वेद व्यास ने अपने श्लोक में कहा है।
पुण्यार्थ देह भवतां नर रूप देहं
सूर्यो सदीतां श्री कृष्ण रूपं सोमाय
मोत वदतां भव नित्य रूपं
जड़तां विनाश यदि सदैव तुल्यं
मैं सोचता हूं कि इससे अच्छा कोई श्लोक संसार में हो ही नहीं सकता, इससे अच्छा गुण किसी विषय के लिए कोई श्लोक हो नहीं सकता और यदि आप इस श्लोक को अपने जीवन में नहीं उतारते हैं तो यह आपका दुर्भाग्य है। यह आपका घटियापन है, आपकी न्यूनता है और प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में न्यून है ही! ऊंचा तब उठता है जब उस श्लोक को अपने शरीर में रचा पचा लेते हैं। आप एम- ए- पास हो जाते हैं, आपने उसकी पढ़ाई को अपने अन्दर समाहित की है इसलिए आप एम-ए- हैं, बी-ए- हैं। यह श्लोक सुनने के लिए नहीं है यह श्लोक जीवन में उतारने के लिए है और जो जीवन में नहीं उतार पाते वे वैसे ही है जैसे एक सामान्य प्राणी है, एक सामान्य व्यक्तित्व है। कौए, तीतर, बटेर, कुत्ते, गाय, ऊंट, बकरी क्योंकि वे इस प्रकार के ज्ञान को अपने अंदर समाहित नहीं कर सकते, इसलिए ग्रेजुएट भी नहीं हो सकते, एम-ए- भी नहीं हो सकते और करोड़ों व्यक्ति अज्ञानी हैं। उनके पास सर्टिफिकेट तो है पर ज्ञान और चेतना नहीं है। हमारे ऋषियों ने हमें ज्ञान दिया है, कितनी चेतना दी है, कितनी पूर्णता और सफलता दी है, इसकी तुलना नहीं है और हमारा कितना बड़ा सौभाग्य है कि संसार में उस भूभाग पर हैं जिसे भारतवर्ष कहा गया है। भारत के रज कण में हम पैदा हुए हैं, बड़े हुए हैं और संसार के उस भाग में जहां हिमालय है, गंगा है और मानसरोवर है और इससे भी बढ़कर के हम उस स्थान पर हैं जहां हमारे सामने सद्गुरु हैं।
यदि हम नहीं समझते हैं तो यह बेकार है, नगण्य है, तुच्छ है, यदि हम समझते हैं तो इससे बड़ा सौभाग्य है ही नहीं। इसलिए वेद व्यास ने पहली ही पंत्तिफ़ में कहा कि यह श्लोक केवल सुनने के लिए नहीं, हां यह श्लोक वेद व्यास ने अपने शिष्यों से कहा और प्रातः काल श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन कहा। यह श्लोक मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं कि आप इसका अध्ययन करें, मनन करें या पढ़े, यह पढ़ने के लिए है ही नहीं, यह श्लोक सुनने के लिए नहीं है, जीवन में उतारने के लिए है। इसमें बताया गया है कि श्रीकृष्ण के पांच पर्यायवाची शब्द हैं, पांच अर्थ हैं और यदि हम इन अर्थों को अपने अन्दर समाहित करते हैं तो हम सही अर्थों में मानव बन सकते हैं। हम अभी नहीं जानते कि श्रीकृष्ण के कितने अर्थ हैं या श्रीकृष्ण क्या हैं। हम उनको एक मामूली सा ही व्यक्ति समझ बैठे हैं। हम उनको माखन चोर समझ बैठे है, यशोदा के पुत्र समझ बैठे हैं। हम उनको ज्यादा से ज्यादा एक योद्धा समझ बैठे हैं जिन्होंने महाभारत का युद्ध किया, विजयी हुए और ज्यादा से ज्यादा हम समझते हैं कि उन्होंने गीता जैसे ग्रंथ की रचना की।
मगर यह तो कुछ था ही नहीं, यह तो एक नगण्य सी चीजें थी। इतनी सी बात के लिए अगर महानता प्राप्त हो जाती है तो फिर भीष्म भी इतने ही महान थे। फिर तो अन्य भी कई योद्धा थे जिन्होंने श्रीकृष्ण के समान युद्ध किया। अर्जुन भी था, युधिष्ठिर भी था, भीम भी था, नकुल, सहदेव भी थे। मगर वे इतना उच्चकोटि तक क्यों नहीं पहुंच पाए, यह वेद व्यास ने इस श्लोक में स्पष्ट किया है। श्रीकृष्ण का मतलब है सौन्दर्य! प्रत्येक व्यक्ति में सौन्दर्य होता है मगर वह उस सौन्दर्य का प्रस्फुटन नहीं कर पाता और सौन्दर्य होता है मन का। बाहरी वस्त्रों का नहीं, बाहरी वस्त्र आपके सफेद हैं, पीले हैं, लाल हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, इनसे व्यक्ति सौन्दर्य युक्त नहीं बन सकता।
सौन्दर्य युक्त तब बनता है जब मन में एक कमल खिलता है, जब हृदय में एक प्रस्फुटन होता है, जब हृदय से एक सुगन्ध का झोंका प्रवाहित होता है। ऐसा लगता है कि मैं गुरु के पास रहता हूं। ऐसे लगता है कि गुरु नहीं है एक वसन्त का झोंका है, वह वायु वेग है जो मैं अपने प्राणों में भर लेना चाहता हूं और भर कर के अन्दर की सारी दुर्गंध निकालकर इतना आनन्द युक्त बना देना चाहता हूं कि 24 घण्टे तक खुमारी में रह सकूं। फिर साल भर खुमारी में रह सकूं।
श्रीकृष्ण का पहला अर्थ यही है कि हम सौन्दर्य युक्त बन सकें। परन्तु यह तभी हो सकता है जब सामने गुरु हों और वो आपको सौन्दर्य युक्त बनाने की इच्छा रखते हों और आप भी बनना चाहते हों। ऐसा दिन श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का है और यह दिन फिर साल भर बाद आता है। आता तो है परन्तु फिर आप गुरु के पास होते हैं या नहीं होते हैं, यह विषय होता है या नहीं होता है इसकी कोई कल्पना नहीं की जा सकती। श्रीकृष्ण का दूसरा अर्थ होता है पूर्ण सम्पन्न होना। पूर्णता प्राप्ति बी-ए- या एम- ए- पास करने से नहीं होती क्योंकि हमारे आज तक के किसी ऋषि ने बी- ए-, एम-ए- पास नहीं किया, कबीर, सूर, मीरा और तुलसी ने भी नहीं किया, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गर्ग, अत्रि, कणाद ने भी नहीं किया, कृष्ण ने भी नहीं किया, राम ने भी नहीं किया और न ही महावीर या बुद्ध ने किया। वे कागज के टुकड़े इकट्ठे नहीं कर पाए। ज्ञान और चैतन्यता वहां प्राप्त हो सकती है, जहां अथाह समुद्र है, सागर है, मानसरोवर है। ऐसा मानसरोवर है जो प्रेम की झील है और उस प्रेम की झील में हम हंस बनकर उतर सकें, गतिशील हो सके, हंस बन करके उसमें डुबकी लगा सकें और हंस बन करके मानसरोवर की गहराई नाप सकें और इस क्रिया में आपके साथ गुरु होता है क्योंकि आप अकेले नहीं उड़ सकते, आपको पता नहीं कि अपने पंख कैसे फैलाने हैं। आपको यह भी मालूम नहीं है कि मानसरोवर कहाँ है। कृष्ण को भी कृष्ण कहा ही नहीं अपितु कृष्ण को जगत गुरु ही कहा गया।
कृष्णं वन्दे जगद गुरुं!
