लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ईश्वर है ही नहीं, धर्म जैसी कोई चीज होती ही नहीं। सारे विज्ञान ने यह स्वीकारा है, उच्चतम स्तर वैज्ञानिकों ने भी यह स्वीकार किया कि कोई ऐसी शक्ति है जिससे यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड चलायमान है। और व्यक्ति ने इसकी गहराई में उतरने का प्रयास किया है वह किसी ने किसी धर्म का उपासक है ही।
परन्तु वर्तमान में धर्म के नाम पर ठगी का धंधा बहुत जोरों पर है। जिसे देखो उसी ने धर्म का ठेका ले रखा है और अपनी दुकान चला रहा है। प्रत्येक धर्म अपने मूल स्वरूप में उच्चकोटि के है पर उनमें समय के अनुसार बुराईयां अधिक व्याप्त है। और मूल स्वरूप से जनसमुदाय को भ्रमित किया गया। आज इस समाज की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि वह श्रेष्ठता को भी उचित मापदण्ड नहीं दे पाता, यही कारण है कि उसको उस धर्म के अनुसार लाभ प्राप्त नहीं हो पाता है।
मैं बात यदि भगवान निखिल की करूं तो उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में ही सबसे अधिक प्रहार पाखण्ड पर किया, ढोंगियों पर किया जिसके कारण उन्हें अपने जीवन में अनेक तरह के आलोचना, पीडा कष्टों को सहना पड़ा। और सद्गुरुदेव निखिल ने भारत के मूल धर्म को पुनः जाग्रत करने के लिये संघर्ष करते रहें है। उनके संघर्षों और जीवन की विवेचना की जाय तो कई माह आपको ऐसे ही बैठना पड़ेगा क्योंकि उनके जीवन की व्याख्या करना अत्यन्त दुरूह और कठिन है। शब्द की ऐसी कोई परिभाषा ही नहीं बनी है जिससे उनके महिमा का गुणगान किया जा सकें।
समाज की इसी पीडा को देखते हुये सद्गुरुदेव भगवान ने मुझे यह आज्ञा दी है कि धर्म के उसी मूल स्वरूप को नया आकार दो। जिससे सभी मानव प्रेमी धर्म के मूल स्वरूप से परिचित हों और साथ ही पिछडे हुये, दीन-हीन लोग भी सही रूप से धर्म का पालन कर अपने जीवन में सभी तनावों समस्याओं से मुक्त हो सकें, सद्गुरुदेव भगवान की ऐसी आज्ञा से मैं श्री कैलाश चन्द्र श्रीमाली सभी निखिल प्रेमियों से कहता हूं कि निखिल धर्म को अपने जीवन में पूर्णता से आत्मसात करें और साथ ही अपने क्षेत्र में निखिल शिष्य स्वरूप में एक स्तम्भ के रूप में स्थापित हो। जिससे समाज के सभी वर्गों का कल्याण हो सकें। आप सभी को पूर्णता के साथ निखिल धर्म को धारण करना है जिससे आप पूर्ण निखिलमय बन सकें।
निखिल धर्म अपना कर आप सद्गुरुदेव निखिल द्वारा प्रदत्त साधनाओं को सम्पन्न कर जीवन की किसी भी समस्या से निजात पा सकते है। जो अत्यन्त प्रभावकारी, तुरन्त लाभप्रद है। उनके द्वारा प्रदान किया हुआ कोई भी साधना प्रयोग फल प्रदान करती ही है। आवश्यकता सिर्फ इतनी ही है कि आप अपने गुरुदेव पर पूर्ण रूप से विश्वास करें। उनके द्वारा बताये गये मार्ग पर बिना किसी हिचकिचाहट से गतिशील हो। और आपकी निखिल के प्रति पूर्ण श्रद्धा विश्वास, आपको जीवन के उच्चतम स्तर पर पहुंचा देगा।
