कालं यमोयं यमदेव रूपं,
नरत्व श्रेयं भवतां वदैव।
इच्छोन्वतां पूर्ण मदैव तुभ्यं,
जीवन जदो सदवदां भवतेक रूपं॥
उपनिषदों में एक यमोपनिषद है, उसमें नचिकंता ओर यम के संवाद हे। नचिकेता एक ऋषि पुत्र है और यम मृत्यु का देव है। मृत्यु जीवन में आवश्यक भी है, और मृत्यु न हो तो संसार में खड़े होने की जगह ही नहीं मिलेगी। मगर कुछ श्रेष्ठ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जो मरते नहीं हैं, मर नहीं सकते, संभव ही नहीं है। नचिकेता भी उन्हीं में है, विश्वामित्र का जब इन्द्र से युद्ध हुआ, लड़ाई हुई तो विश्वामित्र ने कहा मैं नई सृष्टि रच दूंगा मगर तुम्हारी बात नहीं मानूगां और उन्होंने एक नवीन पृथ्वी की रचना कर, नवीन पक्षियों की रचना कर दी, नवीन व्यक्तियों की रचना कर दी और उनको एक स्थिति ऐसी प्राप्त हो गई कि वे मृत्यु को प्राप्त कर ही नहीं सके। क्योकि वे एक संकल्पवान ऋषि थे, ताकतवान ऋषि थे, क्षमतावान ऋषि थे।
..और जब मैं, बार बार यह दोहराता हूं कि आपको ताकतवान बनना है, क्षमतावान बनना है, तो उसके पीछे विश्वामित्र का एक श्लोक, एक चिंतन है। इस श्लोक में विश्वामित्र ने कहा है कि वह जीवन भी नहीं है जो रोते कलपते हुए बीते, वह कोई जीवन नहीं है। वह जीवन भी नहीं है जो दुर्बलता के साथ व्यतीत हो। चाहे पुरूष हो, चाहे स्त्री हो। जीवन का एक एक क्षण जिंदा और सजीव बीते। ऐसा बीते कि हम हुंकार भरें तो दूसरे को एहसास हो सकें। जब हम बोल तो सामने वाला हतप्रभ हो सके। जब हम अपनी बात कहें तो सामने वाला बाध्य हो सके उस बात को मानने के लिए। ..और यह जीवन में सफलता के लिए अत्यंत आवश्यक है। आप कोई बात कहें ओर सामने वाला माने ही नहीं, घर वाले नहीं माने, बेटे नही माने, पत्नी नही माने, पति नही माने, पड़ोसी नही मानें, आपका ऑफिसर नही माने, तो आपके जो बोल ब्रह्म के समान हें वे बोल व्यर्थ गये ओर आप मन में हताश, निराशा, कुंठा, चिंता, तनाव लिए जीते रहते हैं और वे आपको मृत्यु देते हें।
मृत्यु आपको तनाव देती है, जो आप चाहते हैं वह हो नहीं पाता, इसलिए आप मृत्यु का वरण करने के लिए बाध्य हो जाते है। बाकी हमारे ऋषियों को तनाव था ही नहीं, हमें भी कोई तनाव है नहीं। मगर हम तनाव से मुक्त होने की क्रिया नहीं सीखे, विश्वामित्र ने सीखी। इस श्लोक में वही बात कही गई है कि वैसा जीवन नहीं होना चाहिए जो एकदम रोता, कलपता बीते। में घर पर बैठा था तो पंचांग देख रहा था। मेरा समय या तो शिष्यों के साथ व्यतीत होता है या शास्त्रों के साथ व्यतीत होता है।
काव्य शास्त्र विनोदेन,
कालो गच्छति धीमतां।
मूर्खो का समय आलोचना करने में या एक दूसरे की निंदा करने में व्यतीत होता है, और बुद्धिमानों का समय काव्य, शास्त्र, विनोद- हंसी मजाक में, शास्त्र पढ़ने पढ़ाने में और कविता गुनगुनाने और कविता लिखने में व्यतीत होता है। समय तो बीतता ही हे। दोनों अपने अपने ढंग से व्यतीत करते हैं। में पंचांग में देख रहा था कि यह जो पिछला कुछ ऐसा समय व्यतीत हुआ ऐसा क्यों हुआ और आगे क्या है?
