जिस प्रकार शरीर में मस्तक आदि कुछ अंग पवित्र माने गये हैं, उसी प्रकार पृथ्वी पर भी विशेष स्थान पवित्र होते हैं। अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार) काशी, कांची, अवन्तिका और द्वारका ये सात प्रधान तीर्थ हैं। ये सातों पुरियाँ मुक्ति को देने वाली है। इन सप्त पुरियों में मुक्ति प्रदान करने की शक्ति उनमें सन्निहित भगवत् स्वरूप के कारण ही है।
तीर्थ यात्रा करने के निश्चय हेतु मन से भगवान् का स्मरण करें। जिससे भगवत् ज्ञान को आत्मसात कर सके। इसके विपरीत घर-परिवार-धन आदि में मन अटका रहेगा तो उन्हीं का स्मरण होगा। तीर्थ यात्रा का उद्देश्य ही पूर्ण होगा। वस्तुतः तीर्थों की ऐसी महिमा ही उनका निरन्तर दर्शन-पूजन और इस जीवन का एकमात्र उद्देश्य-परमतत्व तथा प्रेम की प्राप्ति के लिये प्रेरित करने वाली है। तीर्थों की पावन धरती पर श्रेष्ठ व्यक्तित्व मिलते हैं और विशेष प्रेरणा मिलती है। इसीलिये शास्त्रें ने संतजनो द्वारा सेवित पवित्र स्थानों-तीर्थों में जाकर भजन, मंत्र जाप, साधना करना, जलाशयों में स्नान, धार्मिक, यज्ञ अनुष्ठान तथा दानादि करने और पवित्र वातावरणों में विचरण करने की आज्ञा दी है।
गुरु शब्द सुनने में ही मधुर लगता है, पर इसके पीछे जो जिम्मेदारियां हैं, वे अविश्मरणीय है। गुरु शास्त्रें का मनन करते हैं, अध्ययन कर निष्कर्ष निकालते हैं, तपस्या एवं साधना के द्वारा तप-पूंजी एकत्र करते हैं तथा अपने शिष्यों को सुदृढ़ कर पूर्णता प्रदान करते हैं। गुरु की तो पूंजी ही शिष्य होते हैं, अतः गुरु शिष्य के संस्कारों का परिमार्जन करते हैं और उसके अज्ञान को दूर कर उसके जीवन में प्रकाश फैलाते हैं, कठिनाइयों, कष्टों एवं बाधाओं से जूझना सिखाते हैं, अवगुणों को दूर कर गुणों का विकास करते हैं, लघुता से महानता की ओर अग्रसर करते है तथा शिष्टाचार एवं मर्यादा के गुणों का विकास करते हैं।
सद्गुरु स्वयं अपने आप में मूर्तिमन्त तीर्थ स्थल हैं। मनुष्य नहीं समझ पा रहा है कि ऐसा कौन सा तीर्थ है, जो सद्गुरु में विद्यमान नहीं है? मस्तक पर हिमालय के समान उच्चता होती है, आभामंडल में मानसरोवर स्थित है, जिसे देखकर ही शीतलता, निर्मलता, पवित्रता और दिव्यता का बोध होता है। आंखों को देखकर ऐसा लगता है, कि जैसे मानसरोवर में हंस गोते लगा रहे हों और खुले आसमान में विचरण करने के आकांक्षी हों।
सद्गुरु के हृदय-पटल पर पवित्र नदियां गंगा और यमुना, गोमती और कावेरी, कृष्णा और ब्रह्मपुत्र के साक्षात् दर्शन होते हैं। गले में पुष्कर विद्यमान है। नाभि प्रदेश में आविष्ट है और जंघाओं में कृष्णा और अन्य नदियां स्पष्ट रूप से प्रवाहित होती हैं। हरिद्वार, काशी, उज्जैन और ये समस्त पवित्र स्थान गुरु के हृदय स्थल पर स्पष्ट दिखाई देते हैं और गुरु श्री चरणों में पूरा समुद्र आलोडि़त है।
गुरुमय स्थान पर समस्त तीर्थ और नदियां प्रवाहित हैं, यदि व्यक्ति उस दिव्य तपोभूमि पर नहीं जा सका तो जगह-जगह भटक कर पवित्रता और दिव्यता कैसे प्राप्त कर सकेगा? जब सद्गुरु में ही समस्त तीर्थ समाहित है, तो मनुष्य अलग-अलग तीर्थों में क्यों जाये? वह मंदबुद्धि है या जिनके आत्म चक्षु जाग्रत नहीं है, जो सद्गुरु को साधारण मनुष्य समझते हैं, वे व्यक्ति सद्गुरु के शरीर में स्थित तीर्थ और देवताओं के दर्शन नहीं कर पाते हैं, क्योंकि यह उनकी न्यूनता है, उनका दुर्भाग्य है, उनके पूर्व जन्म के दोष है।