जीवन में यदि हमें कुछ प्राप्त ना हो तो उसका मतलब यह नहीं है कि वह चीज है ही नहीं। ईश्वर दिखता नहीं तो इसका क्या मतलब? ईश्वर है ही नहीं? ऐसा कदापि नहीं है। निखिल धर्म आपको यही सिखाता है कि पूर्ण रूप से ईमानदार, श्रद्धावान, निष्ठावान होकर अपने जीवन के सभी कर्तव्यों का पालन करें। और अपने सम्पूर्ण जीवन को आनन्दमय, सद्गुरुमय, निखिलमय होकर व्यतीत करें। यही जीवन सही रूप में मानव जीवन कहला सकेगा, तभी एक शिष्य का जीवन सार्थक हो सकता है जब अपने गुरू के ज्ञान को जन-जन तक पहुंचा दे।
और समय की आवश्यकतानुसार ही भगवान अवतरित होते है। जिस प्रकार आदि शंकराचार्य के समय में बौद्ध धर्म के कारण लोग सनातन धर्म को भूल चुके थे। वेदों की मर्यादा खण्डित हो चुकी थी। भारतवर्ष की स्थिति बडी ही विचित्र थी। तब आदि शंकराचार्य ने अपने गुरुदेव की आज्ञा से भारतवर्ष में पुनः सनातन धर्म को स्थापित किया। इसी प्रकार सद्गुरुदेव निखिल ने भी अपनी तपस्या, प्रतिभा, ज्ञान तथा पुरूषार्थ के बल पर भारतीय प्राचीन विद्याओं को पुनः प्राप्त किया जो आज के समय के जनमानस में विश्वास खो चुकी थी। परन्तु उन्होंने वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित साधनाओं का वैदिक रीति से निर्माण किया तथा समाज में सरल रूप में प्रस्तुत कर समाज को लाभान्वित किया। जिनको करने में लोग डरते थे। और एक शिष्य को किस प्रकार गुरु आज्ञा पालन करना चाहिये। यह गुरुदेव निखिल के जीवनचर्या से हमें सीख लेनी चाहिये। उन्होंने अपने परिवारिक जीवन में अकूत सिद्धियों के स्वामी होते हुये भी कभी उनका प्रयोग अपने निजी जीवन में नहीं किया। इन सभी सिद्धियों का उपयोग समाज कल्याण व देश हित में ही किया।
युग परिवर्तन के इसी दौर में इस बार जब चौसठ कला पूर्ण व्यक्तित्व परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी डा- नारायणदत्त श्रीमाली जी के आवरण में आये तो हमेशा की ही भांति जैसे कृष्ण और राम को नहीं पहचाना गया उसी प्रकार उन्हें भी कुछ ही लोग पहचान पाये। परन्तु इस बार उस विराट लीला पुरूष निखिल के युद्धरत होने का तरीका कुछ अलग है। उन्होंने अधर्म के विरूद्ध धर्म की स्थापना हेतु अध्यात्म शस्त्रों से सुसज्जित साधक साधिकाओं की एक सेना ही तैयार कर दी है। क्योंकि आज के इस युग में अपने अपने क्षेत्र में अलग अलग योद्धाओं की आवश्यकता है। जिससे वे सभी सद्गुरुदेव निखिल के ज्ञान से समाज में परिचित करा सकें जिससे इस देश में कोई भी दीन हीन नहीं रह सकें।
युग पुरूष ही होते है जो युग का निर्माण करते हैं— और वे ही युग सृष्टा होते हैं और ऐसे युगपुरूष अपने अल्प सांसारिक काल में ही अपनी दिव्यता, अपनी चैतन्यता और अपनी ऊर्जा इस समाज को प्रदान कर देते हैं। वे अपनी शक्ति, अपनी तेजस्विता से सम्पूर्ण वातावरण को, सम्पूर्ण विश्व को आलोकित कर देते हैं, जिसका अनुभव चिरकाल तक होता रहता है। भगवान शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में धारण किया तथा उसे पूरे भारतवर्ष में पवित्रता तथा चैतन्यता के साथ प्रवाह दिया और आज वही गंगा, वही पुण्य सलिला, पाप विमोचनी बन चहुं ओर भगवान शिव की उपस्थिति का एहसास कराती है।
श्रीराम ने भी इसी प्रकार मर्यादा और नियमों का ऐसा सजीव आदर्श प्रस्तुत किया, कि वे जगत वन्दनीय हैं, राजकुमार होते हुये भी पितृ आज्ञा से जंगलों में विचरण करते रहे, ऐसा उन्होंने इसलिये किया, क्योंकि उस युग में यही माध्यम था, जिससे वे अपने ज्ञान, अपनी चेतना को समाज में प्रवाहित कर सकते थे।