गुरुत्वं शिव रेवा कां कृष्ण गुरुत्व मेव च
गुरुत्वं गुरुत्व चैव कृष्णं केवल गुरुत्व
अर्थात् संसार में गुरु हुआ है तो केवल कृष्ण ही हुआ है। जिसने प्रत्येक विषय को बताया हो, पोथियों के माध्यम से नहीं प्रेक्टीकल रूप में। आलोचना उनकी भी हुई होगी, गालियां उनको भी मिली होगी। समाज जैसा आज है, उस समय भी वही था। उस समय भी लडाई झगड़े होते थे। भाई-भाई लड़ते थे, अर्जुन, दुर्योधन भाई थे और वे आपस में लड़ते थे। आमने-सामने युद्ध भूमि में खड़े होते थे। उस समय भी स्त्रियों का हरण होता था और उनके कपड़े भरी सभा में उतारे जाते थे। यह समाज उस समय भी वैसा ही था। उस समय कोई बहुत महानता नहीं थी। यह हमने सतयुग, द्वापर युग, त्रेता युग का नाम दे दिया। जो आज है उस समय भी वही था। मगर उस समय भी कृष्ण अपने आप में अडिग भाव से खड़े रह सके। हम अडिग भाव से खड़े रह कर के उस श्री को, उस लक्ष्मी को अपने अंदर पूर्ण रूप से उतारें तो फिर जीवन में कोई कमी नहीं रह सकती। मैं यह भी जानता हूं तो आप से यह सब कहना व्यर्थ है, मैं चीखूं चिल्लाऊं और उसको कोई सुने नहीं तो सब व्यर्थ है। कई बार सोचता हूं कि शायद मैं ही मूर्ख हूं जो ऐसे विषयों पर बोलता हूं। मैं सोचता हूं कोई फायदा नहीं है। आपकी न्यूनता, कपट, छल, असत्यता जाती ही नहीं है। आपका खून शुद्ध पवित्र नहीं हो सकता तो गुरु के प्रति ममत्व, प्रेम पैदा हो ही नहीं सकता और पैदा नहीं हो सकता तो आप मनुष्य बन ही नहीं सकते। श्रीकृष्ण से पहले और एक शब्द है जब आप गुरुमय नहीं हो सकते, जब आपको यह ज्ञान नहीं कि गुरु की क्या आवश्यकता है, जब आप गुरु के लिए आंसू नहीं बहा सकते, जब गुरु के प्रेम में नहीं बंध सकते, जब गुरु से एकाकार नहीं हो सकते, जब आप गुरु की सुगन्ध को अपने में समाहित नहीं कर सकते तो आप शिष्य क्या हैं?
आप शिष्य नहीं हैं, केवल छल है, पाखंड है, झूठ है, एक धोखा है। हम अपने आप में खुश हैं कि हम शिष्य हैं, मेरी राय में आप बेकार हैं तुच्छ हैं, शिष्य नहीं हैं। वैसे ही हैं जैसे एक सड़क पर चलते लोग हैं। जब आप श्रीकृष्ण को समझे तो उससे पहले एक शब्द है श्री उसे समझें। श्री का अर्थ है पूर्णता प्राप्त करने की क्रिया। प्रत्येक विषय में पूर्णता प्राप्त करने की क्रिया। शरीर, मन, प्राण, चेतना, दिव्यता, तेजस्विता और उससे भी बढ़कर के अपने अंदर पूर्ण विराटकाय गुरु को समाहित करने की क्रिया। वेद व्यास ने समझाया है कि श्रीकृष्ण का तीसरा अर्थ है दिव्य सुगन्ध। श्रीकृष्ण के शरीर से अष्टगंध प्रवाहित होती है। यह अष्टगंध उनके शरीर से प्रवाहित होती है जिनका शरीर बहुत अधिक पवित्र होता है। यह अष्टगंध उनके शरीर से प्रवाहित होती ही है जो दिव्य होते हैं, चैतन्य पुरूष होते हैं शलाका पुरूष होते हैं। मगर क्या हममें ग्रहण शक्ति है कि हम उस अष्टगंध को एहसास कर सकें?
