वर्तमान में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में विंध्याचल पर्वत पर मां विंध्यवासिनी का शक्तिपीठ है और वहीं गुफा में स्थित एक काली मंदिर है। दूसरी ओर अष्टभुजा स्वरूप में सरस्वती मंदिर है। विंध्यवासिनी देवी को पर्वत निवासिनी शक्ति रूपा दुर्गा का स्वरूप माना गया है जो त्रिशूल और मुण्ड धारण किये हुये है। जिनका स्वरूप अत्यन्त विशाल है। जो शत्रुओं का संहार और अपने भक्त को विशुद्ध बुद्धि प्रदान करती हैं।
विंध्याचल पर्व के बारे में द्वापर युग से पहले से ही देवी भागवत में एक विशिष्ट कथा आती है। इस कथा के अनुसार गंगा के किनारे विन्ध्याचल पर्वत का आकार निरंतर बढ़ता ही जा रहा था। गंगा के किनारे रहने वाले लोगों को असुविधा होने लगी क्योंकि विंध्याचल पर्वत की ऊंचाई ने सूर्य की रोशनी को ही मंद कर दिया था। उस क्षेत्र के निवासियों ने सोचा कि यदि विंध्याचल पर्वत इसी प्रकार बढ़ता रहा तो एक दिन सूर्य की रोशनी बिल्कुल ही नहीं दिखाई देगी। तब सृष्टि में वनस्पति, जीव-जन्तु कैसे वृद्धि कर सकेंगे? कोई उपाय ना मिलने पर एक महायज्ञ का आयोजन किया और यज्ञ पुरोहित के रूप में ऋषि अगत्स्य को आमंत्रित किया। ऋषि ने यज्ञ को सम्पन्न कराया और कारण पूछा कि क्यों सभी लोग इतने दुःखी दिखाई दे रहे हैं? लोगों ने अपनी व्यथा बताई। इस पर ऋषि ने कहा कि मेरे पास इस समस्या का समाधान है। ऋषि अगत्स्य विन्ध्याचल पर्वत के सामने जाकर खड़े हो गये और ऋषि को देखकर विन्ध्याचल पर्वत ने लेट कर प्रणाम किया। उसके झुकने पर ऋषि ने कहा कि मैं तुम्हें आशीर्वाद प्रदान करता हूं लेकिन पूरा आशीर्वाद रामेश्वरम् में अपनी तपस्या पूर्ण करके आऊंगा तभी प्रदान करूंगा। जब तक मैं नहीं आऊं तब तक तुम इसी स्थिति में ही रहना। ऋषि अगत्स्य अपनी तपस्या पूर्ण कर पुनः विंध्याचल पर्वत की ओर आये ही नहीं तथा विंध्याचल पर्वत झुका का झुका ही रहा। ऐसी स्थिति में ऋषि के आशीर्वाद स्वरूप तथा कृष्ण की कृपा से यह वरदान प्राप्त हुआ कि देवी शक्ति योगमाया अपने तीनों रूपों में महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी विंध्याचल प्रर्वत पर विराजमान होगी तथा विंध्याचल की परिक्रमा, हिमालय की परिक्रमा के समान पूर्ण फलदायिनी होगी। तब से विंध्याचल पर्वत पर जाज्वल्यमान शक्ति पीठ स्थित है।
इसके अलावा श्रीमद्भागवत में देवी उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक विशेष घटना का उल्लेख मिलता है। श्रीमद्भागवत्में कृष्ण के जन्म की कथा तो सभी साधक भली भांति जानते हैं कि किसी प्रकार देवकी के गर्भ से भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ और ठीक उसी समय वृंदावन में यशोदा और नंद के घर कन्या का जन्म हुआ। श्रीकृष्ण की लीला से कारागार के द्वार खुल गये और श्रीवासुदेव कृष्ण को लेकर नंद के यहां पहुंचे और वहां