ओर आने वाला समय ऐसा है जो महाभारत युद्ध के बाद का वापस समय आ रहा हे ओर मैं कह रहा हूं वह बात प्रवचन में खुले में कह रहा हूं। ऐसी बेसलेस बात नहीं हैं, आधारहीन बात नहीं है। इसलिए पिछले दस हजार वर्षों में वह समय आ रहा है जो कि अष्ट ग्रह योग है। आठों ग्रह मिलकर एक स्थान पर खडे होंगे। आठों ग्रह जब एक साथ मिले हैं….. नौ ग्रह तो मिल ही नहीं सकते। राहु केतु तो एक बिल्कुल विपरीत ध्रुव पर होते हैं। एक ही व्यक्ति के दो हिस्से हैं एक धड हें, एक सिर हे। एक को राहु कहा गया है, एक को केतु कहा गया हे ओर जब महाभारत काल में अष्टग्रही योग हुआ तो आधे से ज्यादा भारतवर्ष समाप्त हो गया। ठीक वैसा ही योग पंचांग में आगे आ रहा है ओर मैं सन्नल सा रह गया उस पंचांग पर नजर पड़ने पर। मैंने सोचा क्या स्थिति बनेगी फिर, अगर प्रलय की स्थिति बनती ही हे तो शास्त्रों ने कहा है कि अगर हम मरे तो प्रलय हे ही फिर। हम समाप्त हो गए तो भले ही पीछे कुछ भी रहा हो, वह बेकार है फिर….और आप मेरी बात जान लें कि अगर महाभारत युद्ध की तरह विश्व युद्ध हुआ और अगले कुछ साल में ऐसा हो सकता है तो वह हमारे लिए, पृथ्वी के लिए बहुत विनाशकारी होगा। किसी की भी बुद्धि थोड़ी खराब होने की जरूरत हे और परमाणु बम के माध्यम से पूरी पृथ्वी को मटिया मेट किया जा सकता है ओर मैं आज अगर इस तनाव में हूं तो इस तनाव में आप भी हें।
मैं इसीलिए आपको कह रहा हूं, आप ताकतवान बनें, आप शेर की तरह बनें, पौरूषवान बनें। मैं कह रहा हूं, मगर केवल सुनना और जीवन में उतार देना अलग-अलग क्रिया है। कहने से आप ताकतवान, साहसवान नहीं बन सकेंगे, कहने से तनाव मुक्त नहीं बन सकेंगे, समझाने से कुछ नहीं हो पाएगा। मैं अपने आप को कितना ही समझाऊं उससे तनाव मुक्त नहीं हो सकता। उसको फेस करके, उसका सामना करके, उस पर हावी होऊंगा तब मैं तनाव से मुक्त हो पाऊंगा, तब मैं एकदम काल बन पाऊंगा, तब मैं पोरूषवान और क्षमतावान बन पाऊंगा। कृष्ण, महाभारत में हुंकार करते हुए कहते हैं- दुर्योधन! मैं तुम्हें ललकार रहा हूं, ताकत है तो मेरे सामने आ, छिप कर मत खड़ा हो, मैं अकेला ही बहुत हूं तुम्हारे लिए, तुम्हारे पूरे कोरवों के लिए बहुत हूं। जब वे हुंकार भरते हैं तो कौरव हतप्रभ हो जाते हैं, तीर धनुष सब छूट जाते हैं उनके हाथों से।
क्या है वह? वह हुंकार कहां से आई उनमें? वह आ पाई, क्योंकि वे पूर्ण यम पर अपने आप में हावी थे। कृष्ण पूर्ण पौरूषवान थे, क्षमतावान थे, पूर्ण थे। और कृष्ण ही नहीं सैंकड़ों ऐसे योद्धा हुए है। कृष्ण इतना क्षमतावान, इतना ताकतवान था, वह पूरी कौरव सेना को ललकारे, वह छोटी सी बात नहीं हो सकती। एक आदमी खड़ा होकर हजार विद्वानों को ललकारे वह छोटी सी बात नहीं हो सकती। एक आदमी पूरे समाज को ललकार कर खड़ा हो जाये यह छोटी सी बात नहीं हो सकती। और यदि आप ऐसे नहीं बन सकेंगे तो आप पर तनाव हावी हो जाएगा। या तो आप तनाव पर हावी होंगे, दुखों पर हावी होंगे या दुःख आप पर हावी हो जायेगें। चाहे मैं कितना भी समझा लूं, फिर उससे कुछ नहीं हो सकता।
और हमारे सारे देवता अपने आपमें शस्त्रवान हैं। भगवान शिव के पास त्रिशूल है। विष्णु के पास सुदर्शन चक्र है। दुर्गा के पास खड्ग हैं, काली के पास अपने आपमें तलवार है। इंद्र के पास वज्र है। शस्त्र विहीन कोई व्यक्तित्व है ही नहीं और देवताओं को शस्त्र की आवश्यकता कया हे? वह एक प्रतीक है कि व्यक्ति जब तक ताकतवान नहीं बनता, तब तक उच्च व्यक्तित्व नहीं बन सकता। व्यक्तित्व का निर्माण हो ही नहीं सकता, चाहे वह पुरूष हे चाहे वह स्त्री हे। अगर स्त्री है ओर उसमें क्षमता नहीं हे तो परिवार का पालन नहीं कर पाएगी, बेटों पर नियंत्रण नहीं कर पाएगी, गलत रास्ते पर जाते हुए पति पर नियंत्रण नहीं कर पाएगी। यदि आपक में ताकत नहीं है तो समाज में आप नगण्य से बन जायेगें। तब उस समय आपको कुछ दिखाई नहीं देगा, आप सिर पकड कर बेठ जायेगें जेसे सैंकड़ों, लाखों लोग बेठते हैं। फिर आप शेर नहीं बन पाएंगे फिर आप शिष्य भी नहीं बन पाएंगे। विश्वामित्र यही बात कह रहे हैं, यही महाभारत कह रहा हे, यही रामायण कह रहा है। जब राम धनुष को उठा रहे हें और परशुराम आ रहे हें तो लक्ष्मण कहते हैं राम! आप रूकिए। मैं परशुराम को बताता हूं कि मैं क्या हूं। मैं रघुवंशी हूं और ऐसे धनुष के हजार टुकड़े कर सकता हूं, इतनी ताकत हे मुझमें।