यह शक्ति नहीं है हम भेद भी नहीं कर सकते। हम एक वायु का दूसरी वायु से भेद कर ही नहीं सकते। इस कमरे की हवा में और सड़क की हवा में कितना भेद है हम अनुभव नहीं कर सकते। उस बगीचे में जिसमें पौधे झूम रहे हैं और इस कमरे की हवा में क्या भेद है हम समझ नहीं सकते। जब हवा में भेद नहीं समझ सकते तो गुरु को भी नहीं समझ सकते। इसीलिए जो उत्तम कोटि के गुरु होते हैं वे कृत्रिम सुगन्ध को जिसको आज की भाषा में परफ्यूम कहते हैं, या इत्र कहते हैं उसको अपने शरीर पर लगा देते हैं जिससे अष्टगंध छिप जाए और आप उनकी परफ्यूम को सूंघ कर खुश हो जाएं कि बहुत सुगन्ध आ रही है। एक परफ्यूम जो नकली है, घटिया है, उसको वो प्रयोग करते हैं कि ये माया से निकल कर लोग ब्रह्म में लीन न हो जाएं, ब्रह्ममय नहीं बन जायें। अपने आप को प्राणों से जोड़ नहीं पाये। गुरु ऐसा इसलिए करता है क्योंकि वह टेस्ट कर लेना चाहता है कि यह व्यक्ति शिष्य है, क्या इसकी न्यूनता अभी समाप्त हुई, क्या इसमें पूर्णता आई, क्या इसकी आखों में आंसू आए।
गुरु कुछ कहता है और आधे घन्टे बाद आप वैसे के वैसे होते हैं जैसे पहले थे, कुछ अंतर आ ही नहीं सकता आप में। मैंने बहुत प्रयत्न करके देख लिया और मैं इस बात से व्यथित हूं। आप में आंसू हैं ही नहीं, आप में समर्पित होने की क्रिया ही नहीं है, आप उस परफ्यूम के अंदर तक जा करके उस अष्टगंध तक पहुंच ही नहीं सकते और यह आपकी न्यूनता है। गुरु की न्यूनता नहीं है। प्रत्येक गुरु में ऐसा हो यह मैं नहीं कह सकता और वह गुरु है ही नहीं जिसमें अष्टगंध प्रवाहित नहीं हो। गुरु वह होता है जिसके रोम-रोम से एक ज्ञान और चेतना और एक सुगन्ध प्रवाहित होती है, ऐसी सुगन्ध जिससे तृप्ति अनुभव होती है। ऐसा लगता है जैसे हम गंगा के किनारे बैठे हों, एक पूर्णता चेतना मिलती हो। श्रीकृष्ण के शरीर से अष्टगंध प्रवाहित होती थी, राम, बुद्ध, महावीर के शरीर से भी! इसलिए कि श्रीकृष्ण प्रत्येक रंग में अपने आप में सजीव थे। प्रेम में थे तो पूर्णता के साथ प्रेम किया, घबराहट के साथ प्रेम नहीं किया। सांदीपन के आश्रम में थे, तो पूर्णता के साथ गुरु में समर्पित हुए, लकडि़या लाएं, रोटियां बनाई पर इस बात का एहसास नहीं किया कि मैं राजा वसुदेव का पुत्र हूं। यह अहंकार उनके मन मे नहीं आया।
और आपके पास अहंकार के अलावा कुछ है ही नहीं, द्वेष और छल के अलावा कुछ है ही नहीं। आप उनको नहीं हटा सकते। आप ऐसे ही है, यह आपकी विशेषता है और इस बात का मुझे दुख है। और अगर इस प्रकार हम जन्माष्टमी मनाते हैं तो यह झूठ है। हम अपने साथ और श्रीकृष्ण के साथ छल कर रहे हैं, हम उनको समझ ही नहीं पाएंगे तो कृष्ण जन्माष्टमी क्या मनाएंगे, वो क्या पैदा होंगे? वो क्या रोज पैदा होते हैं? वह तो एक दिन है जिसको हम एहसास करते हैं, वह तो सूर्य उगा और उसने रोशनी बिखेरी। क्या उस रोशनी को पकड़ा आपने? क्या उगते हुए सूर्य को आपने देखा कि कितना लाल सुर्ख होता है? क्या आपने उस आनन्द को अनुभव किया? आपको लगता है कि चिडि़यों की चहचहाट से आलस्य और नींद आपके लिए अधिक अनुकूल है। उस दुर्गन्ध युक्त गुदड़ में सोना आपके लिए अधिक आनन्दपूर्ण है? आप क्या प्रज्ञा पुरूष बन सकेंगे, क्या चेतना पुरूष बन सकेंगे? शायद नहीं बन सकेंगे। वेद व्यास ने श्रीकृष्ण का चौथा अर्थ बताया पूर्ण गुरुत्वमय बनना, गुरु बनना नहीं, गुरुत्वमय बनना। दोनों में डिफरेंस है। शिष्य गुरु नहीं बन सकता और गुरु बनने में आनन्द है ही नहीं। गुरु तो देता ही देता है, शिष्य प्राप्त करता ही रहता है। इसलिए शिष्य निरन्तर प्राप्त करे और निरन्तर प्राप्त तब होगा जब निरन्तर गुरु के साथ रहे। यह बहुत बड़ा सौभाग्य है अगर हम 24 घण्टे गुरु के साथ हैं। गुरु के प्रति सेवा का भाव हो, दिखावा नहीं हो। अगर ऐसा नहीं करते तो हम छल करते हैं, गुरु के प्रति अपने प्रति। और अगला श्रीकृष्ण का अर्थ है प्रेम, वह प्रेममय होता है। जिसके पास और कुछ हो या नहीं हो प्रेम की नदी बहती रहती है वह प्रेम में मग्न रहता है, वह प्रेम मय ही नहीं है हमेशा प्रेम की नदी प्रवाहित करता रहता है। गंगा इसलिए पवित्र है क्योंकि बहती रहती है खड़ी रहेगी तो पोखर कहलायेगी, तालाब कहलायेगी, बहती रहती है इसलिए गंगा कहलाती है। वह ठीक गंगोत्री से उतर कर समुद्र में मिलती है, इसलिए वह गंगा है।