गुरु के प्रति इस भाव से ही इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो श्वास ले रहा हूं, मंत्र जाप, साधना में सिद्धि, कार्य में सफलता, इच्छापूर्ति और भौतिक एवं आध्यात्मिक जीवन से जुड़ी समस्त कार्य एवं मनोकामना यह सब आपकी कृपा से ही पूर्ण होती है। नित्य आपके साथ ही रहता हुआ, आपके इस पवित्र शरीर को आनन्दित करता हुआ, आपकी सेवा करता हुआ, जीवन का प्रत्येक क्षण सार्थक करना चाहता हूं।
वैसे तो इस धरा पर सैंकड़ों योगी-यति साधु-संन्यासी प्रकट हुए है और उन्होंने अपनी साधना के बल पर कई अज्ञात रहस्यों को ज्ञात किया है। सही अर्थों में देखा जाए, तो सद्गुरु ही भगवान शिव के साक्षात् स्वरूप है, जो मनुष्य देह धारण कर इस पृथ्वी पर अवतरित हुए है।
यह संसार कब सद्गुरु को पहचानेगा? उनकी अज्ञानता पर उनकी अबोधता पर आश्चर्य होता है। ऐसा लगता है, कि उनके हाथ में पारस पत्थर है और वे उसका कंकड़ से ज्यादा मूल्य नहीं समझते। ऐसा लगता है कि उनके सामने देव-गंगा प्रवाहित है और वे उसमें स्नान ना कर अपने जीवन में न्यूनता ही प्रदर्शित करते हैं। सद्गुरु ने ज्ञान की जो व्याख्या की है और उसे जिस प्रकार से विस्तार दिया है, वह अपने आप में अत्यन्त श्रेष्ठ है।
यह पृथ्वी वासियों का सौभाग्य है कि सद्गुरु इस पृथ्वी पर विचरण करते हैं, अन्यथा दूसरे ग्रह पर आपके कुछ क्षणों के आगमन पर ही हर्षोल्लास के साथ रस मग्न हो जाते हैं। मनुष्य अल्पज्ञानी, बुद्धि के अजीर्ण से ग्रस्त इन चर्म-चक्षुओं से आपके चिंतन को और आपके स्वरूप को समझने में असमर्थ हैं, परन्तु जो ‘तत्वज्ञाता’ हैं, जिसने तत्व की साधना कर रखी है, वह आपके इस शिवमय स्वरूप को भव्यता के साथ देख सकते हैं, और जब साक्षात् शिव हमारे सामने ऐसे वरदायक, समस्त सिद्धियों के दाता और पूर्णता युक्त शिव स्वरूप गुरुदेव को मैं सम्पूर्ण भक्ति, श्रद्धा और हृदय से प्रणाम करता हूं।
वैदिक धर्म में यज्ञ को वेद का प्राण और आत्मा कहा गया है। ‘यज्ञ’ शब्द ‘यज’ धातु के योग से बना सनातन हिन्दू धर्म में यज्ञों का अत्यधिक महत्व बताया गया है। इस धर्म में वेदों व यज्ञों को समान महत्व प्राप्त हुआ है। इसका मुख्य कारण यह है कि वेदों का प्रधान विषय यज्ञ ही है। देव शक्तियों को अनुकूल बनाने के लिये जितने भी साधना आदि उपाय याज्ञिक क्षेत्र में प्राप्त होते हैं इनमें यज्ञ सर्वश्रेष्ठ है। इसका मुख्य कारण यह है कि यज्ञ से देवता प्रसन्न होते हैं और साधक के अभीष्ट को पूर्ण करते हैं।
शास्त्रों के अनुसार श्रौत, स्मार्त्त और लौकिक तीन प्रकार के यज्ञ होते हैं। यज्ञों में जो शक्ति सिन्नहित है उसका प्रमुख आधार मंत्र शक्ति ही हैं। इसी हेतु पूर्ण चैतन्य खरटियाँ मठ में सद्गुरुदेव की जन्म भूमि पर चैतन्य मंत्रों से जीवन में षोड्श कमला युक्त नवग्रह शांति की प्राप्ति हेतु यज्ञ की व्यवस्था की गई है।
सभी युगों में लोगों ने यज्ञ के द्वारा ही अपनी मनोकामनाओं को पूर्ण किया है।रामायण, महाभारत, गीता तथा वेदादि में यज्ञ क्यों होते थे? उनकी क्या आवश्यकता थी? इसका कारण कि उनके जीवन का यज्ञ एक उद्देश्य पूर्ण अंग बन चुका था। जिसके कारण यज्ञ की आवश्यकता आज के कलिकाल में भी हैं।
लक्ष्मी चंचला हैं लेकिन लक्ष्मी के स्थायी न होने के पीछे साधक का भी दोष नहीं होता। अधूरी भावना, अधूरी साधना से तो लक्ष्मी तो क्या कोई देवी अथवा देवता स्थायी रूप से निवास नहीं कर सकता। इसके लिए आवश्यक है साधक के मन में लक्ष्मी के प्रति पूर्ण श्रद्धा सम्मान और भगवान श्री विष्णु की अर्द्धागिनी स्वरूप मानने की भावना प्रबल हो, उनका नित्य स्मरण एवं चिन्तन हो।
अपने जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु दीपावली दिवस पर 108 रूपों में लक्ष्मी को आत्मसात करने की साधनात्मक क्रिया सम्भव हो सकेगी।
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