वह क्या बोल रहा था? वह कह रहा था हुंकार, एक उसका पोरूष बोल रहा था ओर सारी सभा सनन्न। थी, स्तब्ध थी। हिम्मत नहीं पड़ रही थी। उस समय रावण भी वहां था, उस धनुष को उठाने के लिए जनक के दरबार में मगर लक्ष्मण की हुंकार ने सारे राजाओं को निस्तेज कर दिया, एक व्यक्ति ने। एक व्यक्ति ने, परशुराम जैसे व्यक्ति ने, अपने फरसे से सारे शत्रुओं को समाप्त कर दिया। जब तक व्यक्ति में ताकत नहीं आएगी, जब तक व्यक्ति में क्षमता नहीं आयेगी, तब तक व्यक्तित्व बन ही नहीं सकता। व्यक्तित्व तो बनेगा शत्रुओं पर हावी होने से। मगर आपके जीवन में शत्रु आप पर हावी हैं। आने वाला समय हर दम तनावग्रस्त ही होगा, दुःखमय ही होगा, चिंताग्रस्त करने वाला होगा, अभावों से पूर्ण होगा और पल-पल मृत्यु आपकी ओर सरकती हुई मिलेगी। अभी तक तो मृत्यु धीरे-धीरे चलती थी, अब जो समय आ रहा है, वह अत्यंत विनाशकारी होगा, आप खुद देख लें। समय से पहले कहने वाला प्रज्ञा पुरूष होता है, समय से पहले सावधान करने वाले व्यक्ति को प्रज्ञा पुरूष कहते हें, वह बता देता है कि आने वाला समय ऐसा होगा।
वह जीवन कैसा होगा? सोचिए आप, वह समय केसा होगा जब आपमें हुंकार नहीं होगी, ताकत नहीं होगी और आप मृत्यु के ग्रास बन जाएंगे? वह क्या जीवन होगा? जब आपके पास आयुध बल नहीं होगा तब फिर काली और भुवनेश्वरी और छिन्नमस्ता ये देवी देवता ये सब क्याआ कर पाएंगे? कृष्ण क्या कर पाएंगे, गुरु भी क्या कर पायेगा? इसलिए नहीं कर पाएगा कि आपमें वह ताकत और क्षमता रहेगी नहीं। इसलिए जीवन का मूल अर्थ, जीवन का चिंतन है, अपने व्यक्तित्व को पौरूषवान बनाना, अपने आपको पोरूषवान बनाना। दस भाई मिलकर, बेटे मिलकर भी आपको पौरूषवान नहीं बना सकते। आपके पास बमों का जखीरा होने से भी आप बलवान नहीं बन सकते, आप तो उतने ही असुरक्षित रहेंगे। .. और अगर आप असुरक्षित हैं, और जेसा समय बह रहा हे उसमें तो समाप्त होने की क्रिया है।…. फिर हमारी विद्या का क्या अर्थ होगा, फिर जो मैं तीस चालीस साल से चीख रहा हूं उसका क्या अर्थ होगा? फिर आपकी चिंता मिटेगी केसे? और अगर मैं चिंता मिटाऊंगा नहीं तो आप क्या मंत्र जप कर पांएगे, कैसे आप गुरु से मिल पाएंगे। केसे आप लक्ष्मी का वरण कर पाएंगे? कैसे यम पर पांव रख पाएंगे? केसे आप हुंकार भर सकेंगे? कैसे आप इस जीवन में महाभारत युद्ध में खडे हो सकेंगे?
कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। एक अंधकार दिखाई दे, रहा है। आज आप इस बात को नहीं समझ पाएं, कल समझें यह अलग बात है। कल हाथ पैर पटकते हुए मर जाएं, तो आपके जीवन का अर्थ क्या होगा? कौन सा आपका बेटा वहां काम आएगा, कौन सा पिता काम आएगा? वह आपको पानी पिला देगा, खाना खिला देगा, दूध पिला देगा, मगर आप अपने आप में निस्तेज हो जाएंगे। एक क्षमता ओर एक ताकत आपके काम आ पाएगी ओर ताकतवान व्यक्ति का स्त्री भी वरण करती है। जब क्षीर सागर मंथन हुआ, सागर मंथन हुआ तो लक्ष्मी प्रकट हुई ‘ श्री रंभा विष वारूणी अमिय शंख गजराज ‘ तो और देवता बहुत थे, ताकतवान भी थे, मगर हुंकार करने वाले भगवान विष्णु थे और लक्ष्मी उनके बगल में जाकर खड़ी हो गई। स्त्री भी वरण ताकतवान का ही करती है, वह भी अपने आपमें गर्व करती है कि मेरा पति ताकतवान है, क्षमतावान है। व्यक्ति भी अपने आपमें जब हुंकार करता है तो वह एहसास करता हे कि मैं कुछ हूं। यदि आप कुछ हें तो फिर जीवन हे आपका। अन्यथा वह एक घिसटता हुआ जीवन है, रेंगता हुआ जीवन है, वह मृत्यु प्राय: जीवन है।
..और आप देखेंगे कि सैकड़ों ऐसे व्यक्ति हें जो सुबह शाम चिंताएं आपको देते रहेंगे। वे इसके अलावा आपको कुछ दे ही नहीं सकते- आपके पिता, भाई, पत्नी, बहन, बेटी! आप चोबीस घंटे का हिसाब लगा लें, कोई न कोई तनाव, कोई न कोई चिंता ही वे आपको देंगे। … और उन को काटने की आपमें क्षमता हे ही नहीं, न रोगों को काटने की क्षमता है, न शत्रुओं पर हावी हाने की क्षमता है, क्योंकि आपके पास शस्त्र है ही नहीं। मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की क्रिया आपके पास नहीं है। मृत्यु क्या चीज हे जो आपके पास आ सके? ऐसा केसे हो सकता हे? संभव नहीं हो सकता। आपमे दुर्बलता आए ही नहीं। और हम मृत्यु को प्राप्त करना चाहते ही नहीं। इच्छा मृत्यु का तो मतलब हे कि हम मरेंगे ही, भीष्म कह रहे हैं- में जब चाहूं तब मरूं और में कह रहा हूं कि भीष्म यहां कायर था कि उसने कहा इच्छा मृत्यु।
