समाज में कुछ लोगों के पास जीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक उपयोगी अन्न, वस्त्र, औषधि, धन, घर आदि की अधिकता के कारण उनका दुरूपयोग होता है तो वही कुछ लोगों के पास इन सब की अत्यधिक कमी के कारण दुःख होता है। ऐसी विषमता को कोई भी सरल मानव हृदय स्वीकार नहीं करेगा।
इसी कारण प्राचीन समय में हमारे ऋषियों ने इस विषमता को मिटाने के लिये प्रयास किया है। मानव को धर्म के अनुसार आचरण करने के लिये प्रेरित किया है। भारतीय संस्कृति धन्य है क्योंकि यहां की रीति-नीति एवं जीवन यापन की पद्धति जहां धन से अधिक धर्म को, भोग से अधिक योग को, स्वार्थ से अधिक परमार्थ एवं धर्म के चार स्तम्भ- सत्य, तप, दया और दान की महिमा को सर्वाधिक महत्व माना गया है।
वेदों में, पुराणों में, स्मृतियों में, काव्यादि ग्रंथों में दान की गरिमा, महिमा, सत्ता, महत्ता, उपयोगिता एवं आवश्यकता का विषद रूप से वर्णन पाया जाता है। दान को श्रद्धापूर्वक देना चाहिये अश्रद्धा से नहीं। अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार देना चाहिये और जो कुछ भी दिया जाय वह विवेक पूर्वक दिया जाना चाहिये। अपनी स्वयं की कोई वस्तु दूसरे को दे देना अर्थात त्याग करना दान कहा जाता है। लेकिन दे देना तो सरल है परन्तु दी जाने वाली वस्तु के प्रति मोह को छोडना कष्ट साध्य है। यदि दान देने वाला दी गई वस्तु के बारे में अपना मन नहीं लगाता अर्थात उसका गुण गान नहीं करता तो वह दान उत्तम श्रेणी में गिना जाता है।
आज के भौतिक युग में तप, यज्ञ आदि के लिये सभी के पास समय का अभाव है अतः मानव को आधि दैविक, आधि भौतिक, आधि दैहिक आपत्तियों से छुटकारा पाने का सरल उपाय दान ही है। शास्त्रों के अनुसार समस्त प्रकार के भय व कष्टों का निवारण दान करने से हो जाता है।
जैसे जब घर में किसी शिशु का जन्म होता है तो उसके अनिष्ट दोषों के निवारण हेतु दान दिया जाता है तथा घर में किसी के निधन के उपरान्त भी दान दिया जाता है। ग्रहों के कष्ट निवारण के लिये दान करने पर हमें दुष्ट ग्रहों द्वारा दी गई पीड़ा से शांति मिलती है जीवन में सभी संस्कार स्वरूप क्रिया करने पर दान का विधान हमारे ऋषियों ने रखा है इसके बिना कोई भी संस्कार पूर्ण नहीं माना जाता है।
विवेकानन्द जी दान के महत्व के बारे में कहते है एक दाता के आसन पर खड़े होकर और अपने हाथ में दो पैसे लेकर यह मत कहो- ‘ऐ भिखारी! ले, यह मैं तुझे देता हूं’। परन्तु तुम स्वयं को इस बात के लिये कृतज्ञ मानो कि तुम्हें निर्धन व्यक्ति मिला, जिसे दान देकर तुमने स्वयं का उपकार किया। धन्य पाने वाला नहीं होता, देने वाला होता है। इस बात के लिये कृतज्ञ होओ कि संसार में तुम्हें अपनी दयालुता का प्रयोग करने और इस प्रकार पवित्र होने का अवसर प्राप्त हुआ। समस्त भले कार्य हमें शुद्ध बनने तथा पूर्ण होने में सहायता करते है।
जो यश कीर्ति अनेक-अनेक पुरूषार्थ करने पर भी नहीं मिलती वह दिग-दिगन्त विश्वव्यापि यश कीर्ति दान के माध्यम से बडे ही वेग के साथ विश्व में फैलती है। तथा इतिहास में अपना नाम अमर कर देती है। दधिचि, शिवि, भामाशाह, कर्ण आदि के दानशील होने के कारण ही उनका नाम आज भी हम सम्मान के साथ याद करते है।