कृष्ण ने भी समाज में जीवन का सर्वथा नवीन पक्ष स्पष्ट किया स्वयं साक्षात् ब्रह्मस्वरूप होते हुये भी एक सामान्य बालक की तरह ही जीवन व्यतीत किया, गायें चराई, गुरूकुल में जाकर ज्ञानार्जन किया और राजकार्य की शिक्षा लेकर राज भी चलाया, लेकिन इसके साथ ही गुरू के कर्त्तव्यों को भी निर्वाह करते हुये विविध साधनाओं अनेक रहस्यों को उजागर किया और भगवद्गीता जैसा दुर्लभ ग्रंथ इस समाज को प्रदान किया है।
प्रत्येक युग पुरूष ने युगानुसार ही धर्म को, अध्यात्म का जो स्वरूप मान्य था वह समाज को प्रदान किया, किन्तु— इस युग में जब छल, द्वेष, दंभ, अनाचार बहुत बढ़ गया है तब पूज्य गुरुदेव डॉ- नारायण दत्त श्रीमाली जी ने अपने अथक प्रयासों से इन बुराइयों, आलोचनाओं का निर्भीकता से सामना करते हुये साधनाओं को स्थापित किया साधनाओं के माध्यम से इस समाज में नई चेतना प्रवाहित की, नई ऊर्जा दी। उन्होंने समाज को साधना और दीक्षा का मार्ग दिया, जिस पथ का पथिक बन अपने जीवन को परिवर्तित करने में व्यक्ति समर्थ बन सके।
उन्होंने दीक्षाओं को प्रदान कर उन साधकों को भी एक पृष्ठभूमि प्रदान की जो साधना करने में असमर्थ थे, जो जीवन की समस्याओं का तत्क्षण निदान चाहते थे। उनको अपने तपस्यांश से ऊर्जा प्रवाहित कर उनमें साधनाओं का प्रवाह दिया है।
परम पूज्य गुरुदेव ने अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में अनेक रूपों में अपने व्यक्तित्व को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया, ज्योतिषी के रूप में भी वे उच्च प्रतिष्ठित पद पर वर्षों तक आसीन रहे। ज्योतिष के विभिन्न आयामों को, सूक्ष्मातिसूक्ष्म गणनाओं को सहज सरल ढंग से स्पष्ट किया।
ज्योतिष को स्थापित कर उन्होंने अध्यात्म की पुनर्स्थापना हेतु ‘मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान’ पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया, ध्यान, धारणा, समाधि, कुण्डलिनी पर भी ग्रंथ लिखे, तो वहीं प्रेम की व्याख्या को भी स्पष्ट किया, साधनाओं की गरिमा को बताया, तो वहीं गुरु और शिष्य के विशुद्ध सम्बन्ध को स्पष्ट किया। गुरुदेव के व्यक्तित्व को किसी एक रूप में आबद्ध नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वे कोई सामान्य मनुष्य नहीं थे। वे योगियों की सर्वोच्च भावभूमि पर आसीन होकर भी एक साधारण गृहस्थ की भांति ही अपने कार्य सम्पन्न करते रहे। उन्होंने स्वयं को कभी श्रेष्ठ या विशेष बताया ही नहीं अपितु सदैव ही अपने जीवन में विशेष घटनाक्रम को ही माध्यम बनाते रहे, जिससे साधक या शिष्य लाभ ले सकें। हमारे गुरुदेव तो अब इन चर्म चक्षुओं से परे हटकर हृदय में स्थापित हो गये हैं। —और अन्तर्चक्षुओं से प्रतिक्षण उनकी मनमोहिनी छवि दृश्यमान है।
उन्हीं की आज्ञानुसार कैलाश सिद्धाश्रम जोधपुर में विशिष्ट विद्याओं के माध्यम से जन साधारण की व्यक्तिगत एवं समाज स्तर पर आये दिन की समस्याओं का निराकरण आने वाली विपत्तिओं को मिटाने का और जीवन में पूर्ण भाग्योदय करने का संकल्प लिया जाता है। जिस का आधार मंत्र शक्ति एवं अनुष्ठान द्वारा किया जाता है।
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