यदि हम विचार पूर्वक देखें तो यह साधक की एक बड़ी कमजोरी है। जिसमें वह दूसरों की उन्नति में बाधक बना है। दूसरे के लिये जो सद्भावना लोगों में बनी थी उसके प्रयास से वह कम होने पर वह प्रसन्न होता है। यदि वह यही ऊर्जा, समय व योजना स्वयं के विकास पर लगाये तो वह भी दूसरों से आगे निकल सकता है।
यह विषय प्रायः सभी जगह पाया जाता है। ईर्ष्या करना लोगों की मनोवृत्ति बन गयी है। आम लोगों में ही नहीं विशिष्टतम लोगों में भी यह मनोविकार प्रबल रूप से विद्यमान होता है। आज कल राजनीति में, व्यापार में, परिवार में चाहे कोई भी क्षेत्र हो इससे अछूता नहीं है। किसी भी भले कार्य को करने का श्रेय उसे ही मिले दूसरे को नहीं उसके लिये अनेक-अनेक उपायों की, षडयंत्रों की रचना की जाती है। गन्दे एवं उल्टे-सीधे प्रचार कर लोगों की भावनाओं पर पर चोट की जाती है। अतः स्वयं के दोषों को छिपाकर दूसरों के गुणों में, कार्यों में दोष निकालने के लिये अवसर की ताक में रहते हैं। किसी के निस्वार्थ भाव से परोपकार करने पर भी ईर्ष्या वश उसे भी स्वार्थ की संज्ञा से विभूषित किया जाता है।
यह मनोविकार बच्चे, जवान, वृद्ध, स्त्री-पुरूष, धनी- गरीब, विद्वान-मूर्ख आदि सभी में एक दूसरे के उन्नति एवं आदर सम्मान देखकर कभी भी उभर सकता है। एक बच्चा भी दूसरे बच्चे के पास एक अच्छा खिलौना देख कर अथवा दूसरे को अधिक प्यार पाते देख कर कुढ़ने लगता है कि उसके पास भी ऐसा खिलौना होता अथवा मुझे भी अधिक प्यार मिलता एक स्त्री भी दूसरी स्त्री के वैभव विलास, गहने-आभूषण को देख कर ईर्ष्या के कारण खाक हुयी जाती हैं, कि मेरे भाग्य में ऐसा क्यों नहीं है। बहुत सी शिकायतें मुझे भी प्रायः सुनने को मिलती है।
जो कुछ तो ईर्ष्यावश ही प्रतीत होती है। ईर्ष्या की ये ज्वाला साधक के विवेक को नष्ट कर देती है। जिससे उसे स्वयं के हित का ध्यान नहीं रहता। यदि ईर्ष्या से प्रेरणा लेकर हम भी अच्छे कार्यों की ओर उत्सुक होकर लग जाये तो, हमारा स्वयं का, परिवार का, समाज का, राष्ट्र का कल्याण हो सकता है। साधक को ईर्ष्या न करके प्रतिद्वंदिता करके आगे बढ़ने की होड़ तथा अपने कार्यों को श्रेष्ठ रूप में करके अपनी योग्यता को सिद्ध करने का प्रयत्न करना चाहिये। जिससे साधक का अभ्युदय होकर उसका कल्याण अवश्य होता है। जो बुद्धिमान साधक कर्मठता पूर्वक स्वयं के कार्य को पूर्ण करता है तथा दूसरे को नीचा न दिखा कर स्वयं आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है वह गुरु का, समाज का, देश का प्यारा बन सकता है तथा लोगों में स्वयं के लिये सद्भावना प्रेरित कर सकता है।
यदि क्रोध को भीतर ही भीतर दबाया जाता है तो वह ईर्ष्या में बदल जाता है। क्रोध के प्रकट होने पर उसके मन का गुबार निकल जाता है। जबकि ईर्ष्या स्वयं को अन्दर ही अन्दर जला देती है। जो शरीर के लिये बड़ा ही हानिकारक होती है। दूसरों को सुखी, सम्पन्न, धनी देख कर मन में ईर्ष्या का भाव आता है कि यह स्थिति मेरी क्यों नहीं है? यह सोच-सोच कर मन विचलित होता है जो मानव की बडी कमजोरी है। साधक इस ईर्ष्या भाव से निकल सकता है तथा इस कमजोरी को प्रयत्न पूर्वक दूर करके दूसरों की उन्नति में भी प्रसन्न रहना चाहिये। जिससे उसे भी आगे बढ़ने की सुख-सुविधाओं के अवसर प्राप्त होते हैं।