से नंद पुत्री को लेकर पुनः मथुरा कारागार में पहुंचे। जब प्रातः कंस को मालूम हुआ कि देवकी के गर्भ से पुत्र नही, पुत्री हुई है तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि नारद ऋषि ने कहा था कि देवकी के गर्भ से आठवीं संतान पुत्र होगा और वही तुम्हारा संहार करेगा लेकिन कंस ने सोचा कि शंका को क्यों रखा जायें अतः उसने उस कन्या को ही मार डालने का निश्चय किया। जैसे ही उसने उस कन्या को पकड़ा और पत्थर पर मारने के लिये फेंका उसी समय वह कन्या हाथ से छिटक कर आकाश मार्ग को चली गई। वह कन्या कोई साधारण कन्या नहीं थी शक्तिरूपा योगमाया थी। योगमाया ने आकाश वाणी करते हुये कंस को कहा कि तुम्हारा वध तो निश्चित है और तुम्हें मारने वाला इस संसार में उत्पन्न हो गया है।
इसके आगे की कथा तो सभी जानते है। वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण ने शक्ति के रूप में योगमाया को अपने साथ रूप बदलने को कहा क्योंकि वे संसार को शक्ति से परिचित कराना चाहते थे और उस युग में शक्ति पूजा को लोग भूल गये थे। आसुरी प्रवृत्तियां अधिक हावी होने लगी थीं। ऐसे समय में शक्ति को प्रकट करना आवश्यक था। इस योगमाया शक्ति को भगवान श्रीकृष्ण ने वरदान दिया कि हे शक्ति आपने इस जगत में जो महान् कार्य किया है उसके फलस्वरूप आपकी पूजा संसार में हर समय होगी और पर्वतों के राजा विंध्याचल पर आप लक्ष्मी शक्ति रूप में विराजमान होंगी और आपके साथ ही, गुह्यकाली तथा अष्टभुजा सरस्वती विराजमान रहेंगी। विन्ध्याचल पर्वत पर विराजकर आप गंगा को निरन्तर देख सकेंगी तथा काशी विश्वनाथ आपके सम्मुख सदैव रहेंगे।
विंध्यवासिनी मंदिर का पूरा समूह पर्वत पर स्थित है और इसके स्वरूप की ओर ध्यान दिया जाये तो यह स्वरूप श्रीयंत्र के रूप में है। उस रूप में द्वार बने हुये हैं। उसी रूप में श्रीयंत्र में जहां मध्य रूप में शक्ति स्थित है, उसी स्थान पर विंध्यवासिनी शक्तिपीठ है।
मैंने अपने जीवन में कई प्राचीन मंदिरों की यात्रा की है, लेकिन विंध्यवासिनी मंदिर क्षेत्र में प्रवेश करते ही रोम-रोम में चेतना जाग्रत हो जाती है। ऐसा लगता है कि शक्ति अपने साकार रूप में विराजमान है, कुछ वर्षों पहले तक बलि प्रथा विद्यमान थी लेकिन अब इस प्रथा को बन्द कर दिया गया है। आज भी यह मान्यता है कि नव-विवाहित विवाह के पश्चात् आशीर्वाद प्राप्त करने जाते हैं तो उन्हें अक्षुण्ण सौभाग्य प्राप्त होता है। एक ही देवी जिसके तीनों रूप साक्षात् हो, जो क्रिया, ज्ञान और इच्छा रूप में साधक का कल्याण कर सकती है वह देवी विंध्यवासिनी हैं।
