मध्यरात्रि के अधंकार में सारे जगत पर निस्तब्धता एवं शांति छाई थी। युवा राजकुमार सिद्धार्थ अपने महल के बाग में एक वृक्ष के नीचे अपने विचारों में खोये बैठे थे। नर्तकियों के हंसी-मजाक और कोलाहल से ऊबकर वे भोजनकक्ष को त्यागकर कुछ ही क्षण पूर्व यहां आये थे। एक तीव्र असंतोष, एक गहरी रिक्तता उनके भीतर बढ़ती जा रही थी। अचानक उन्हें विचित्र शब्द सुनाई दिया। उन्होंने सुना आकाश में कुछ देवता मधुर वाणी में गायन कर रहे हैं। जुड़ाना चाहता हूं, कहां जुड़ाऊं? न जाने कहां से आकर कहां बहा जा रहा हूं? बार-बार आता हूं, न जाने कितना हंसता और कितना रोता रहा हूं। ऐ सोने वाले नींद से उठो और फिर कभी मत सो जाना।
सिद्धार्थ उठ खड़े हुये। अपनी पत्नी और संतान को अन्तिम बार देखा और अपनी ऐतिहासिक यात्रा पर निकल पड़े, जिसने अन्ततोगत्वा उन्हें भगवान बुद्ध और तथागत बना दिया। आध्यात्मिक पथ को अंगीकार करने वाले एकमात्र बुद्ध ही नहीं थे। युगो-युगों से देश-विदेश में ऐसी कई चैतन्य आत्माओं का प्रादुर्भाव होता रहा है, जिन्होंने अध्यात्म की खोज में, परम सत्य की खोज में अपने जीवन को लगाया है और उसमें सफलता प्राप्त कर उस बुद्धत्व को प्राप्त किया है, जिसे पाकर सिद्धार्थ भगवान बुद्ध बन गये। इसी बुद्धत्व को इसी पूर्णत्व को, इसी ब्रह्म प्रकाश को प्राप्त करने की क्रिया या उस परम तत्व से साक्षात्कार करने की क्रिया को ही भारतीय दर्शन में मूलाधार से सहस्रार की यात्रा कहा जाता है। वस्तुतः जीवन के सभी आयाम केवल और केवल मात्र कुण्डलिनी जागरण में ही निहित है। यही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य और पूर्णता है, जिसके लिये योगीजन निरन्तर प्रयासरत रहते हैं।
पूर्ण आध्यात्मिक विकास के लिये यह आवश्यक है कि साधक कुण्डलिनी और उसके चक्रों को भली भांति समझ सके और उन्हें गुरू प्रदत्त विधि से जाग्रत कर सकें। प्रत्येक चक्र से सम्बन्धित अलौकिक उपलब्धियां होती हैं, जिन्हें प्रत्येक ऋषि, योगी और साधक प्राप्त करना चाहता है।
प्रत्येक मनुष्य में एक घनी भूत चुम्बकीय शक्ति होती है, जो रीढ़ की हड्डी के अन्तर्गत स्थिति सुषुम्ना नाड़ी पर विभिन्न छः मुख्य स्थानों पर केन्द्रित है। रीढ़ की हड्डी के निचले भाग अर्थात् मूलाधार से तीन नाडि़यां रीढ़ की हड्डी के अन्दर से होती हुई ऊपर मस्तिष्क तक पहुंचती हैं तीनों नाडि़यों के मध्य की नाड़ी सुषुम्ना सीधी आगे बढ़ती है और इसके दोनों ओर स्थित ‘इड़ा’ और ‘पिंगला’ नाडि़यां विभिन्न स्थानों पर उसके साथ जुड़कर एक नाडि़यों का गुच्छा या केन्द्र बनाती हुई आगे चलती है तीनों नाडि़यों में केवल सुषुम्ना मस्तिष्क तक पहुंचती है इड़ा हृदय पर रूक जाती है। इस प्रकार विभिन्न स्थानों पर गुम्फित नाडि़यों को चक्र के नाम से सम्बोधित किया गया है। इन छः चक्रों-मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध एवं आज्ञा चक्र में न्यून स्पन्दन लिये हुये शक्ति सुप्त अवस्था में होती है, जो जाग्रत होने पर व्यक्ति को विभिन्न अलौकिक क्षमतायें प्रदान करती है जैसे- टैलीपैथी, हिप्नोटिज्म,ध्यान, भूत-भविष्य दर्शन आदि।