इसलिए वे कृष्ण हैं क्योंकि वे निरन्तर प्रवाहित हैं, निरन्तर प्रेम उनमें से बह रहा है और हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम प्रेम में अवगाहन नहीं कर पाते, हम प्रेम कर ही नहीं सकते हमें प्रेम करना आता ही नहीं। हम उनको बाहों में भर नहीं सकते, हम उनके चरणों में नतमस्तक नहीं हो सकते, हमें झिझक आती है, संकोच आता है। हमें डर लगता है कि लोग क्या सोचेंगे और डर कर यदि आप जीवन जीते हैं तो वैसा ही जीवन है जैसा गधे, कुत्ते और गये बीते लोगों का होता है क्योंकि आप में ताकत व क्षमता नहीं। अगर आप सोचते हैं कि लोग क्या कहेंगे तो व्यर्थ है। जब आपका सिर अपने आप मजबूर हो जाए कि मुझे चरणों में समर्पित हो जाना है, जब आपकी चेतना उस बात का एहसास कर दे कि मुझे उनके लिए अपने आपको न्यौछावर करना है, प्राप्त करने की क्रिया केवल प्रेम के माध्यम से हो सकती है और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। भौतिकता का रास्ता नहीं है, आप मुझे दो रोटी दे दे, उससे कुछ लेना देना नहीं है, आप मुझे पानी पिला दे या जलेबी खिला दे, उससे भी कुछ लेना देना नहीं है। ये तो भौतिक चीजें है।
जब प्रेम आप दे नहीं सकते क्योंकि आपके पास है ही नहीं। यदि आप अपने मन को टटोले तो प्रेम जैसी चीज नहीं है। झूठ, छल, कपट तो है, व्याभिचार है, असत्य तो है, द्वेष और न्यूनता तो है, एक दूसरे को जली कटी सुनाने की प्रवृत्ति तो है और घटिया पुरूष तो व्यक्ति होता ही हैं। घटिया, न्यूनता और ओछापन होता है और आप में यही सब भरा हुआ है। इसलिए मैं आपको धिक्कारता हूं कि आप में प्रेम नहीं है। प्रेम रूकता नहीं है। प्रेम चलकर गुरु में एकाकार हो जाता है, गुरु के चरणों में लिप्त हो जाता है। तब अपने आप अष्टगंध व्याप्त हो जाती है। अष्टगंध उनकी सांस में भर जाता है। पूर्ण शरीर में प्रेम और आनन्द की वृद्धि होने लग जाती है। तब व्यक्ति प्रेममय हो जाता है, चेहरे पर एक चमक और रौनक हो जाती है, सारे शरीर की एक सुन्दर सी आकृति बन जाती है।
आप इसलिए प्रेममय नहीं बन सकते क्योंकि एक भरे हुए घडे़ में कुछ भी नहीं भरा जा सकता। खाली घडे़ में भरा जा सकता है और आपके घड़े में झूठ और छल भरा हुआ है, पूर्ण लबालब भरा हुआ है। मैं आपको बहुत कहता हूं पर आप अपने रास्ते से एक लीक भी नहीं हटते। आप आलस्य नहीं छोड़ते, झूठ नहीं छोड़ते, पांखड नहीं छोड़ते, गुरु से एकाकार नहीं होते, गुरु में लीन ही नहीं होते, एक भरे हुए दिये में क्या भरा जा सकता है। ज्यादा भरेंगे तो वह बुझ जाएगा। श्रीकृष्ण का पांचवा अर्थ है आनन्द और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन के प्रत्येक क्षण को आनन्दयुक्त बनाना चाहिए। सैकेण्ड के हजारवें हिस्से को क्षण कहते हैं। पूरा दिन एक आनन्द में, तृप्ति में, खुमारी में बीते। आपके पास सुन्दरता है तो आप सौन्दर्य वर्णन करिये, यदि आपके पास ज्ञान है तो आप ज्ञान को बिखेरिये, आपके पास जो कुछ हो उसका प्रदर्शन कीजिए।
अगर मेरे पास ज्ञान है तो मेरा मन होता है कि सुबह उठूं और आपको ज्ञान दूं। अगर मुझे वेद व्यास के श्लोक याद हैं तो वे श्लोक आपके सामने रखूं। जो मेरे पास है वह मैं आपको दूं। मैं निरन्तर प्रेम प्रवाहित करना चाहता हूं, तो करता हूं। मैं तो देता हूं, पर आप बीच में ही दीवार खड़ी कर देते हैं, प्रेम नहीं लेते और वह लौट कर वापस आ जाता है। आपकी आंखें कामातुर हैं, अन्धी है, कमजोर है, कायर है और बुजदिल है। आपकी आंखों में वासना के अलावा कुछ है ही नहीं और वासना के अलावा कुछ देख ही नहीं सकती। देखेंगे तो वासनायुक्त ही देखेंगे। इससे घटिया कोई आंख दुनियां में हो ही नहीं सकती। आप किसी स्त्री को बहन के रूप में देख नहीं सकते, मां के रूप में देख ही नहीं सकते। मां भी बहुत सुन्दर होती है, बहन भी बहुत सुन्दर होती है, पत्नी भी बहुत सुन्दर होती है, प्रेमिका भी बहुत सुन्दर होती है। सारा शरीर भी सुन्दर होता है। प्रातः काल सूर्य उदय भी बहुत सुन्दर होता है, चिडि़यों का चहचहाना भी बहुत सुन्दर होता है और झूमता हुआ वृक्ष और पुष्प भी बहुत सुन्दर होता है। क्या आप ने इस सुन्दरता को कभी एहसास किया, अनुभव किया, अपने अन्दर उतारा!
इसलिए नहीं उतार सके क्योंकि आप कृष्ण को नहीं समझ सके, क्योंकि आप गुरु को नहीं समझ सके, उसके प्रेम को नहीं समझ सके। वेद व्यास ने इस एक श्लोक के प्रारम्भ से अन्त तक जीवन का वर्णन कर दिया। हमारा जीवन क्या है, हमें क्या करना चाहिए यह हमें समझाया, हम कैसे कृष्ण बन सकते हैं, यह समझाया। कोई ठेका नहीं है कि देवकी ही पैदा करेंगी तो कृष्ण ही पैदा हो सकते हैं, कोई यशोदा का ठेका नहीं है कि वही कृष्ण को पाले। कोई सांदीपन का ही ठेका नहीं है कि वही कृष्ण को उपदेश दें, प्रत्येक शिष्य अपने आप में श्रीकृष्ण बन सकता है, यदि उसमें इन गुणों का समावेश हो। आप स्वयं बैठ कर सोचें कि जो गुरु ने कहा है कि क्या वह आप में है, क्या आप वापस इस प्रवचन को सुनेंगे कि गुरु ने क्या कहा था? क्या आप में इच्छा है कि गुरु ने जो कहा था उसके एक-एक शब्द को जीवन में उतारूं। क्या आपकी आंखों में हिरण की तरह प्रेम है, क्या आपकी आखों में तेजस्विता है, क्या आपके अंदर ऊपर के परफ्यूम में घुसकर अष्टगंध को अनुभव करने की क्षमता है। क्या प्रेम में गुरु को भुजाओं में भरकर अपने को लीन करने की क्रिया है?