मृत्यु हमारे पास आने की हिम्मत कर सके वह संभव नहीं हो। विश्वामित्र ने कहा- ब्रह्मा! में तुम्हारी चिंता नहीं करता हूं। एक नवीन ब्रह्माण्ड रच कर दिखा दूंगा। में हूं, में गुरु हूं ओर में समझता हूं, वह विश्वामित्र था। इसलिए उसका व्यक्तित्व मुझे शोभनीय लगता है कि एक हुंकार भरता है वह और लक्ष्मी को भी अपने आंगन में खड़ा कर देता हे, सरे आम मेनका से शादी करके, पुत्री पेदा कर देता हे। वह घबराता नहीं है क्योंकि उसके अंदर एक आग, एक ज्वाला हे, एक मंत्र बल है, एक ताकत और साहस है। यम को पैरों के तले रौंदने की क्रिया है। जीवन में एक उच्चकोटि ब्रह्मत्व प्राप्त वशिष्ठ के सामने तन कर खड़ा हो गया। उसने कहा- तुम्हें ब्रह्मत्व प्राप्त हे, पर मेरे पास जो साहस, ताकत, क्षमता है वह तुम्हारे पास नहीं है। तुम एक दिन मर सकोगे, में नहीं मर सकता, संभव ही नहीं है।
इसलिए भीष्म से भी ताकतवान विश्वामित्र है जो कहता हे मृत्यु जेसी चीज हे ही नहीं संसार में। क्योंकि उनके गुरु ने समझाया था- मृत्यु चीज कया है, कहां से आई! मृत्यु दरवाजे पर ठक-ठक करती, एक सो आठ बार बाती है, कभी आपके सिर के बाल सफेद करते हुए आती है, कभी आपकी आंखे निस्तेज करते हुए आती है, तीसरी बार आती है तो खून की कमी करते हुए आती है, फिर बीमारी बनते हुए आती है। एक सौ आठ बार दरवाजा खटखटाकर मृत्यु आपके पास आती है और उसमें से पचास बार खटखटा चुकी है। केवल लकडियों की चिता पर जाकर सो जाने को मृत्यु नहीं कहते। ऐसा गुरु भी क्यार काम का, जो कहे- राम-राम करो, भगवान जो करेगा अच्छा ही करेगा। भगवान जो करेगा तो करेगा पर हम क्या करेंगे, यह समझना है। भगवान को भी समझा देंगे की केसे किया जाता है। हममें वह ताकत हे, वह क्षमता है। भगवान तो अच्छा कर ही रहे हैं। बम फट रहे हें, भगवान अच्छा कर रहे हें! हम क्या कर रहे हें? हम केसे पोरूषवान बन सकते हैं, कैसे ताकतवान बन सकते हें, कैसे इंद्र बन सकते हें, कैसे पूर्ण अग्निमय बन सकते हैं, कैसे देवतामय बन सकते हैं- यह आवश्यक हे।
आपमें क्षमता कहां से आएगी हाथ जोडने से, गिडगिडाने से, पांव में पड़ने से? उन अफसरों के तलवे चाटने से? औरत के सामने बिल्कुल निस्तेज भीगी बिल्ली बनकर आप पौरूषवान बन जाएंगे? ऐसा जीवन क्या हो पाएगा? ऐसा जीवन मैं आपको दूंगा भी तो क्या फायदा होगा? ऐसे जीवन में तो आप घुट-घुट कर बीस साल में मरेंगे ही मरेंगे, रोत-रोते मरेंगे, घुट-घुट कर मरेंगे। मृत्यु जैसी चीज आपके साथ जुड़े नहीं, जीवन जुड़े, हंसी जुड़े, मस्ती जुड़े, साहस जुड़े। मैं कह रहा हूं आपके चेहरे पर मुस्कुराहट होनी चाहिए। खिलखिलाहट होनी चाहिए, हंसी होनी चाहिए। मगर आपको बराबर वेदना, चिंता समस्याएं बाधाएं, कठिनाइयां, पग-पग पर मिल रही हैं। आप अपना पिछले दस दिन का ही इतिहास देख लें। सडक पर निकलते हें तो आप भयभीत रहते हैं। लड़का एक घंटा लेट आता है तो कांप जाते हैं। पति ऑफिस से आने में लेट हो जाता है तो आंखों से आंसू निकल जाते हैं।
यह सब क्याज हे? इतना तनाव, इतना जहर फेल गया हे, देश में, संसार में, कि आदमी हर पल सशंकित हो गया हे, दुःखी हो गया हे, चिंतातुर हो गया है, हर पल ऐसा सोचता है, कि न जाने कब मृत्यु हावी हो जाएगी। जाते हैं सड़क पर परन्तु लौटेंगे, कोई भरोसा नहीं हे। पिक्चर देखने गए हॉल में, बम फट गया ओर ढाई सौ लोग मर गए, उनका कसूर कया था? उनको क्या पता था हम मरेंगे वहां जाकर के? मृत्यु तो प्रत्येक पल दरवाजा खटखटा ही रही हे ओर में आपको कह रहा हूं आपको मुस्कुराना चाहिए। मैं कह रहा हूं आप में छलछलाहट होनी चाहिए। वह तब आएगी जब आप निश्चित हो जाएगे कि मृत्यु मेरा वरण करे यह संभव नहीं हे, ऐसा होना चाहिए जीवन। तब मैं समझूंगा कि शिष्यों को मैं कुछ दे पाया। यदि आपको किसी ने मुस्कुराहट भी दी हो, तो मुस्कुराहट के नीचे दबी हई सिसकारियां भी दी होगी। उस मुस्कुराहट के नीचे दबा हुआ रूदन भी होगा, आंखों में आंसू भी होंगे। पर ऊपर से नकली मुस्कुराहट होगी, वह जीवन नहीं है। जीवन हुंकारमय है, ताकतवान है, क्षमवावान है, न की जोश है, वह जवानी का एक दर्प हे, वह व्यक्ति में होना चाहिए, चाहे आप मेरे शिष्य है या नहीं है, आप