कर सके।
मनकामेश्वर महादेव की तपो भूमि पर रोम रोम में आत्मसात करने के लिए और जीवन की श्रेष्ठ कामनाओं की पूर्ति के लिए निखिल जयंती दिवस 19-20-21 अप्रैल पर परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी महाराज के पूर्ण दिव्यतम अवतरण महोत्सव पर साधको के अपने जीवन को भौतिक सुखों से निर्मित करने और पूर्णरूपेण इन्द्राक्षी वैभव लक्ष्मी से युक्त बनाने हेतु, चौंसठ कला युक्त जीवन निर्माण की साधनायें और धर्म, अर्थ, काम शक्ति व सर्वमनोकामना पूर्णता से अपने जीवन को युक्त करने हेतु दीक्षायें एवं प्रत्येक साधाक द्वारा स्व रूद्राभिषेक वन्दनीय माताजी के सानिध्य में सम्पन्न होगा।
शिविर स्थल:
ज्योति बा फ़ुले, सामुदायिक केन्द्र, लोहिया पार्क, चौक, लखनऊ उ- प्र
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