यह नहीं है तो वेद व्यास मूर्ख हैं जो उन्होंने इस श्लोक की रचना की और मैं मूर्ख हूं जो इस श्लोक को आपके सामने रखा। मैं यह पहली बार नहीं कह रहा हूं कई बार कह चुका हूं और कहता रहूंगा कि मैं अपना कर्त्तव्य करता रहूंगा, जीवन में अंतिम सांस तक भी और आप भी ऐसे ही बने रहना। आखिर गुरु के प्रति कोई ममत्व, प्रेम होना चाहिए, समर्पित होने की क्रिया आप में होनी नहीं चाहिए, आप में वहीं ईर्ष्या, छल, कपट, होना ही चाहिए, उतना ही दम्भ, अहंकार आप में होना ही चाहिए और आप भरे हुए दीपक होने ही चाहिए ताकि मैं कुछ डाल ही नहीं सकूं और भरा हुआ दीपक जलता नहीं है बुझ जाता है, इसलिए दीपक को आधा रखते हैं कि वह जल सके। उस भरे हुए घड़े में भरूंगा भी क्या, वह पहले से ही भरा है।
मैं कहता हूं तो आप मजबूरी में सुनते हैं और कर लेते हैं। यह मेरी मूर्खता है कि मैं आपको कहता हूं। मैं इस बात का एहसास करता हूं और मैं इस बात पर गर्व भी करता हूं कि आप नहीं सुधर रहे हैं। यह बात मेरी बहुत कठिन और दुर्लभ है, पर यह बात मेरी नहीं है वेद व्यास की बात है, उस व्यक्ति की बात है जिसने पूरे वेदों को मथ कर के रचना की, करोड़ों-करोड़ों ऋषियों की वाणी को संग्रहित करके चार वेदों में संग्रहित किया, एक ग्रंथ बनाया—–उन वेद व्यास की बात कर रहा हूं जिन्होंने ऐसे ग्रंथों की रचना की जिनके बारे में कहते हैं कि ब्रह्मा के चार मुखों से चार वेदों का उच्चारण किया।
आपके जीवन में थोड़े भी पूर्व जन्म के पुण्य हो, बाप, दादा, परदादा के पुण्य हो, हो तो आप जन्माष्टमी के दिन एक चीज को भी या प्रेम को भी उतार दें जीवन में, अहंकार छोड़कर के भी एक बार भी प्रेम में बंध सकें, एक बार भी उस सुगन्ध के झोके को अपने नथुनों में भर सकें, एक बार भी श्रृंगार युक्त होकर के सामने वाले को भी आनन्द का एहसास करा सकें, एक बार वास्तव में आनन्दमय होकर उस दिन को व्यतीत कर सकें तो मैं सोचूंगा कि मेरा कहना सार्थक रहेगा। वेदव्यास के एक अक्षर को भी समझ सकें, अपने अन्दर उतार सकें। आप वेद व्यास को पूरा नहीं तो एक कण भी उतार सकें तो यह बहुत बड़ी बात होगी। और उतार सकेंगे तभी आप कृष्ण बन पाएंगे, बुद्ध बन पाएंगे, महावीर बन पाएंगे। यह कितना विपरीत बिन्दु है कि जो बिल्कुल अहिंसा का पुजारी हो, अहिंसा का धर्म चलाया हो, चींटी को मारने से भी पाप लगता है ऐसा धर्म चलाया, उसी व्यक्ति को वीर कहा गया और वीर नहीं महावीर कहा गया। वीर वह होता है जो लड़ाई झगड़ा करता है, युद्ध में शत्रुओं को मारता है। परन्तु यहां वीर का एक बिल्कुल विपरीत अर्थ बन गया है, यह समझा गया है कि चींटी पर भी पांव पड़ जाये तो बहुत पाप लगता है, कि जीवन जो हम जी रहे हैं उसे हम समझ नहीं पाये हैं।
जीवन जो तुम जी रहे हो वह जीवन नहीं है। इसी प्रसंग में एक ग्रंथ हनुमान स्मृति जिसमें हैं तो केवल 52 श्लोक और वे स्वयं एक बहुत बड़े विद्वान थे। उन्होंने शिष्यों के छः गुण बताए हैं। जिस प्रकार वेद व्यास ने श्रीकृष्ण के अर्थ बताये हैं ठीक उसी प्रकार हनुमान ने शिष्य के गुण बताये, जिनसे वह श्रेष्ठता तथा पूर्णता प्राप्त कर सकता है। उन्होंने एक श्लोक में कहा-
यशस्त देह भवतम् वदन्न सदांय पूर्ण परा
चिन्तय विचित्यं रूपं सर्वश्य देव्य भवतां
भव शिष्य रूपं ज्ञातवं प्रथेक प्रता पवचनैरूपं:
उन्होंने कहा कि मैं अपने जीवन में केवल शिष्य बनना चाहता हूं, दास बनना चाहता हूं। आज जिसे हम शिष्य कहते हैं पहले उसे दास कहते थे। दास का अर्थ है देने वाला, जो निरन्तर, अपने पास जो है वह देता रहे, उसे दास कहते हैं। किसी के पास तन है, किसी के पास मन है और किसी के पास धन हैं। इन तीनों से मिलाकर जो चीज बनती है उसे जीवन कहते हैं।
उन्होंने शिष्य के छः लक्षण बताए हैं, इस श्लोकों में उन्होंने पहली बात यह कही है कि मैं चाहे कितना ही चीखूं पर आने वाली पीढि़यां इस श्लोक पर अमल नहीं करेंगी। क्योंकि उनका चित्त निर्मल होगा ही नहीं चित्त इतना दूषित और कलुषित हो जाएगा कि अपने जीवन में वे ऊंचे शिष्य बन ही नहीं सकेंगे और बनेंगे तो ऐसा होगा जैसे चींटी समुद्र को पार कर लें। परन्तु चींटी समुद्र को पार कर सकती है। उन्होंने शिष्य का पहला गुण बताया है कि अगर उसे शिष्य बनना ही है तो समय उसके लिए कोई मूल्य नहीं रखता, केवल यहां मूल्य रखता है कि गुरु क्या आज्ञा देते हैं और मुझे कैसे पालन करना है। गुरु कहता है तो मुझे करना है। मुझे तर्क-वितर्क नहीं करना है।