ऐसा जीवन प्राप्त करें या नहीं करें परन्तु यह गुरु का धर्म है कि मैं आपको बताऊं कि जीवन क्या है। जब मैंने पहली बार दीक्षा ली तो उन गुरु ने कहा- में बाद में तुम्हे दीक्षा दूंगा, पहले यह दीक्षा देना चाहता हूं कि तुम अपने आप में पौरूषवान बनो, झुके नहीं कही पर। मृत्यु तुम्हारा वरण नहीं कर सके। मृत्यु तुम्हारे सामने खड़ी हो सकती है, स्पर्श नहीं कर सकती और पग-पग पर खड़ी हो। और जब मैं सिद्धाश्रम गया तो सबसे पहले उन्होने मुझे यही दीक्षा दी कि मृत्यु तुम्हारे सामने नहीं फटक सकती है, चाहे आग लगे, चाहे बम। उस जीवन में, जहां तुम्हें भेज रहा हूं वहां पग-पग पर केवल युद्ध है, लड़ाई हैं, , बम है, पिस्तौल है, तलवार हे, इसके अलावा कुछ नहीं है, चाहे आप फिल्म देख लें, चाहे टी. वी. देख लें, कक आज, चाहे सडक देख लें, चाहे घर देख लें। हर जगह आप सशंकित और तनाव युक्त हैं….फिर जीवन क्या काम का? न मालूम कब यम आकर समाप्त कर दें, मृत्यु पकड़ ले और तुम्हारी हमारी सारी इच्छाएं? जो भी मैंने आपको सिखाया वह क्या काम आया आपके? मेरा कहना बेकार, आपका सुनना बेकार।
मैं कहां बता पाऊंगा कि ये मेरे शिष्य हैं जो ताकतवान है और यदि मैं आपको क्षमता नहीं दे पाऊंगा तो कौन दे पाएगा? अगर मैं खुद अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं कर पाऊंगा तो अपनी ही आंखों से गिर जाऊंगा कि नकली मुस्कुराहट है आपके चेहरे पर। मैं समझता हूं कि इसके नीचे कितनी वेदना, कितनी आग और कितना मृत्यु भय है। उस मृत्यु भय से परे हटना जीवन सोन्दर्य है। जब आप निश्चित हो पाएंगे तब आपमें हिलोर उठ पाएगी। पांडव निश्चित थे, अर्जुन निश्चित था कि कृष्ण मेरे पीछे खड़े हें। कृष्ण अपने आपमें निश्चित थे कि मेरे पीछे मेरे गुरु सांदीपन खड़े हैं जिन्होंने मुझे मृत्युंजयी दीक्षा दी है। मृत्युंजयी दीक्षा का अर्थ है मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की क्रिया- मृत्यु का मतलब वेदना! आपके कंधे पर आपके बेटे की अर्थी चली जाए इससे ज्यादा दुःखमय चीज हो ही नहीं सकती। पत्नी के सामने पति की मृत्यु हो इससे ज्यादा वेदना क्या हो सकती है? आप रात तडपते हुए बिताये ओर नींद नहीं आये इससे ज्यादा दुःख क्या हो सकता हे? आपकी आंखों की ज्योति कमजोर हो जाये आप सिसकते रहें, अस्पताल में पड़े रहें, वह आपका जीवन क्या हो सकता है? क्या वह और अगर वह जीवन हे तो फिर आनन्द क्या हें?
इसलिए जीवन की मुस्कुराहट एक अलग चीज हे, एक नकली मुस्कुराहट एक अलग चीज है। जो आप मुस्कुरा रहे हैं वह सो प्रतिशत नकली मुस्कुराहट है और आने वाला समय इतना भीषण हे, जिसका हम आज से ही अनुभव कर रहे हें और वे ग्रह अपने आप में बोल रहे हैं। आप में से प्रत्येक व्यक्ति चिंताओं से ग्रस्त होगा, ऐसा समय आ रहा है। कौन संभालेगा, कौन समझाएगा आपको। कोई न कोई समस्या ऐसी आयेगी, कि आप बिल्कूल मृत्यु के पास खडे होंगे। आप का मतलब है आप आपकी पत्नी, बेटे, बेटियां, आपका परिवार, आपका धन, आपका यश और आपका सम्मान। आज पांच सौ रूपये कमाने वाला सिपाही आपके हाथों में हथकड़ी लगा कर ले जाता है, आपने अपराध किया या नहीं किया पर आपकी इज्जत धूल में मिला देता है। क्या ताकत हे आपकी? आपकी आंख में चिंगारी कया रही? आपकी इज्जत दो मिनट में चली गई और आपका जीवन समाप्त हो गया। निर्भीकता जो आनी चाहिए वह निर्भीकता तब आएगी जब आप निश्चित हो जाएंगे कि अब मेरे जीवन या परिवार में कोई चिंता या तनाव आ ही नहीं सकता। इज्जत में कोई बट्टा लगा नहीं सकता। मृत्यु मेरे पास फटक नहीं सकती- मेरे पास ही नहीं, मेरे बेटे, बेटियों, पत्नी के पास भी। अभाव मेरे जीवन में आ नहीं सकता। दरिद्रता मेरे जीवन में नहीं आ सकती। मैं निश्चिंत होकर विचरण करूं तो कोई मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता। मेरी दुर्घटना हो नहीं सकती और जो विद्या गुरु दे रहे है उसे पूर्णता तक पहुंचा सकूंगा क्यों कि में निश्चित हूं, निर्भीक हूं, मेरे पीछे गुरु हैं जिन्होंने मुझे इस योग्य बनाया हे।
