हवन यज्ञ का ही एक अंग है। प्राचीन समय में लोग सुख की स्थितियों में निरन्तरता बनी रहे। इसी हेतु अपने घरों में प्रतिदिन हवन किया करते थे उन्हें अग्निहोत्री कहा जाता था। इन्हीं पारम्परिक धारणाओं के कारण दो वेद पढ़ने वाले द्विवेदी, तीन वेद पढ़ने वाले त्रिवेदी और चारों वेदों का अध्ययन करने वाले, चतुर्वेदी कहलाये।
यज्ञ करने में तीन चीजों का विशेष योगदान है दान, देवपूजन और इस सबका संगतिकरण। ‘यज्ञो वै श्रेष्ठकर्म’ वेदों में कहा गया है जो भी श्रेष्ठ कर्म हैं वे सब यज्ञ कहलाते हैं इसके लिए सत् कर्म और सत् ज्ञान की विशेष आवश्यकता है विश्व के जो भी कार्य परोपकार हेतु किये जाते है वे सभी यज्ञ कहलाते है। गीता में कहा गया है-
द्रव्य यज्ञ, तप यज्ञ, दान यज्ञ, स्वाध्याय यज्ञ और ज्ञान यज्ञ इन यज्ञों में ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है। श्रीकृष्ण भगवान ने कुरूक्षेत्र में अर्जुन से कहा है कि द्रव्यादि यज्ञ करने वाले और प्रसिद्ध व्रतों को करने वाले योगी, यति होते हैं किन्तु मैं ज्ञान यज्ञ से ही प्रसन्न होता हूं।
शुक्ल यजुर्वेद में भी कई यज्ञों का विधान बताया गया है जैसे अग्निषोम यज्ञ, सोम यज्ञ, पुत्रेष्टि यज्ञ, अश्वमेध यज्ञ, सर्वमेध यज्ञ, नरमेध यज्ञ, गोमेध यज्ञ आदि। गोमेध यज्ञ में सही रूप में अपने अन्दर पशु रूपी राक्षसी वृत्ति को नष्ट करना ही वास्तव में इसका उद्देश्य है। गाय की तो माता के रूप में वन्दना की जाती है। उसको मारा नहीं जाता। इसी प्रकार अश्वमेध यज्ञ में भी अश्व का स्पर्श किया जाता है उसका वध नहीं किया जाता। इन सब बातों का उल्लेख मीमांसा दर्शन में देखने को मिलता है।
शासन सम्बन्धी विकृतियों को दूर करने के लिए राज-सूर्य यज्ञ का विधान है और धार्मिक क्षेत्र में एकता लाने के लिए वाजपेयी यज्ञ बताया गया है। सोमयज्ञ के बारे में बताया गया है कि इसमें सोमलता को काम में लाया जाता है।
सोमयज्ञ के करने से मनुष्य की सब कामनायें पूर्ण होती थी, सोमलता के रस से आहूति देने से देवता प्रसन्न होते है।
पुत्रेष्टी यज्ञ के विषय में बताया जाता है कि इस यज्ञ में बेंत की लकड़ी की आहुति दी जाती है। इस यज्ञ को करने से पुत्र की प्राप्ति अवश्य होती है। राजा दशरथ ने पुत्र की कामना हेतु पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया था। गीता में कहा है कि-
अर्थात् अग्नि में सम्यक् आहुति देने से सूर्य देव प्रसÂ होते हैं अर्थात् अग्नि के प्रसन्न होने से वर्षा होती है वर्षा से अन्न और अन्न से प्रजा के कार्यों की वृद्धि होती है। हवन करना पूरे ब्रह्माण्ड के लिए परोपकार का कार्य है। पुराने समय में तो केवल स्वरीय कामनाओं की पूर्ति हेतु यज्ञों का संकल्प किया जाता था परन्तु वर्तमान समय में अन्वेषकों ने यह सिद्ध किया है कि हवन में जो पदार्थ आहुति के रूप में डाले जाते हैं वे गैस बनकर पृथ्वी के समस्त जीवमण्डल के लिए लाभदायक है। इनसे वनस्पतियों, प्राणियों, सभी जीव जगत को लाभ मिलता है। वातावरण शुद्ध रहता है।
वर्तमान में जो हवन यज्ञ किये जाते हैं, उसमें कई प्रकार के मेवे, फल, मिठाई तथा घी आदि डाला जाता है। शोध कर्ताओं ने बताया है कि एक बूंद घी के खाने से शरीर को जो लाभ मिलेगा। उससे कई गुना अधिक शक्ति उस एक बूंद घी को जलाने से मिलेगी। हवन यज्ञ को करने से जो गैस उत्पन्न होती है वह बहुत शक्तिशाली बताई गई है। हवन यज्ञ में कुछ ऐसी वनौषधियां आजकल डाली जाने लगी है जो शारीरिक रोगों को भी दूर करने की शक्ति रखती है।