हमारे शास्त्र के अनुसार धन की तीन गतियां होती है- दान, भोग और नाश। यानि धन की सबसे बढिया गति दान है। दान देने के कारण हमारा धन सही व्यक्ति के पास पहुंच गया, जिसकी उसको आवश्यकता थी। अगर दान नहीं देंगे तो हम उसका भोग करेंगे अर्थात आवश्यक – अनावश्यक कार्यों में खर्च। वह भी नहीं करेंगे तो उसका नाश होना निश्चित है। जैसे – चोरी हो जाना, जुऐ में हार जाना, इन तीनों गतियों में ही धन अपना नहीं रहता लेकिन सर्वोत्तम है दान देना। ताकी जिसे उसकी आवश्यकता है उसे वह प्राप्त हो जाये। इस प्रकार दान देना हमारा कर्तव्य कर्म है। यह समझकर देना चाहिये। जहां जब एवं जिस वस्तु की आवश्यकता हो तब दिया जाये एवं देश, काल का ध्यान रखते हुये सुपात्र को दिया जाये।
दान ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रमों का आधार है। क्योंकि इन तीनों आश्रमों की आवश्यकता की पूर्ति गृहस्थियों के दान द्वारा ही होती है। अतः दान देना शुभ कर्मों की श्रृंखला में अपना एक विशेष महत्वपूर्ण स्थान रखता है। सभी प्रकार के सुख चाहने वाले को दान अवश्य करना चाहिये।
सारी पृथ्वी, पर्वत, नदियां, सागर, वृक्ष, संपूर्ण प्रकृति, सूर्य, चन्द्र, जल इत्यादि सभी वस्तु भगवान के शरीर है। यह सभी प्रकृति के वस्तु है। हमें भगवत् कृपा प्राप्ति हेतु दान अवश्य करना चाहिये। संसार में दान से ही परस्पर सम्बन्ध बने रहते हैं। संसार में जब तक दान दिया जाता है, तब तक प्रेम होता है। दूध के नाश को देख कर बच्चा भी मॉ को छोड़ देता है केवल सांसारिक मनुष्य या जीव ही दान से प्रसन्न होते हों ऐसा नहीं है, देवता भी दान से प्रसन्न होकर अभीष्ट प्रदान करते हैं।
उपकार के बिना किसी भी प्रकार से किसी का प्रेम नहीं मिलता क्योंकि देवता भी भेंट या उपकार देने से ही मनोकामना पूर्ण करते है। शत्रु भी दान मिलने पर तत्क्षण मित्र बन जाता है। समर्थ लोग बहुत अधिक दान से जिस पुण्य फल को प्राप्त कर सकते है उसी फल को एक निर्धन व्यक्ति कौड़ी के दान से प्राप्त कर लेता है। ब्राह्मणी द्वारा एक मात्र आंवले के दान से आदिगुरु शंकराचार्य को प्रसन्न कर लिया था। जिससे उसके घर में स्वर्ण वर्षा हो सकी।
महात्मा चाणक्य कहते है कि दान भी ऐसे पात्रता वालों को देना चाहिये जिससे उन्हें उस द्रव्य का पूरा लाभ हो।
जैसे समुद्र के ऊपर यदि बादल बरसते हैं तो उनका बरसना व्यर्थ माना जाता है, उसी प्रकार तृप्त पुरूषों को भोजन कराना भी व्यर्थ होता है। जैसे वर्षा की उपयोगिता खेतों में होती है, उसी प्रकार भूखों को भोजन की। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में दान देना भी निरर्थक ही है। दान की महिमा तभी मानी जाती है, जब अभावग्रस्त, पीडि़तों को उचित समय पर सहायता प्राप्त हो। इस सन्दर्भ में महात्मा चाणक्य का वचन है-