ईर्ष्या करने पर स्वयं का शरीर रूग्ण, मन अवसादग्रस्त एवं कुंठित हो जाता है। जिससे साधक की साधना अवरूद्ध हो जाती है। जिसे गुरु ही पुनः प्रयास कर सद्मार्ग पर ला सकते हैं लेकिन कुछ साधक इस अवसाद की इस स्थिति में गुरु से दूर भाग खडे़ होते हैं तथा असफल हो जाते हैं। अतः इससे बचने के हर संभव उपाय करते रहना चाहिये।
कभी ईर्ष्या के अधिक बढ़ जाने की स्थिति में शरीर में विकृति आ जाती है जिससे व्यक्ति का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है तथा पेट सम्बन्धी शिकायतें शुरू हो जाती है। साधक स्वयं की तुलना दूसरे से न करें। केवल स्वयं को प्राप्त सुख-सुविधाओं, साधना का उपयोग कर आनन्द लेना चाहिये। दूसरे के सुख, आंनद, ज्ञान को देख कर स्वयं चिंतित न होकर मिल-जुल कर कार्यों को पूर्ण करें। अच्छे काम करने वालों की प्रशंसा करें तथा अपना सहयोग करने की इच्छा व्यक्त करें। दूसरे की उन्नति से प्रसन्न होकर स्वयं भी वैसा ही बनने का प्रयत्न करें तो हम साधक बन कर सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
साधक को अनेक-अनेक नियम में रहकर ही उच्चता प्राप्त हो सकती है। उसे सकारात्मक विचारों को अपने अंदर बढ़ावा देते रहना चाहिये। किसी के द्वारा स्वयं के प्रति अपमानजनक शब्दों, निन्दा आदि करने पर क्रोध न करके उसे क्षमा कर देना चाहिये अथवा अपनी क्रिया, प्रतिक्रिया, निवेदन, मौन रूप से सद्गुरुदेव के समक्ष कर देनी चाहिये। निस्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई व आत्मोन्नति के मार्ग पर चलकर आनंद की तरंगे प्राप्त करते रहें। आनंद की तरंगे प्राप्त होने पर हम स्वस्थ मन तथा स्वस्थ तन को प्राप्त कर सकते हैं। नकारात्मक विचारों को झटककर हमें अपने जीवन के आनंदपूर्ण क्षणों का बार-बार याद करना चाहिये जो हमें जीवन में प्राप्त हुये हों। जीवन में जिस वस्तु, विचार का हम अधिक ख्याल करते हैं तो वही वस्तु हमें बहुतायत में ईश्वर प्रदान करते हैं। यदि हम दुःख को याद करें तो दुःख मिलता है, यदि आनंद और सुख को याद करें तो आनंद व सुख की वर्षा सी होती है।
साधक को यह ध्यान रखना चाहिये कि जब उसके विचारों के अनुकूल कोई कार्य सम्पन्न नहीं होता है तो उसमें गुरु की कृपा छिपी होती है। उनका विधान हमारे लिये मंगलमय होता है। वह हमारे समझ से परे की बात है। गुरु की प्रत्येक चेष्टा शिष्य के हित के लिये होती है। गुरु को समर्पण करने के पश्चात अपने मन की कोई इच्छा नहीं करनी चाहिये। वह जो चाहे जैसे चाहे वैसा करें। उससे हमारा कल्याण ही होगा, जग चाहे तो भी हमारा बुरा नहीं हो सकता ऐसी भावना साधक की रहें तो वह कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं हो सकता।