ये क्रियायें हम भूल गए हैं। आज से पचास वर्ष पहले तक जब गुरु दीक्षा देते थे तो पहले उसे निर्भीक बनाने की क्रिया देते थे। मृत्यु को परे हटाने की क्रिया देते थे फिर उसको शिष्य बनाते थे। अब हम सीधे शिष्य बना देते हैं। में अपनी खुद की आलोचना कर रहा हूं। मगर जो आप धीरे-धीरे सिसक रहे हैं उन आंसुओं को कौन देख पाएगा, उस वेदना को कैसे समझेंगे, केसे दूर करेंगे। दूर तब कर सकेंगे जब आप निर्भीक हो पाएंगे। इसलिए ! हमारे शास्त्रों में प्रत्येक देवता को एक आयुध दिया, शस्त्र दिया, उनके… हरे शरीर में ताकत दी, ऋषियों को एक क्षमता दी पोरूष दिया, वे सिसियाते हुए, गिडगिड़ाते हुए नहीं जिये। इसलिए दस महाविद्याओं की रचना की है कि उस मंत्र बल के माध्यम से निर्भीक बन सकें। मंत्र का अर्थ है, मैं बोलूं, आप पर प्रभाव एक बंदूक की गोली दस फीट की दूरी से छोडूं और आप समाप्त हो जाये वह मृत्यु है, आप घर में अभाव ग्रस्त है, वह मृत्यु है, आप को कुछ हो जाये तो जीवन का क्या अर्थ रह ‘ जायेगा, जो विद्या मैं दे रहा हूं उसका क्या अर्थ रह जायेगा? । इसलिए गुरु पहले दीक्षा देते ही नहीं थे। पहले पूर्णता के साथ मृत्यु को परे हटाने की क्रिया करते थे। मेरे साथ मेरे गुरु ने वह क्रिया की, मेरे साथ और शिष्य के साथ की। मगर अब वैसे शिष्य रहे नहीं, अब वैसे गुरु भी नहीं रहे। क्योंकि गुरुओं को वह ज्ञान नहीं रहा, शिष्यों में ग्रहण करने की शक्ति नहीं रही। दोनों में अंतर आया। इसलिए सीधा गुरु मंत्र दिया, गुरु अपने घर, शिष्य अपने घर। क्या गुरु ने अपने कर्त्तव्य का पालन किया? क्या गुरु दम ठोककर कह सकता है कि मैंने शिष्य को निर्भीक बनाया? क्या गुरु ने उसके छिपे हुए आंसुओं को देखा? क्या गुरु ने उसकी सिसकारियों को सुना? नहीं सुना… नहीं सुना इसलिए गुरु अपने आप में ‘ निस्तेज हो गए, समाप्त हो गए, बुझ गये। गुरु ही समाप्त हो गये, शिष्यों की कमी नहीं थी उसमें। और अगर शिष्य भी ग्रहण नहीं कर सके तो वह शिष्य भी अपने आप में धिक्कारने योग्य है। रोते हुए, कलपते हुए जीवन व्यतीत करेंगे भी तो क्या होगा आपका? फिर मैं आपको मंत्र किसलिये दे रहा हूं क्यों दीक्षा दे रहा हूं? क्यों मैं ब्रह्मत्व दीक्षा दे रहा हूं? कल आप मृत्यु को प्राप्त हो जायेगें तो फायदा भी क्या इस सबका? आपके परिवार में कोई अकस्मात् मौत हो गई तो में कहां मुंह दिखा पांऊगा, कैसे खड़ा हो पाऊंगा आपके सामने? आप कहेंगे- में तो अपने को समर्पित कर चुका आपके सामने गुरुजी! फिर कया स्थिति बनी? क्यों मुझे आपने दीक्षा दी, फिर मुझे शिष्य क्यों बनाया? यह सारी मन में उथल-पुथल उस पंचांग को देखने के बाद आई और फिर मुझे श्लोक याद आया यमोपनिषद् का-
भौमवारे चतुर्दश्यां तां कालरात्रि महावहे,
पूर्णतां मृत्यु इच्छायां दीवोदेवा वदन्यवी।
चतुर्दशी हो और भौमवान हो, वह अपने आप में एक योग होता है। आपने देखा होगा कि अष्टमी होती है या चतुर्दशी होती हे देवी के पूजन के लिए और मंगलवार पूर्ण यम का प्रतीक होता है और कालरात्रि के दिन हो तो इन दिनों ही निर्भीक बन सकते हैं। कुछ साधनाएं ऐसी होती है जो रात्रि को ही होती है।
मैंने पंचांग देखा, वह योग देखा तो मानस में आया, कि तुमने अभी शिष्यों की सिसकारियां नहीं सुनी। ऊपर से तुमने कहा, वे मुस्कुरा दिए। “जय गुरुदेव की’ हाथ उठा कर बोल दिये। कया तुमने उनको समझा, कया उनको मृत्यु से परे हटाया? यह जो तुम देख रहे हो अष्टग्रही योग इससे दूर कौन हटाएगा इनको! हो सकता है कल नहीं मिल पाये,ये हो सकता है कल शिविर में न आ पाये। हो सकता है छः महीने बाद नहीं मिल पाये और छः महीने में न मालूम क्या घटनाएं घट जायेगी। क्योंकि उतना सशंकित में भी हूं जितने आप हैं। आप उतने सशंकित हैं नहीं मगर मैं आपको लेकर सशंकित हूं क्योंकि में आपको हर हालत में आप शब्द बोल रहा हूं तो आप, आपकी पत्नी, आपके पुत्र, आपका परिवार- ये सब कुछ मिलकर आप बन रहे हैं। ..और समय ऐसा बिल्कुल सामने स्पष्ट है और आप स्वयं देख पांयेगे अपने गांव को, शहर को, देश को, संसार को और आज की घटना आपको याद रहेगी कि गुरुदेव ने पहले ही बता दिया था कि समय ऐसा आने वाला है। पड़ोस में आपके सौ घर होंगे तो देख लेना आप कि किस प्रकार से वेदना और रोने में जी रहे हैं- देख लेना आप। … और आप निश्चित होंगे इस सब के बीच। मगर यह तब हो पायेगा जब आपके पास मृत्यु से परे हटने की क्रिया होगी। निर्धनता को परे हटाने की क्रिया होगी। जब उनसे जूझने की आपमें ताकत आ पायेगी, जब आप पौरूषवान बन पाएंगे, जब शत्रुओं का संहार कर सकेंगे।
