और क्यों न होने लग जाये यह सब, क्यों नहीं सारी प्रकृति ही अपनी जड़ता और उदासी को छोड़ कुछ चौंकती सी चारों ओर देखने लग जाये? नित्य प्रति तो ऐसे उत्सव के सृजित होने की बात होती नहीं और क्या कोई उत्सव मात्र एक या दो दिन की ही घटना होती है? क्या उत्सव के सृजित होने की पृष्ठभूमि बनना एक उत्सव से कम होता है? विशेषकर जब वह उत्सव सृजित होने जा रहा हो इस धरा के ही नहीं वरन् इस समस्त ब्रह्माण्ड के सबसे मधुर, सबसे पवित्र, सबसे अधिक आह्लादकारक और सर्वथा अकृत्रिम सम्बन्ध गुरु व शिष्य के मध्य।
अन्य सम्बन्ध तो इस जगत में बनते हैं, बिगड़ते हैं, लेकिन इन्हीं सम्बन्धों के मध्य एक और सम्बन्ध होता है, गुरु-शिष्य का सम्बन्ध जो न बनने की बात होती है और न ही समाप्त होने की। अन्य सम्बन्ध तो व्यक्ति जन्म मिलने के बाद बनाता है, किन्तु एक सम्बन्ध! जो वह अपने जन्म से, जन्म-जन्मान्तरों से साथ लेकर चलता रहता है, वही होता है गुरु-शिष्य का सम्बन्ध जो न बनने की बात होती है और न ही समाप्त होने की।
और निश्चय ही जो ऐसा सम्बन्ध होगा, वही व्यक्ति को जीवन में तृप्ति दे सकेगा, वही उसे आश्वस्त भी दे सकेगा। ऐसे ही सम्बन्ध के मध्य नित्य प्रति, प्रतिपल जो आत्मीयता की सरिता एक मूक ध्वनि, अनहद के साथ प्रवाहित रहती है, वही वास्तव में किसी भी उत्सव की आधारभूमि होती है। गुरु व शिष्य के मध्य तो एक उत्सव निरन्तर सृजित होता ही रहता है भले ही शिष्य अपने गुरु के सम्मुख समीप हो अथवा उनसे दूरस्थ।
इसी उत्सव भाव को और भी अधिक प्रगाढ़ और भी अधिक दृढ़ तथा अपने शिष्य में एक स्थायी भाव देने का जब आग्रह निर्मित कर लेते हैं सद्गुरुदेव, तब वे सृजित करते हैं विविध उपाय अनेक युक्तियां ऐसे किसी महोत्सव को जन्म देते हुए जैसा कि आगामी 2-3-4 जनवरी 2014 को रायगढ़ (छ-ग) में षोडश कला पूर्ण राज-राजेश्वरी साधना महोत्सव के माध्यम से मूर्त रूप लेने जा रहा है। यह एक सामान्य साधना शिविर का अवसर न होते हुए एक उच्चकोटि का नववर्ष का प्रारम्भ अत्यन्त उल्लास व महोत्सव के रूप में सम्पन्न करने के क्षण होंगे, क्योंकि गुरुदेव की दृष्टि में जो प्रधान होता है वह यही आनन्द का पथ होता है। यही सद्गुरुदेव का रहस्य व सामान्य ज्ञानी से भेद भी होता है, कि वे अत्यन्त सहज गति के साथ उसे इस प्रकार उच्चता व आध्यात्मिकता से अभिसिक्त भी करते रहते हैं, जिससे अध्यात्म का पद उसके लिये किसी जड़ता, कटुता अथवा बोझिलता का पर्याय न होकर आनन्द पर्याय हो सके और यूं भी आनन्द की उपलब्धि, आनन्दयुक्त पथ पर चलकर प्राप्त होने की दशा में अपनी अर्थवत्ता प्रकट करती है। जीवन व अध्यात्म का लक्ष्य निःसंदेह उसी अर्थवान आनन्द की प्राप्ति है, जिसे कहीं परमानन्द, तो कहीं ब्रह्मानन्द अथवा कहीं इष्ट दर्शन के रूप में वर्णित किया गया है।
किन्तु जब तक पथ अर्थात् भौतिक पक्ष पूर्ण नहीं होगा, मनोवांछित रूप से सजा-संवरा नहीं होगा, तब तक यात्रा का अर्थ ही कैसे हो सकेगा? आनन्द की उपलब्धि, आनन्द पथ पर चलकर ही हो सकती है, यूंही कोई मंत्र जप, ध्यान, शास्त्र अध्ययन, शास्त्रार्थ विवेचन से खुद को उलझा कर अपने को ढाढस सा देना चाहे, तो वह उसके लिये स्वतंत्र है।
मात्र ऊंची आवाज में भजन गा लेने से ही आत्मसंतुष्टि प्राप्त नहीं हो सकती, क्योंकि जब व्यक्ति अन्दर से ही श्रद्धा, विश्वास आदि गुणों से रिक्त है, तो किसी भी बाह्य क्रिया से उसे कैसे आनन्द मिल सकता है। फिर ऐसा करना तो आत्मप्रवंचना ही होती है, स्वयं से झूठ बोलने का ही एक प्रकार होता है। व्यक्ति का छल दूसरे से शायद तब भी कुछ दूरी तक चल सकता हो, लेकिन खुद से किया गया छल एक अभिशाप होता है।