अग्निष्टोम यज्ञ के बारे में बताया गया है कि इसकी भस्म को चिकित्सकों ने मरहम और पाउडर बनाकर प्रयोग किया है। जो त्वचा के लिए विशेष लाभकारी बताया गया है। श्रुतियों में कहा गया है कि ‘अग्नि र्वै देवा मुखम्।’ अग्नि देवताओं का मुख है। ऋषियों की मान्यता है कि अन्न फल आदि का भोग लगाने से देवता प्रसन्न होते हैं और वे इस भोग सामग्री को स्वीकार करते हैं किन्तु यदि हवन यज्ञ के माध्यम से इसी भोग सामग्री को अग्नि में स्वाहा कर दिया जाय तो यह गैस बनकर वायुमण्डल में मिश्रित होकर सूक्ष्म रूप से अन्तरिक्ष तक पहुंच जाती है और देवता इसे वास्तविक रूप से ग्रहण करते हैं।
पुराने समय में बच्चे के जन्म लेने के बाद उस कमरे में 6 दिन तक अगींठी आदि के द्वारा अग्नि जलाकर वातावरण को शुद्ध किया जाता था। यह प्रथा आज भी दूर-दूर के गांवों तथा कस्बों में देखने को मिलती है। यह भी एक प्रकार का यज्ञ ही है, वास्तव में बच्चे को सुसंस्कारित बनाने के लिए ये सभी क्रियायें की जाती थी।
गर्भ धारण करने के बाद पुंसवन संस्कार में यज्ञ करके उस यज्ञ से बची हुई खीर माता को खिलाई जाती थी। जन्म लेने के बाद नामकरण करते समय भी यज्ञ होता था । बच्चे को अन्न खिलाने के लिए पुनः हवन यज्ञ करके उसका अन्नप्राशन संस्कार किया जाता था। चूड़ाकर्म संस्कार और विद्या आरम्भ करने के लिए उसका यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता था।
मनुष्य की मृत्यु के बाद भी जब उसके शव को चिता में रखा जाता है तो उस चिता को भी वेदी के ढंग से सजाया जाता है यह भी एक यज्ञ है। शव को चिता में रखने के बाद प्रथम मुखाहुति दी जाती है सात आहुतियां घी की दी जाती है। यह अन्त्येष्टि यज्ञ है फिर इसके बाद श्राद्ध के द्वारा उसके कर्मों को पूर्ण किया जाता है। यह भी यज्ञ है जिसमें तर्पण और हवन के द्वारा उसी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की जाती है। ये यज्ञ पांच तरह के बताए गये हैं। ब्रह्म यज्ञ-इसमें गायत्री जप किया जाता है तर्पण जल से दिया जाता है।
पितृ यज्ञ- इसमें पिण्डदान किया जाता है 72 पिण्ड होते है। माता के लिए 76 पिण्ड बताये गये हैं। भूत यज्ञ- इसमें पंचबलि दी जाती है अर्थात् गाय, श्वान, पिपिलिका, देवता और कौओं को भोग दिया जाता है।
मनुष्य यज्ञ- इसमें असहाय, असमर्थ लोगों के लिए जो अन्नदान, धनदान दिया जाय उसे मनुष्य यज्ञ कहते हैं।
देव यज्ञ- अच्छे कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए इसमें समय और साधन लगाया जाता है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन यज्ञमय होता था। आज भी ये संस्कार आधुनिक रूप में किये जाते हैं। अतः आज के युग में वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टि से हवन यज्ञ करना अति श्रेयस्कर है जो कि हमारी भारतीय संस्कृति के अनुकूल है। इस हेतु विधि-विधान से चैतन्य हवन कुण्ड व हवन सामग्री के साथ प्रकाण्ड पण्डितों, आचार्यो और श्रेष्ठ गुरु के सानिध्य में करने से निश्चित रूप से जीवन में श्रेष्ठता आती ही है।
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