… और शत्रु आपके पग-पग पर हे, मेरे भी है, आपके भी है और मैंने संन्यासी जीवन जिया, गृहस्थ जीवन भी। संन्यासी जीवन में मेरे इतने शत्रु थे ही नहीं और गृहस्थ जीवन में शत्रुओं के अलावा कुछ हे ही नहीं। हर क्षण एक व्यर्थ का तनाव-लडके तनाव ग्रस्त हैं, घर वाले तनाव ग्रस्त हैं। मगर तनाव से होगा क्या? कुछ होना ही नहीं क्योंकि शिष्य बनने से पहले मुझे दीक्षा ही वही मिली है। वही क्रिया मुझे मिली थी इसलिए न मैं कभी दुखी होता हूं, न तनाव ग्रस्त होता हूं। कुछ क्षणों के लिए होता भी हूं तो आपकी वजह से कि इनसे मैंने क्या चालाकी भरा भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया? क्या वह चीज दी जो देनी चाहिए थी, क्या तुमने आने वाले समय को देखा? नहीं देखा, तो उसमें क्या गलती शिष्यों को? उन्होंने कब मना किया था? तुमने उनको क्यों निर्भीक नहीं बनाया? उनको मृत्यु से क्यों नहीं हटाया? तुमने उनके घर में मृत्यु को क्यों प्रवेश होने दिया? यह चिंतन मेरा भी रहा और पिछले कुछ समय से इस चिंता में रहा।
कृष्ण जब ललकारते हैं तो इसलिए ललकारते हैं कि उनमें पौरूष है। विश्वामित्र हिम्मत के साथ बोलते हैं ऋषियों के सामने तो इसलिए कि उनमें पौरूष है और अगर मैं बोल रहा हूं तो इसलिए कि मैं उस शिष्यता, उस दीक्षा को प्राप्त कर सका हूं जहां मृत्यु मेरे पैरों के नीचे रौंदी जायेगी, मेरे ऊपर हावी नहीं हो पायेगी गारंटी की बात है। महाकाली का चित्र आपके सामने है जहां शिव के ऊपर पाव रख कर खडी है वह। बगलामुखी को देखें कि शत्रु पर पूर्ण हावी होकर खड़ी हे। आइंस्टाइन के पेपर पढें आप, उसने कहा- भारतीयों पर मुझे बहुत आश्चर्य सा हो रहा हे। आइंस्टाइन ने अपने एक पत्र में लिखा है गांधी जी को। उन्होंने कहा- मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि भारतीय क्या हे? भारतीयों के पास बगलामुखी जैसा उच्चकोटि का मंत्र होने के बाद भी गुलाम हैं। इस बात को देख कर मैं आश्चर्य चकित हूं। इतना उच्चकोटि का मंत्र होने के बाद भी गुलाम हैं, मैं कल्पना नहीं कर सकता हूं। उसने ऐसा अपने पत्र में गांधी को लिखा है। …. और हम उस मंत्र के महत्व को ही नहीं समझ पा रहे हैं। हम बिल्कुल हतप्रभ, निस्तेज और डरपोक बनते जा रहे हें, हरदम दुःखी और चिंतित होते जा रहे हें ओर यह स्वाभाविक है, क्योंकि आज का युग तनाव युक्त हे।
मगर आने वाला समय इससे भी हजार गुना वेदना युक्त है। आपके लिए, मेरे लिए, पूरे संसार के लिए। एक कोई सोचे कि अणु बम पटक देना चाहिए- तो न आप हें न हम हैं, न भारत वर्ष है। एक किसी का मांइड खराब होना चाहिए। एक ईराक के साथ युद्ध हुआ, पूरे संसार में युद्ध की स्थिति बन गई। ऐसा कुछ और हुआ नहीं कि प्रलय की स्थिति बन जायेगी। हम अपने आपको, अपने परिवार को, अपने देश को केसे बचाएंगे? इसीलिए हमारी महाविद्याओं की रचना हुई और वह श्लोक बना कि किस समय साधना कर पूर्ण निर्भीक बना जा सकता हे। … और निर्भीक बनने की सर्वश्रेष्ठ क्रिया हे बगलामुखी क्रिया। दसमहाविद्याओं में लक्ष्मी युक्त भुवनेश्वरी भी हें, भेरवी भी है, छिन्न मस्ता भी हे, महाकाली भी हें, बगलामुखी भी हें। बगलामुखी का अर्थ हैं- मूल शब्द है वल्गा मुखी। वल्गा का अर्थ है लगाम। जैसे घोड़े के लगाम लगा देते हैं ओर हाथ में हमारे कंट्रोल रहता है, घोड़ा कितना ही ताकतवान हो। जब ताकत की बात करते हैं तो कहते हैं कि कितने हास पॉवर का है। घोड़े की ताकत से उसका अंदाजा लगाते हैं।
उस यम के मुंह में लगाम लगाने की जो क्रिया है उसे बगलामुखी या वल्गामुखी कहा गया है। यम हमारे पैरों के नीचे कुचला हुआ रहे। चाहे वह देवता भी हो। क्योंकि हम देवताओं से भी श्रेष्ठ हैं, वह क्रिया सम्पन्न करा दूं कि इस जीवन में वे ओर उनका परिवार मृत्यु को प्राप्त नहीं हो सके, दुखी नहीं हो सके, उनके जीवन में सिसकारियां नहीं हो और यह क्रिया कालरात्रि में ही सम्पन्न हो सकती है। कालरात्रि अर्थ है काल पर विजय प्राप्त करने की क्रिया मुत्यु पर पूर्ण विजय होने को क्रिया.. समझा दिया है- अभाव, दरिद्रता निर्धन्ता गरीबी, मृत्यु और जीवन की न्यूनताएं, वृद्धावस्था और…..ये सब कुछ अपने आपमें मृत्यु हैं। क्षण क्षण हम मृत्यु की ओर सरक रहे हैं, हम आशंकित हें, तनाव युक्त हे, चिंतातुर हैं। आप सोचिए कि क्याक आप तनाव ग्रस्त नहीं हैं? क्या आप चिंतायुक्त नहीं हैं? आप बाहर जाते हें और दो दिन टेलीफोन नहीं आता तो सोचने लगा जाते हैं कि क्यों टेलीफोन नहीं आया। कया हुआ? पत्नी, पति, बेटे, बेटियां सब तनाव में जी रहे हैं।…. और मैं आपको ही नहीं आपके पूरे परिवार को उस तनाव से, मृत्यु से दूर धकेल कर ले जाना चाहता हूं। यह मेरे जीवन की इच्छा हे।