यदि दूसरों के अपशब्दों, प्रतिकूलता, निन्दा आदि में आनंद आये तो समझना चाहिये कि हम गुरु की, ईश्वर की शरणागत हुये हैं क्योंकि अनुकूलता में जो खतरा अपने विवेक के बिगडने का रहता है तथा उल्टे-सीधे कर्मों को करने का भान नहीं रहता वह प्रतिकूलता में नहीं हो सकता।
डाक्टर रोगी को कड़वी दवा देता है, जो उसके लिये कल्याणकारी होता है। माँ यदि अपने बच्चे को थप्पड भी मारती है, तो वह उसके भले के लिये है। अतः साधक इन सभी बातों को ध्यान में रखें। सांसारिक जीवन में हम एक दूसरे की प्रसन्नता को सहन नहीं कर पाते। इसी से हिंसा एवं शत्रुता का जन्म होता है। प्रेम की मधुरता और गहनता से ही हम अपने कुत्सित विचारों पर विजय प्राप्त पा सकते हैं।
ईर्ष्या के कारण ही परनिन्दा का जन्म होता है और परनिन्दा करते-करते ये हमारी प्रवृत्ति बन जाती है और इसका अन्त घृणा से होता है। परनिन्दा करने की आदत बालपन से तब प्रारम्भ होती है। जब वह अपने माता-पिता को ऐसा करते हुये देखता है अतः माता-पिता को चाहिये यदि वे अपने बच्चों का भविष्य संवारना चाहते हैं तो ऐसे क्रिया कलापों से बचें तथा स्वयं नैतिक आचरण करें, जिसे बच्चा भी अनुकरण कर सकें।
ईर्ष्या करने का मुख्य कारण हीन भावना है और अपनी स्थिति-परिस्थिति के प्रति संतुष्टि का भाव न होना है। इस सम्बन्ध में साधक अपने से अधिक साधन-सम्पन्न व्यक्तियों की ओर न देखकर यह देखे कि बहुत से लोगों के पास वह सब साधन भी उपलब्ध नहीं है जो स्वयं उसके पास है।
हम सभी बुरी आदतों से तभी मुक्त हो सकते हैं, जब हम प्रभु प्रदत्त प्राप्त साधनों में संतोष करें, उनकी अधिक कृपा का ख्याल करें और भगवान की ओर देखें। सच्ची अनुकूलता और प्रतिकूलता का सही प्रकार आंकलन करना चाहिये। गुरु कृपा से साधक में ऐसा भाव प्रकट हो जाये तो फिर ईर्ष्या, घृणा, निन्दा आदि कहां टिक पायेंगे।
ईर्ष्या करना वैचारिक हिंसा के अन्तर्गत आता है जब कि अष्टांग योग के आठ अंगों में प्रथम अंग-‘यम’ के पांच महत्वपूर्ण अंग बतलाये गये है जिन में प्रथम स्थान अहिंसा को दिया गया है। अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही साधक योग मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं, ईश्वर से साक्षात्कार कर सकते हैं। अहिंसा परमो धर्मः शास्त्रों में अहिंसा को ही परम धर्म कहा गया है, अतः ईर्ष्या की मनोवृत्ति का त्याग करके ही हम योग के अनेक-अनेक नियमों का स्वतः ही पालन कर लेते हैं।
अपनी उन्नति चाहने वालों को परनिन्दा और दूसरे के बारे में बातें नहीं करनी चाहिये। भागवत में कहा गया है कि करना तो दूर की बात है, किसी दूसरे के गुण तथा दोषों का चिंतन नहीं करना चाहिये। यदि करना भी पडे़ तो किसी के गुणों को ही कहना चाहिये उसके दोषों की तरफ नहीं देखना चाहिये तथा न ही बोलना चाहिये। दोष, चिंतन और और परनिन्दा का त्याग करने पर बडा ही लाभ साधक को होता है। अतः साधक को स्वयं के दोषों का त्याग तथा गुणों का विकास करने का प्रयास करते रहना चाहिये। मंगलमय जीवन की शुभकामना के साथ———–!
आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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