हे भगवन् प्रसन्न हों। मेरी आत्मा अज्ञान में भ्रमित है। मुझे आपके चरण-कमलों के पराग में आसक्त श्रेष्ठ भक्ति प्राप्त हो।।1
हे अनादि भगवन्! आप असीम तेज पुंज-स्वरूप हैं। प्रसन्न हों! मेरे दुःख को नष्ट करने वाले अनुपम पुरूष-श्रेष्ठ! प्रसन्न हों।।2
हे परमेश्वर! आप ही स्वयं अपने को जानने वाले आनन्द मय आत्मा हैं। आप निर्विकार हैं, आपकी भक्ति अचिन्तनीय है, आप विश्व-रूप हैं। मुझ पर प्रसन्न हों।।3
आप उन्नतों से भी उन्नत हैं, आप कल्याणकारी शोभा वाले हैं। आप गम्भीर गुणवानों से भी गुण-गम्भीर हैं। हे महा तेजस्वी! मुझ पर प्रसन्न हों।।4
आप विश्व-रूप में फैले हुए हैं, फिर भी अदृश्य हैं। विश्व व्यापक तत्त्वों के लिए भी आप अदृश्य हैं। दुःखों से व्याकुल प्राणियों पर आप प्रसन्न हों। अछूतों से भी अधम् लोगों पर आप प्रसन्न हों।।5
हे परमेश्वर! आप श्रेष्ठों में भी श्रेष्ठ हैं। आप असंख्य शरीर धारी हैं। हे माधव! आप माया-मय हैं, आपकी जय हो। हे शंख-धर! आपकी नित्य जय हो।।6
हे श्रीमान् शंख-धर! आपकी जय हो। हे नन्द-नन्दन! आपकी जय हो। हे चक्र-गदा-हस्त! आपकी जय हो! हे देव जनार्दन! आपकी जय हो।।7
आपके सिर पर श्रेष्ठ रत्न-जटित मुकुट है। आपकी जय हो। आप गरुड़ के अधिपति हैं। हे लोहित-वर्ण! आपकी जय हो।।8
हे नरक-शत्रे! आपको नमस्कार। हे मधु-नाशक! आपको नमस्कार। हे चारू-नेत्र! आपको नमस्कार। हे नरक-नाशक! आपको नमस्कार।।9
हे पाप-नाशक ईश्वर! आपको नमस्कार। हे सर्व-भय-नाशक! आपको नमस्कार। हे विश्वम्भर! आपको नमस्कार। हे कौस्तुभधारी। आपको नमस्कार।।10
हे भय-नाशक! आप दृष्टि से परे हैं। आपको नमस्कार। आप विविध प्रकार के वेष वाले हैं, आप शब्दों से भी परे हैं। आपको नमस्कार।।11
आप परमात्मा हैं, फिर भी तीन रूपों से सृष्टि, स्थिति और संहार करते हैं। विष्णु-रूप में आप देवताओं के शत्रुओं को पराजित करते हैं। आपको नमस्कार।।12
आप सुदर्शन-चक्र द्वारा शत्रुओं के चक्रव्यूह का नाश करते हैं। आप चक्र-धारी हैं, आप चक्र-बन्धु हैं। आप विश्व रूप हैं और विश्व द्वारा वन्दनीय हैं। विश्व के सभी प्राणी आपके ही अनुयायी हैं।।13
योगि-गण आपका ध्यान करते हैं। आपको नमस्कार। आप अध्यात्ममय हैं। आपको नमस्कार। आप भक्तों को भक्ति और मुक्ति देते हैं। आपको प्रणाम।।14
हे देवेश! पूजा, होम, चेष्टा, ध्यान और प्रणाम-मेरे सभी कर्म आपकी उपासना-रूप हो।।15
इस प्रकार होम, जप, पूजा आदि सभी कर्मों को हृदय से विष्णु-पूजा मानते हुए जो मंत्र-साधक सदा चिन्तन करता है, वह सभी अभीष्ट कामनाओं को पाकर अपनी आत्मा से कृष्ण-रूप हो जाता है।। 16
जो ‘गोप, गोपी’ और ‘गो-गण’ द्वारा वेष्ठित होकर ‘गो-पालन’ करते हैं, जो ‘गो’ अर्थात पृथ्वी को ‘गो’ (रश्मि) प्रदान करते हैं, जो ‘गोप’ -वृन्द जिन्हें ‘गो-सहस्त्र’ अर्थात सहस्त्रों वाक्यों द्वारा स्तुति कर प्रसन्न करते हैं, उन्हीं ‘गो’-कुल-नायक’ को मैं नमस्कार करता हूं।।17
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति के लिए जगद् में व्याप्त पुरूषोत्तम जगन्नाथ को इस स्तवन के द्वारा प्रसन्न करना चाहिए।।18
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