दूसरा उन्होंने कहा कि शिष्य की नींद श्वान निन्द्रा की तरह होती है, जैसे कुत्ता सोता है, जब कुत्ता सो रहा होता है तो अगर पास से सौ बार आदमी निकलेंगे तो वह पांच सौ बार उठता है। शिष्य की नींद श्वान निन्द्रा की तरह होती है ऐसा नहीं है कि घोर नींद में सोता रहे। तीसरा शिष्य का गुण बताया है कि वह मन को इतना दिव्य बना दे कि बाहर की दूषित हवाएं उस पर नगण्य हों। आस-पास की गंदी हवाएं उस पर असर नहीं कर पाये, उस पर विकारों का कोई प्रभाव न हो। जो 36 संचारी भाव होते हैं, वे उस पर व्याप्त न हों और मन में किसी प्रकार का अहंकार, क्रोध, काम और कपट आये नहीं।
चौथा उन्होंने बताया कि यदि शिष्य के किसी भी अंग को चीर फाड़कर देखा जाये तो उसमें केवल राम शब्द ही निकले या गुरु शब्द ही निकले। जब राम ने कहा कि हनुमान क्या तुम मुझे वास्तव में याद रखते हो तो उन्होंने कहा मेरे पास कोई और प्रमाण नहीं है और कहा कि मेरे हृदय में आपके और मां सीता के अलावा कोई और हो तो मुझे दिखा दीजिए। राम के मन में संदेह का एक बिन्दु उभरा और उन्होंने उसी क्षण प्रमाण दिया। उन्होंने कहा कि हो सकता है कि किसी कारण से आपके मन में संदेह उभरा, परन्तु आप देख लें कि मैं आपका दास हूं, मैंने सुग्रीव को भी छोड़ दिया तो उस क्षण से मेरे जीवन में दूसरा कोई रहा ही नहीं। पांचवा उन्होंने कहा कि शिष्य प्रत्येक उस कार्य को करे जिससे गुरु को प्रसन्नता मिले। जब सम्बन्ध बना ही दिया गुरु और शिष्य का, जब हम शिष्य बन ही गए तो प्रत्येक उस कार्य को करना है जो कार्य गुरु को कठिन लग रहा हो या जो काम हो नहीं रहा हो या जिस कार्य के कारण वे चिंता में हों तो उस समय मंत्री के रूप में सलाह देते हुए, सेवक भाव से अपनी सलाह भी दे और फिर अगर उनकी गर्दन भी हिले तो उस कार्य को कर देना चाहिए।
छठा हनुमान ने कहा कि एक बार गुरु मान लिया तो जो शत्रु हैं आलस्य, अति भोजन, तर्क-वितर्क, मन में द्वेष रखना गुरु के अलावा मन में कोई और चिंतन करना और किसी प्रकार का दिखावा, असत्य का विचार करना। ये छः प्रकार के शत्रु है जिन्हें त्याग देना चाहिए। ये शिष्य को समाप्त कर देते हैं। अगर आप आलस्य में बैठे रहें और कार्य नहीं करें या पूजा का ढोंग करें, या असत्य का उच्चारण करें, या लेटे रहें और देखते रहें कि कौन क्या कर रहा है, कैसे कर रहा है ये सारी चीजें आपके जीवन को पतित ही करती हैं। शिष्य तीव्र गति से गुरु के कार्य को सम्पन्न करें, अपने सुझाव और विचार गुरु के समक्ष प्रकट करें, कि ऐसा करने से और कार्य हो सकता है। रचनात्मक सुझाव हों, आलोचना नहीं और गुरु जो आज्ञा दें उसी का पालन करें। अपने जीवन का इस प्रकार निर्माण करना ही जीवन को पूर्णता देना है। मन में कोई और चिंतन हो ही नहीं केवल यही चिंतन हो कि गुरु आज्ञा दें और मुझे पालन करना है, क्यों करना है यह कोई तर्क नहीं है।
मगर हमारे जो विकार हैं, हमारे जो अन्दर का कपट है, वह जीवन की उपलब्धि नहीं है, जीवन की गन्दगी है और जीवन की गन्दगी को हम सुबह ही त्याग देते हैं, भगवान ने ऐसा हमारा शरीर बनाया है कि शरीर की गन्दगी को हम निकाल देते हैं। सुबह उठते ही सबसे पहले वह कार्य करते हैं और जब गुरु के दर्शन होते है, तो हमारे विकार समाप्त होते ही हैं। मन की गन्दगी, प्रातःकाल उठते ही स्वतः ही निकाल देते हैं। मन उससे स्वच्छ बनता है और तन भी उससे स्वच्छ बनता है। दिन भर अपने कार्य में जुटे रहना, गुरु का कार्य कर लेना और अपनी जीभ को मलिन नहीं करना असत्य बोलकर के और जो गलती हो गई हो लिखकर के गुरु के सामने प्रायश्चित कर देना यह जीवन की उच्चता है। जीवन में रचनात्मक काम हो या हम संकल्प करें। आप अपने कर्तव्य में लगे रहें, आप अपने विकार समाप्त करें, गुरु के सामने आपकी आंख नीची रहे, जब आप धरती पर आ ही गए हैं तो गुरु के प्रति समर्पित रहें और कोई जीवन में गर्म हवा या संगति का प्रभाव आप पर हो ही नहीं और तीसरी बात भी यही कहता हूं कि संगति का प्रभाव आपके जीवन को ध्वस्त कर देगा न आप गुरुमुखी हो पायेंगे न जीवन मुखी हो पायेंगे। आप पूर्ण रूप से समाप्त हो जायेंगे।