आज के इस कलियुग में जीना कोई आसान बात नहीं होती, हर व्यक्ति एक-दूसरे पर हावी होने की कोशिश करता है और अपने को शक्तिमान घोषित करने का प्रयास करता रहता है। आये दिन की परेशानियों, आपदायें, जो गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित होती हैं, प्रत्येक मनुष्य को झेलनी पड़ती हैं और ऐसे में उसे आवश्यकता पड़ती है एक ऐसी शक्ति की जिससे वह अपने जीवन को भली-भांति विभिन्न विपदाओं और बाधाओं से सुरक्षित रख सके किन्तु मां के आशीर्वाद से बढ़कर उसके लिये कोई शक्ति नहीं होती और एक मां ही हर पल, हर क्षण अपने पुत्र की देखभाल कर सकती है, उसकी सुरक्षा गामिनी हो सकती है। इसलिये उसे अपने इस भौतिक जीवन को सुरक्षित एवं श्रेष्ठ बनाने के लिये ‘मां’ की अर्थात् उस देवी शक्ति की पूजा आराधना करनी ही चाहिये।
अपने भौतिक जीवन को श्रेष्ठता पूर्ण बनाने के साथ-साथ उसे अपने आध्यात्मिक जीवन को भी श्रेष्ठ बनाना चाहिये क्योंकि मात्र भौतिक जीवन में पूर्णता प्राप्त करना ही सब कुछ नहीं होता। एक मनुष्य के लिये उसका श्रेष्ठ जीवन तो गृहस्थ के उन्नति पथ पर बढ़ते हुये आध्यात्मिक स्तर की ऊंचाई को प्राप्त कर लेना और उस ब्रह्म में लीन हो जाना है, जिसका वह अंश है।
गृहस्थ जीवन को पूर्णता के साथ जीते हुये अध्यात्म की ओर बढ़ना तो तलवार की धार पर चलने के समान ही होती है, जिस पर चलकर पैर लहूलुहान हो जाते हैं किन्तु ‘विंध्यवासिनी’ जो कि अपने दिव्य स्वरूप से सुशोभित पूर्ण शक्तिमान स्वरूपा हैं, साधक या व्यक्ति को उस पथ की ओर गतिशील होने के लिये ऐसा वृहद् अस्त्र प्रदान करती हैं। जिससे वह जीवन की सर्वोच्चता को प्राप्त कर लेता है, जहां पहुंचना मानव जीवन का ध्येय होता है।
‘विंध्यवासिनी’ मां दुर्गा का रक्षा स्वरूप हैं, जो अपने साधक की हर क्षण रक्षा करती हैं, उसको जीवन की विभिन्न उलझनों से, परेशानियों से मुत्तिफ़ दिलाती हैं और यदि साधक इस सिद्धि को प्राप्त कर ले तो उस पर किसी प्रकार की बाधा का प्रकोप-प्रभाव नहीं पड़ सकता, यहां तक कि यदि कोई तीव्र तांत्रिक प्रयोग जिसका वार कभी खाली नहीं जाता, उस वार को निष्फल करना कोई आसान बात नहीं होती। जिसने इस विद्या को सिद्ध कर लिया हो, वह विशिष्ट शक्तिशाली बन जाता है क्योंकि भगवती विंध्यवासिनी का पूजन सम्पन्न करने पर उस साधक को एक विशेष प्रकार की तेजस्विता, ऊर्जा-शक्ति प्राप्त होने लगती है, जो एक कवच की भांति ही उसके चारों ओर रक्षक के रूप में हर क्षण कार्य करती रहती है।
भगवती विंध्यवासिनी तीव्र से तीव्र प्रहारों को भी निष्फल कर देती हैं, जो बड़े-बड़े ऋषियों-मुनियों की भी प्रिय देवी हैं। इस विद्या को सिद्ध कर लेने के बाद अन्य साधनाओं में स्वतः ही शीघ्र सफलता मिलने लग जाती है। व्यक्ति या साधक इस विद्या में सिद्धहस्त हो जाने से अपनी सभी मनोकामनाओं को मन ही मन स्मरण कर के, विंध्यवासिनी देवी का ध्यान कर लेने मात्र से ही पूर्ण कर लेता है। इस प्रकार वह शत्रु-बाधा, राज्य बाधा, व्यापार-बाधा आदि विभिन्न आपदाओं से मुत्तिफ़ पा लेता है।
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