कुण्डलिनी जागरण की कई विधियां हैं मांत्रोक्त, दीक्षा द्वारा, क्रिया योग द्वारा, प्राणायाम द्वारा रस शास्त्र की पद्धति से आदि। परन्तु सबसे सुगम रास्ता मंत्र साधना का ही होता है, जिसका किसी प्रकार का कोई विपरीत परिणाम नहीं होता है। साथ ही यदि शनैः शनैः संयम से, पूर्ण धैर्य के साथ एक-एक कर कुण्डली के सभी चक्रों को जाग्रत करने की साधना की जाये, तो साधक को विशेष सहायता प्राप्त होती है। सात चरणों में सम्पन्न की जाने वाली यह साधना सभी दृष्टियों से साधकों के लिये पूर्ण प्रभावी और अकाट्य है।
कुण्डलिनी अपरिवर्तनशील चेतना (परमेश्वर) की विराट ऊर्जा है, जो सृष्टि के अणु-अणु में व्याप्त है। यही विराट ऊर्जा प्रत्येक मनुष्य के मेरूदण्ड में सुप्त अवस्था में पड़ी रहती है। इस पर हमारा नियंत्रण नहीं होता। कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया एक भारी भूकंप के समान होती है, जिसमें मनुष्य का व्यक्तित्व झकझोर दिया जाता है और उसके अन्दर के अनेक तत्व सूखे पत्तों की भांति गिर जाते हैं, मनुष्य जिस अंह के आधार पर अपने अस्तित्व की भावना करता है, उसका आधार टूट जाता है। अहं की भावना इतनी अस्त-व्यस्त हो जाती है, कि मनुष्य स्वयं को ध्वस्त अनुभव करता है।
जिस दिन कुण्डलिनी जाग्रत होती है, उसी दिन भयंकर स्नायु विखण्डन होता है। सुषुम्ना नाड़ी के पथ पर कपाल के अन्दर एक बिन्दु होता है। जिसे ब्रह्मरन्ध कहते हैं, जहां परमेश्वर का निवास होता है। इष्ट साक्षात्कार का यही अर्थ है कि व्यक्ति की आत्मा ईश्वर में विलय होने के लिये इस बिन्दु तक पहुंच चुकी है।
परन्तु इस स्थिति तक पहुंचने के लिये एक कष्टप्रद दौर तय करना होता है। बिना स्नायु विखण्डन के सुखपूर्वक साधनों द्वारा ईश्वर प्राप्ति का दावा करने वाले निश्चय ही असत्य वचन कहते हैं, क्योंकि कुण्डलिनी साधना में मनोवृत्तियों पर आघात होने से कष्ट होता ही है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि सभी को इतनी यंत्रणा सहनी पड़ती है। साधक के जीवन में गुरू की उपस्थिति होने से ये कष्ट बहुत कम हो जाते हैं गुरू सहचर्य में और गुरू सेवा में रहने से इन्द्रियों और मन के दोष क्षीण हो जाते हैं, जिससे लाभ, लालसा, क्रोध एवं अहंकार जैसी वृत्तियों का अधिक प्रभाव नहीं होता और कुण्डलिनी जागरण में इतना कष्ट नही अनुभव करना पड़ता है।
परन्तु समाज में रहते हुये क्रोध, ईर्ष्या, अभिमान आसक्ति तथा काम वासना आदि पर विजय किये बिना कुण्डलिनी साधना करने से कुण्डलिनी जाग्रत होने पर अत्यधिक पीड़ा सहन करनी पड़ती हैं। परन्तु गुरू दीक्षा प्राप्त साधक को अधिक पीड़ा नहीं होती, क्योंकि जागरण की इस पूर्ण प्रक्रिया में गुरूदेव सदा सहायक होते हैं। फिर भी यदि मन शुद्ध है तो पीड़ा कम होती है और जागरण प्रक्रिया शीघ्र होती है और यदि संस्कारों में कुछ न्यूनता है, जो तनिक कष्ट हो सकता है। हर स्थिति में गुरू प्रदत्त साधना द्वारा कुण्डलिनी मन एवं संस्कारों को धीरे-धीरे शुद्ध कर के जीवन को मन एवं अन्य बन्धनों से मुक्त कर देती है और परब्रह्म में विलय हेतु ब्रह्मरन्ध्र की ओर उसका मार्गदर्शन करती है।
कुण्डलिनी की वास्तविक जागृति के पहले पांच-छः महीने कष्टमय हैं, जिनके दौरान असह्य क्लेश का सामना करना पड़ता है। उथल-पुथल, द्वन्द्व एवं उलझन बनी रहती है। इसका मुख्य कारण कुण्डलिनी साधना के मंत्रों से उसके चक्रों पर आघात होता है और पूर्व के संस्कारो से निर्मित मन के टूटने की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। जाग्रत कुण्डलिनी व्यक्ति के मन पर आघात करती है। इसी आघात को न झेल पाने से व्यक्ति पागल तक हो जाते हैं, परन्तु योग्य गुरू से दीक्षा प्राप्त होने की स्थिति में किसी प्रकार का अमंगल नहीं होता है।