इसलिए जीवन का प्रत्येक क्षण रचनात्मक कार्य करने में लगाना चाहिए। प्रमाद, आलस्य और असत्य ये तीनों ही आपके जीवन को समाप्त करने के लिए बहुत हैं। इसलिए मन को गुरु के साथ जोड़ दें। आपकी आंखे उनके सामने नमन हों, आप में श्रद्धा भाव हो, आपकी आंख में प्रेम हो और समर्पण का भाव हो। आपका भाव हनुमान की तरह हो जिनकी आंखें हमेशा राम की तरफ लगी रहती थीं, कि कब उनका आदेश हो और मैं उनके कार्य को करूं। ऐसा ही भाव आपका हो और आप सही शिष्य बन जायें हनुमान की तरह, जिन्हें करोड़ों लोग पूजते हैं। आप महावीर बन सकें, कृष्ण बन सकें आपका जीवन प्रामाणिक शिष्य बनने की ओर बढे़। यही जीवन की श्रेष्ठता है, उच्चता है। इसलिए एक ऋषि ने कहा है-
प्रयत्न सदैवं भव नित्यं पूर्ण सदावै प्रसन्न, रक्षोत्मेव
आत्मं वतां पूर्ण सदैव रूपं, सदैव रूपं, गुरुवै सदात्यं।
ऋषि ने जीवन की व्याख्या की है कि जीवन ऐसा होता जैसा कि तपती हुई दोपहरी में नंगे पांव गतिशील हो। शरीर झुलसता रहता है, पैर में छाले पड़ते रहते हैं। जीवन में व्यंग्य बाण सहन करने पड़ते हैं, उसके बाद भी व्यक्ति गतिशील रहता ही है। वे लोग बहुत धन्य होते हैं, जो ऐसे पुरूष के सानिध्य में होते हैं, जहां अभय होता है, निश्चिंचतता होती है, जहां प्यार है, पवित्रता है, दिव्यता है वहां सौन्दर्य है। रक्षाबंधन का अर्थ है कि हम ऐसा प्रेम का वातावरण बनाएं, ऐसा चरित्र बनाएं जो हमारे अंदर की चरित्रहीनता, न्यूनता, मैलापन, झूठ, छल और कपट समाप्त हो जाये। हमारे अंदर इनके अलावा कुछ रहे ही नहीं। जिस रक्त की बूंद में झूठ और छल हैं, जिस रक्त की बूंदों में नफरत लिखी रहती है उन रक्त की बूंदों से आनन्द की अनुभूति नहीं हो सकती। वह रक्त बहने के लिए ही होता है, मरने के केवल 30 मिनट के अंदर पूरा खून पानी बन जाता है।
कोई न कोई कारण होगा कि मैं आप लोगों के बीच हूं, मैं समझता हूं कि आप शिष्य हैं। मैं समझता शब्द का प्रयोग कर रहा हूं क्योंकि अभी आप पूर्ण शिष्य बन नहीं पाये हैं। शिष्य तब होंगे जब आपकी आंखों में हिरण की तरह पवित्रता का बोध हो। आप अगर गाय या हिरण की आंख देखें तो उसमें बहुत स्वच्छता होती है, अपनत्व का भाव होता है जहां कोई गन्दगी या मैलापन नहीं होता। हम कर्म क्या करते हैं वह एक अलग तथ्य है और आंख क्या है, वह एक अलग बात है। रक्षाबंधन का दिन एक रक्षा का दिन है। राखी का अर्थ जो रक्षा कर सकें या रक्षा का निवेदन कर सकें। राखी शब्द रक्षा से बना है। रक्षंन्तोवै पूर्ण प्राणश्चवै पूर्णत्व रूपं सदैव सहाया जो तन, मन और जीवन की रक्षा में समर्थ हो और यदि ऐसा रक्षक मिले तो सही अर्थों में वह राखी का पर्व होता है, त्यौहार होता है। यों तो इस दिन भी सूर्य पूर्व से उगेगा जीवन वैसे ही बीतेगा। मगर निश्चिंतता और निर्भीकता उस दिन आती है कि हम किसी के हाथों में है, कोई हमारे साथ है, हम अकेले नहीं है, चाहे हमारे मां बाप हों, चाहे भाई बहन हो, चाहे गुरु हों, चाहे ईश्वर हों और रक्षाबंधन तो मन का एक चिंतन है, मन की विचार धारा है और जब मन में मैलापन आ जाए तो समझ लीजिए कि हम राक्षसत्व की ओर बढ़ रहे हैं।
आप में अहंकार की भावना है, मन में यह आता है कि मैं क्यों झुकूं, अभी भी संदेह के बीज आपके मन में बोए हुए हैं और यदि इस दिन भी ये बीज विद्यमान रहते हैं तो भविष्य में भी समाप्त नहीं हो पायेगे। रक्षाबंधन का दिन पहला और आखिरी दिन है जब आप मन से एक दूसरे के प्रति प्यार प्रकट कर सकते हैं, एक दूसरे के प्रति समर्पित हो सकते हैं, मन से किसी को रक्षक मान सकते हैं, मन से अग्रसर होते हुए पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं। प्रश्न केवल जोधपुर और दिल्ली का नहीं है, अपितु पूरे भारतवर्ष, संसार, पूर्व सिद्धाश्रम के योगी, यति, संन्यासी प्रत्येक यही कामना करते हैं कि गुरुदेव मेरे सामने रहें और मैं यथा संभव उस प्रकार का वातावरण बनाने की कोशिश करता हूं कि जो जिस प्रकार प्रसन्न हो, मन से उसको उसी प्रकार प्रसन्न करने की कोशिश करता रहा हूं। परिवार में पांच लोगों को भी प्रसन्न करना बहुत बड़ा कार्य है। पूरे भारत वर्ष में लाखों लोगों को प्रसन्न बनाए रखना बड़ा कठिन कार्य होता है। सभी लोग समर्पित और डिवोटी होते हैं, वे प्रसन्न होते हैं और आज्ञा-पालन करने को तत्पर होते हैं। यह कोई विशेषता की बात नहीं कह रहा हूं। जब आपके पास प्रेम का सागर उमड़ रहा हो तो उसमें जो स्नान करेगा, वह अपने आप में प्रेममय बनेगा ही बनेगा। आज आप नफरत को दूर कर दें, कोई छोटा और बड़ा नहीं होता। आप इतने महान नहीं है कि हिमालय से भी ऊंचा आपका सिर हो सके, आप इतने घटिया भी नहीं हैं कि कोई आपको ठोकर मारकर चल दे। आप मेरे साथ उस स्टेज पर खडे़ हैं जहां दो रास्ते हैं- राक्षसत्व की ओर और देवत्व की ओर। जहां आपके मन में मैल आएगा, किसी के प्रति संदेह पैदा होगा, तो समझ लीजिए कि मैं राक्षसत्व की पगडंडी पर पांच-सात कदम बढ़ा हूं। वह जीवन का पतन है, जीवन की न्यूनता है। जीवन में आपके एक संदेहशीलता है।