मैं अपने आपमें उच्चता पर खड़ा हो जाऊं वह बहुत बडी क्रिया नहीं होगी। मोर पंखों से अच्छा लगता है। पंख नहीं होंगे तो मोर क्या सुन्दर लगेगा? शिष्य नहीं होंगे तो मैं गुरु बनूंगा भी क्या? मेरा गुरु बनना भी बेकार होगा, अगर मैं आपको यह ज्ञान नहीं दे पाया तो।…. और महाकाल युक्त बगलामुखी दीक्षा ही वह माध्यम है, क्रिया हे जिससे पूर्ण तनाव मुक्त हो सकते हैं, मृत्यु को भी पैरों तले रौंद सकते हैं। यह अपने आपमें कठिन दीक्षा है, जो एक सदगुरु ही दे सकता है…. आपके छोटे मोटे गुरु नहीं दे क्योंकि इस महाविद्या को सिद्ध करना ओर महाकाल को सिद्ध करना इतना आसान नहीं होता। शिष्यों के जीवन में मृत्यु को ही हटा दें यह सामान्य क्रिया नहीं होती। ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं ओर में ऐसे बहुत उदाहरण बना देना चाहता हूं कि इन पर मृत्यु हावी नहीं हो सकती- यह गांरटी है, चेलेंज है- यह सर्टिफिकेट है मेरी तरफ से आपको। एक श्लोक में भगवान शिव से कहा गया है।
काली न देवा, भव देव नित्यं, मृत्योर्वतांवै नरदेव चिंत्यं
अमोघ शस्त्र भवतां सदैव, दिव्यो वदां स्नेह सदां न कुर्यात॥
हे महाकाल! जिस प्रकार से बाघ की दाढ़ों में एक हिरन फंस जाता है और छटपटाता है, उसी प्रकार से प्रत्येक मनुष्य आपकी दाढ़ों में फंसा हुआ छटपटा रहा है। कब आपके जबडे मिलें और वह समाप्त हो जाए, कूछ कहा नहीं जा सकता। इसीलिए इस जीवन को पानी का बुलबुला कहा है, या क्षण भंगुर कहा है, नश्वर कहा है। मगर ये शब्द उन लोगों ने गढ़े हैं जिनके ताकत नहीं थी, क्षमता नहीं थी। यह आपको स्तुति उन लोगों ने की हे जो दीन हीन ओर अकर्मण्य व्यक्तित्व है। अरे चातक! तू बार बार इन बादलों से वचन क्यों बोल रहा हे? गर्जन्ती केचिद तां ये तो बेकार गर्जना कर रहे हैं। इसलिए इसलिए इस श्लोक में बताया है कि ये शब्द उन लोगों ने कहे, जिनमें कर्मण्यता नहीं थी, ताकत नहीं थी, गुरुत्व नहीं था।….. और मैने कई बार आपको स्पष्ट कहा है- कि गुरुत्व का मतलब कोई व्यक्ति विशेष नहीं है। कोई नाम नहीं है। एक उच्चकोटि की ज्योति को गुरुत्व कहा है और इस श्लोक में बताया गया है कि जिसके पास वह हे, वह अपने आपमें मृत्यु पर पांव रखता हुआ, आपके चंगुल को तोड़ता हुआ, आप पर विजय प्राप्त कर लेता है। ऐसा ही में आप से वरदान चाहता हूं, मैं युद्ध में संघर्ष करता हुआ आप को जीतू और आपको परास्त करूं, ऐसा में आपसे आशीर्वाद चाहता हूं।
यह व्यक्ति यमराज का ऐसा कह रहा है और ऐसा आशीर्वाद यमराज ने नचिकेता को दिया। अगला श्लोक मैं गुरुदेव के बारे में बोल रहा हूं जिन्होंने यह उच्चकोटि का ज्ञान दिया-
दीर्घो सदां वदे न पूर्व मतितां, पूर्वों सदां वे यमः,
चित्यं चिंत्य विचिंत्य रूप मदिकम्, गुरुवो सदां देवतां,
ब्रह्मा विंष्णु वहेन्त रूद्र सहितं, श्री पाद न तदन्तरे,
श्री गुरुदेव सहितं माद बद वदे पूर्णत्व मेवा बदे।
हे गुरुदेव! आप स्वयं ब्रह्म स्वरूप है, विष्णु स्वरूप है, रूद्र स्वरूप है ओर सारी शक्तियां आप में समाहित हैं….और आपने इतने दुर्लभ ज्ञान को ढूंढ कर निकाला जो कि समाप्त हो चुका था, वह प्रदान किया। में आपकी अनुमति लेता हुआ अपने शिष्यों को मृत्यु पर पांव रखते हुए निर्भीकता के साथ में जीवन व्यतीत करने का आशीर्वाद देता हूं। वे अपने जीवन में वह सब कुछ प्राप्त करें, जिसके माध्यम से उल्लास, आनन्द, उमंग, योवन, स्थिरता ओर देवत्व प्राप्त हो सके, ऐसा ही मैं आपको आशीर्वाद प्रदान कर रहा हूं। .. और आप सदूगुरु से पूर्ण महाकाल बगलामुखी दीक्षा प्राप्त कर सकें, जीवन में मृत्यु पर विजय प्राप्त करते हुए निर्भीक बन सकें, ताकतवान, क्षमतावान तथा निश्चित बन सकें, ऐसी ही मैं कामना करता हूं, हृदय से आशीर्वाद देता हूं।
-सदगुरुदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द
आप जीवन में सभी शक्तियों से युक्त हो सके ऐसा ही शारदीय नवरात्रि के महापर्व पर सद्गुरुदेव का हृदय भाव से मंगलमय आशीर्वाद है।
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