कुण्डलिनी जागरण के दौरान व्यक्ति को लगता है कि उसके शत्रु बढ़ गये हैं। उसे छोटी-छोटी बातों पर तनाव या क्रोध आना स्वाभाविक हो जाता है, कभी-कभी वह अत्यंत भयभीत और असुरक्षित अनुभव करने लग जाता है। जागरण प्रक्रिया में मनुष्य सुख की स्थिति में दुःख अनुभव करने लग जाता है। जागरण प्रक्रिया में मनुष्य सुख की स्थिति में दुःख और दुःख की स्थिति में अत्यधिक दुःख अनुभव करने लगता है और बीच-बीच में पूर्ण आनन्द और विश्रान्त भी हो जाया करता है। इस प्रकार अनेक प्रकार के आतंरिक उतार-चढ़ाव उसे झेलने पड़ते हैं, परन्तु धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगात है कि द्वन्द्व, क्रोध, क्षोभ, भय, असुरक्षा, काम आदि की यही प्रक्रिया उसके अन्दर एक पूर्णतया नियमबद्ध रूप में दैवीय प्रेरणा से संचालित हो रही है।
जागरण प्रक्रिया कोई एक क्षण की नहीं होती, अपितु इसमें ‘उत्थान’ और ‘अधः पतन’ दोनों की ही प्रक्रिया चक्र रूप में होती रहती है। मनुष्य के भीतर आंतरिक गुरू और आंतरिक माया होते हैं, जो बारी-बारी जीवन पर अपना प्रभाव डालते हैं। जब जीव माया की पकड़ में होता है, तो कुण्डलिनी जीव के मुंह की ओर माया को जला डालने के लिये भीषण गति से ऊपर चढ़ती है, जिससे जीवन को कष्ट होता है। जब जीवन के लिये यह वेदना असह्य हो जाती है, तो उसके अंतः करण में बैठा गुरू जो इस लीला को निरंतर देखता रहता है, तत्काल उसकी सहायता करता है और उसे अपना स्पर्श प्रदान करता है। इससे जीवन की स्थिति में तत्काल सुखद परिवर्तन आता है और उसे शांति, स्थिरता एवं आनन्द की अनुभूति होती है। इस प्रकार जीवन उत्थान की स्थिति प्राप्त करता है।
इसके बाद पुनः अधः पतन की प्रक्रिया होती है, जिसमें मनुष्य का अंह भाव पुनः जाग्रत होता है, और वह कई परिस्थितियों के कारण स्वयं को पीडि़त, दुःखी और द्वन्द्व की स्थिति में अनुभव करता है या उन्मादग्रस्त हो जाता है या मन भारी हो जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे साधक ‘उत्थान’ एवं ‘अधः पतन’ की प्रक्रिया को समझने लगता है और उसे ज्ञान हो जाता है, कि इसमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। कुछ तो इस प्रक्रिया के समझ में आ जाने पर और कुछ विवशतावश संवेगात्मक स्तर पर इसे स्वीकार कर लेते हैं और इसके आगे आत्मसमर्पण कर देते हैं। मनुष्य को स्वतः आभास होने लगता है कि उसके अन्दर कोई शक्ति गतिशील हो गई है, यही कुण्डलिनी शक्ति का प्रथम बोध है।
कुण्डलिनी शक्ति के द्वारा आध्यात्मिक सर्वोच्चता व भौतिक सुखों को पूर्णता से भोगने हेतु पूज्य गुरूदेव कुण्डलिनी शक्ति दिवस व श्रावण मास के चैतन्य अवसर पर कैलाश सिद्धाश्रम जोधपुर में 18-19-20 अगस्त को सप्त कुण्डलिनी जागरण दीक्षा व साधना सम्पन्न होगी। जिससे साधक के साधनात्मक जीवन में आ रही बाधाओं का समूल रूप नाश होगा, साथ ही महादेव और माता गौरी के चेतनामय तेज को आत्मसात कर गृहस्थ जीवन की सफ़लता की ओर अग्रसर हो सकेगा। अग्रिम सम्पर्क कर अपना गोत्र व नाम कार्यालय में नोट करवा दें जिससे आपके प्रकृति के अनुरूप साधना पैकेट तैयार किया जा सके। जो साधक किसी कारणवश उपस्थिति ना हों पायें, वे फ़ोटो द्वारा दीक्षा प्राप्त कर साधना सम्पन्न करने से पूर्ण लाभ प्राप्त होगा।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,