यह मेरा सौभाग्य है, एक आनन्द प्रद क्षण है कि मैं आपके साथ हूं, यह भी मेरा सौभाग्य है कि आप आज्ञापालन के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। मगर यह भी मैं कहना चाहता हूं, बहुत उजले कपड़ों में एक कालिमा का छोटा सा बिन्दु पूरे कपड़ों को सत्यानाश कर बैठता है और उनकी सफेदी समाप्त हो जाती है। यदि आप में कही पर भी कोई नफरत के बीज, नफरत की कालिमा है, तो यह क्षण ऐसा है जो साल भर बाद आता है जब आप अपने अंदर की न्यूनता को समाप्त कर सकते हैं।
ये यथा माम् प्रपदयन्ते तां स्तथ्येव भजाम्यहम्
जो जिस रूप में देखता है उसी रूप में सामने वाला व्यक्ति खड़ा होता है। देखने की दृष्टि आपकी होती है, आप किस रूप में सामने वाले को देखते हैं उस रूप में आप अपना मूल्यांकन कर सकते हैं। मगर फिर भी मैं चाहता हूं कि यह शिष्यों का छोटा सा समुदाय प्रसन्नता से ओत-प्रोत रहे, आनन्दप्रद रहे। यदि ऐसे क्षण आपके साथ व्यतीत हो सकें तो यह आपका सौभाग्य ही है।
यह जीवन तो वैसा ही है जैसे समुद्र में पानी का बुलबुला है जो बनता है और फूट जाता है। इस विशाल ब्रह्माण्ड में जीव का कोई अस्तित्व नहीं होता। वह एक बूंद के समान होता है और एक छोटी सी बूंद को बनाए रखना बहुत कठिन होता है क्योंकि चारों तरफ एक अंधड़ होता है, एक तूफान होता है, उन नन्हें से दीप को जलाए रखना बहुत कठिन काम होता है। त्याग करना पड़ता है, बहुत कुछ खोना पड़ता है और जहां नफरत है वहां से अपने आपको हटाना पड़ता है। यह मैं ही जानता हूं कि पिछले 50-60 साल की जो जीवन की यात्र की है, कितनी गर्म दोपहरी, कितनी तपती हुई धूप और कांटों के बीच यात्र की है। जहां कांटों के बीच यात्र की है, जहां पैर लहलुहान हुए हैं, जहां बड़े-बड़े शूल और कांटों से पैर छिले हैं, भीष्म को तो शायद 108 बाण लगे थे और शर शय्या पर पड़ गए थे और यदि मैं अहमन्यता नहीं करता तो शायद कई हजार तीर मेरे जीवन में लगे हैं और लगते जा रहे हैं।
मगर यह तो जीवन है वैसा होगा ही मैं लंका में राम की कल्पना करूं तो मेरी मूर्खता है, मैं आपको उपदेश देने के लिए नहीं बैठा हूं। मैं तो यह बता रहा हूं कि हम किस प्रकार से अपने आपको समर्पित कर सकते हैं, प्रेम मय बना सकते है और रक्षाबंधन के लिए अपने अंदर की कलुषता को धो करके स्वच्छ और अद्वितीय बन सकते हैं। और यदि ऐसा बन सकते हैं तो महावीर ने कहा है- खमं जीवेणत नः, हम पहले क्षमा मांगे क्योंकि-
नमन्ति फलिनो वृक्षः नमन्ति गुणिनोजनाः
शुष्क काष्ठं च मूर्खं च न नमन्ति कदाचनः
जो बहुत फलदार वृक्ष होता है वह सबसे पहले झुकता है, जो सूखी हुई लकड़ी है, वह ठूंठ की तरह खड़ी रहती है। रक्षांबधन उत्सव का दिन है, आनन्द का दिन है, प्रेम का दिन है और जब भी आपकी आंख में गंदगी आए, ओछापन आए, तुच्छता आये तो समझ लीजिए कि आप ही घटिया हैं, ओछे हैं। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, चैतन्य और ईसा मसीह गंदे नहीं थे, गंदे हो नहीं सकते, लोगों की आंखें गन्दी थी और वे सबके जीवन में आनन्द ही भरना चाहते थे।
मैं अपने रक्त की बूंदों से आपके हृदय पर प्रेम शब्द अंकित कर रहा हूं, फिर अपने जीवन के मधुर क्षणों को आपके अंदर उतारने की कोशिश कर रहा हूं, फिर मैं आपकी आंखों में उतरकर एक प्रेम का पाठ पढ़ाने के लिए खड़ा हुआ हूं।
और मैं चाहता हूं कि आपसे इतना अधिक प्यार मिले, प्रेम मिले, समर्पण मिले कि आपका हृदय गदगद हो, कंठ अवरूद्ध हो, आपकी आंख में अश्रुधार हो और आपका जीवन समर्पित हो और उसके बदले में आप मेरा सब कुछ प्राप्त कर सकें मैं ऐसा ही आपको आशीर्वाद देता हूं, ऐसी ही कल्याण कामना करता हूँ।
सद्गुरुदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरान्द जी
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