जीवन की ऐसी ही स्थितियों में, ऐसे ही मन को मथ देने वाले मोड़ों पर जहां समस्त ज्ञान-विज्ञान, मत-मतान्तर, धर्म अथवा पंथ मूक हो जाते हैं, वहीं जिस दिव्य चैतन्य सत्ता के स्पर्श की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है, उन्हें ही शास्त्रों में श्री सद्गुरुदेव कहकर अभिनंदित किया गया है। जो अपने विविध उपायों, स्पर्शों, वचनों हास्य इत्यादि के माध्यम से जीव के जीवन में आशा का संचार करते हैं। उन्हें ही अत्यंत सम्मान के साथ जीवन में समाहित कर पथ को निष्कंटक किया जा सकता है, क्योंकि गुरु का साहचर्य एक पल, दो पल अथवा कुछ वर्षों का साथ न होकर निरन्तर चलने वाला साथ होता है। शिष्य जब अपने दम्भ, प्रमाद, आलस्य या किसी अन्य संवेग को वशीभूत होकर अपनी गति स्तम्भित कर देता है, तब भी गुरु की गति अविराम बनी रहती है। वे उसके आत्म में स्थापित होते हुए उसे निरन्तर पोखरे में स्नान करने तथा देवगंगा में अवगाहन करने का मर्म विवेचित कर ही रहे होते हैं, क्योंकि जीवन के समस्त पक्षों, समस्त स्थितियों के उपरान्त भी सद्गुरुदेव का एक ही प्रयास होता है, कि जिस आनन्द के महोदधि में वे स्वयं निमग्न हैं, उसी में निमग्न होने की, आनन्द से अभिसिक्त होने की पात्रता उनका आत्मीय, उनका प्रिय, उनका सर्वस्व, उनका शिष्य भी प्राप्त कर सके।
पिता का प्रत्येक स्पर्श अपनी संतान के लिये एक स्नेह स्पर्श ही होता है, किन्तु कहीं-कहीं ऐसी भी स्थितियां आ जाती हैं जहां स्पर्श को एक बलाघात के साथ प्रयुक्त कर जीवन को दिशा देनी अनिवार्य हो जाती है। इसके उपरान्त भी यह आघात कहीं से भी कटु नहीं होता है। क्योंकि इसके अन्तर में केवल प्रेम व चिन्ता ही तो होती है। सद्गुरुदेव का भी प्रत्येक स्पर्श अपने शिष्य के लिए एक स्नेह स्पर्श ही होता है, किन्तु जहां इसे एक मृदु आघात के रूप में सम्पन्न करना उनकी दृष्टि में अनिवार्य हो जाता है, वहीं उस देव दुर्लभ क्रिया की उत्पत्ति होती है जिसे शास्त्रकारों ने ‘दीक्षा’ कहा है। दीक्षा नित्य घटित होने की ही कोई सामान्य सी क्रिया नहीं होती है और विशेषकर ऐसी दीक्षा जिसमें शिष्य की पूरी अस्मिता को ही रसप्लावित कर देने की बात हो।
जिस शिष्य को सद्गुरुदेव ने रसप्लावित कर देने का ही मानस, निर्मित कर लिया, जिसे अभिसिक्त करने, जिसका अभिषेक करने का विचार कर लिया, उसके समान संसार में कौन भाग्यशाली हो सकता है? जिसने साक्षात् सद्गुरुदेव से ही ऐसा स्पर्श प्राप्त कर लिया, उसके लिये इस जगत में ही नहीं, इस असीम ब्रह्माण्ड में दुर्लभ रह ही क्या गया?
पूज्यपाद गुरुदेव के विराट लक्ष्यों को पूर्ण करने में उनके शिष्यों को ही माध्यम बनना पड़ता है और माध्यम बनने से भी अधिक उनकी ही इच्छा पर गतिशील होने वाला एक यंत्र बनना पड़ता है। यह शिष्य का चिंतन नहीं होता, कि वह कहे- गुरुदेव! मुझे यह दायित्व सौंपे, वरन् वह तो अपनी समस्त सामर्थ्य, बुद्धि, समस्त अस्तित्व, धन, बल लेकर गुरु चरणों में ‘इदं देवाय न मम्’ की भावना से उपस्थित हो जाता है और पूज्यपाद गुरुदेव सर्वथा मूक व अनभिज्ञ से बने रहकर एक ही क्षण में सारा आकलन कर लेते हैं।
नूतन वर्ष 2, 3, 4 जनवरी को रायगढ़ (छ-ग) की तपोभूमि पर सम्पन्न होने जा रहा, षोडश कला पूर्ण राज-राजेश्वरी साधना महोत्सव ऐसा उच्चतम साधना शिविर है जो न केवल पूज्यपाद गुरुदेव की ओर से इस संवत् के माध्यम से आरम्भ हो रहे, नववर्ष पर अपने शिष्यों को एक विशिष्ट उपहार है वरन् शताब्दियों के इस संक्रमण काल पर व्याप्त विभीषिका के संदर्भ में एक विशिष्टम घटना भी है। सद्गुरुदेव की प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक वाक्य, प्रत्येक इंगित के केवल एक ही नहीं अनेक-अनेक गूढ़ अर्थ भी होते हैं और उनके द्वारा ऐसी दीक्षा प्रदान करना वास्तव में इस ब्रह्माण्ड की एक अलौकिक घटना है, जिसके प्रति न केवल उनके संन्यस्त शिष्य वरन् सिद्धाश्रम के उच्चकोटि के योगी भी आशा पूर्ण दृष्टि से एकटक लक्ष्य कर देख रहे हैं। आप सभी को कैलाश सिद्धाश्रम की ओर से हृदयभाव से निमंत्रण है।
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