जो श्रद्धा तथा दयायुक्त हो गरीब और दुःखियों को दान देता है, अभाव पीडि़त ब्राह्मणों, विद्वानों, सन्तों पर दया भाव से श्रद्धा युक्त दान करता है तथा उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, परम पिता कृपा करके उसे अनन्त गुना धन से लाभान्वित करते हैं।
वास्तव में हृदय की उदारता का पावन प्रतीक तथा जीवन के माधुर्य का प्रतिबिम्ब दान एक ऐसा दरिद्रता नाशक कल्पवृक्ष है, जिसके फल हजारों रूपों में प्रकट होते हैं। मनुष्यों को जिताने वाला, रोते को हँसाने वाला, रोगियों को रोगों से मुक्ति दिलाने वाला, भूखे-त्रस्त लोंगो की भूख-प्यास मिटाने वाला है दान।
ऐसा अमृतमय दान मनुष्य को अन्तातोगत्वा विश्व वन्दनीय तथा जगत्पूज्य बना देता है। वास्तव में कलियुग में एक मात्र दान ही श्रेष्ठ धर्म है।
सत्पात्र को दान देने से मनुष्य अधिक धनी बन जाता है और धनवान बनने से अधिक पुण्य कमाता है। पुण्य का प्रभाव से स्वर्ग प्राप्त करता है तथा बार-बार धनवान एवं दाता बनता रहता है। परन्तु जो दानशील नहीं है वह दरिद्र बन जाता है। दरिद्र होने पर पाप कर्म करने लगता है। पाप के प्रभाव से वह नरक भोगता है तथा बार-बार दरिद्र और पापी होता रहता है।
मनुष्य को अपनी कमाई का छठा भाग दान हेतु निकालना चाहिये। जिससे जीवन में जो धन प्राप्त हुआ, वह धन शुद्ध हो जाता है। तथा वह उसके जीवन में सुख की प्राप्ति कराता है। इस तरह उस व्यक्ति के अंदर पवित्रता का निर्माण होने लगता है, जो आगे चलकर चित्त को निर्मल करने में सहायक हो जाता है, इस तरह उस व्यक्ति के जीवन में दया, करूणा, प्रेम तथा ईश्वरीय गुणों कि वृद्धि होने लगती है, जिससे वह आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़कर उस परम सत्ता को पा सकता है।
मन और शरीर दान पुण्य और परोपकार के लिये ही मिला है, बीमारों को दवा, भूखे को अन्न, प्यासों को जल वस्त्र हीनों को वस्त्र, अशिक्षितों को शिक्षा और ज्ञान दान हम सब का कर्तव्य और धर्म है। जन कल्याणार्थ यह सभी कुछ अपनी सामर्थ्यता के अनुसार होना चाहिये। धन सम्पत्ति पाकर हमें विनम्र बनना चाहिये न कि अहंकारी। जैसे फलदार वृक्ष झुक जाता है।
भौतिक दृष्टि से तो जीवन में सांसारिक सुख और समृद्धि की प्राप्ति को ही हम अपना कल्याण मानते है। सत्य युग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और कलियुग में एक मात्र दान मनुष्य का कल्याण करता है। शास्त्र निर्धन लोगों के लिये दान करने को नही कहता क्योंकि वे अपना एवं परिवार का भरण पोषण कठिनाई से कर पाते है।
इसी प्रकार धनी व्यक्ति यदि अपने परिवार के लोगों के दुःख पूर्वक जीवित रहने पर पालन नहीं करता तथा दूसरों को दान देता है। वह दान मधु मिश्रित विष सा स्वादप्रद है।
दान विश्व में सभी देशों, सभी मानव समुदायों में मान्य है। दान किसी भी वस्तु का किया जा सकता है। धन होने पर दान करूंगा ऐसा सोचना मनुष्य की भूल है। क्योंकि भविष्य में शरीर और देने का भाव रहे या नहीं रहे, धन भी रहे या नहीं रहे क्या पता। दान मरणोंपरान्त भी मित्र का कार्य करता है। दान से अर्जित पुण्य मृत्यु के बाद भी साथ रहता है।
निधि श्रीमाली
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