होली को हिन्दु धर्म के प्रमुख पर्व के रूप में माना जाता है। प्रकृति में, होली आने के पूर्व ही एक मादकता का संचार होने लगता है, जो सूचक होता है, वसंत के आगमन का। नई-नई कपोलें वृक्षों पर फूटती हैं, एक सोंधी-सोंधी सी सुगन्ध वातावरण में फैल सभी को भाव-विभोर सा कर देती है। हम में उत्साह, प्रेम का संचार सा होने लगता है, होंठ स्वतः गुनगुनाने लगते हैं। प्रकृति की मादकता, उसके द्वारा छिड़की गई यौवन की गुलाल रंग जाते हैं। हमें प्रेम रंगों में, ऐसा लगता है कि बह रही हवायें एक गुन-गुनाहट का स्पर्श देकर चुपके से चला गया है। होली का पर्व फाल्गुन पूर्णिमा के दिन आता है और उस रात्रि से ही काम महोत्सव का प्रारम्भ होता है। भौतिक व सामाजिक दृष्टि से यह उमंग, उत्साह व आह्लाद के पर्व के रूप में मनाया जाता है। जिस दिन व्यक्ति वर्ष भर की सारी चिन्ताओं से मुक्त होकर मन में स्वतंत्रता व उच्छवास का अनुभव करता है। पूरे साल भर में यौवन और अठखेलियों के ऐसे मदमाते दिन फिर कभी होते ही नहीं।
होली पर्व मनाने की प्रथा कब से शुरू हुई इसमें कई मत है, कहा जाता है कि इस पर्व का सम्बन्ध काम दहन से है। भगवान् शंकर ने इसी दिन अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था। तभी से इस त्यौहार का प्रचलन हुआ। यह भी कहा जाता है, कि हिरण्य कश्यप की बहन होलिका वरदान के प्रभाव से नित्य प्रति अग्नि-स्नान करती और जलती नहीं थी। हिरण्य कश्यप ने अपनी बहन से प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि स्नान करने को कहा। उसने समझा था, कि ऐसा करने से प्रह्लाद जल जायेगा तथा होलिका बच निकलेगी। हिरण्य कश्यप की बहन ने ऐसा ही किया लेकिन भगवान विष्णु के वरदान स्वरूप होलिका तो जल गयी, किन्तु प्रह्लाद जीवित बच गये, तभी से इस त्यौहार को मनाने की प्रथा चल पड़ी।
होली पर्व का वास्तविक रूप से प्रारम्भ होलाष्टक से हो जाता है। होलाष्टक जो कि फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा पर्यन्त आठ दिन मनाया जाता है। जिस दिन होलाष्टक प्रारंभ होता है, उस दिन पेड़ की एक शाखा काट कर उसे रंग-बिरंगे कपड़ों से लपेट कर उस जगह गाड़ा जाता है, जहां होलिका दहन होना है। उसके बाद इन आठ दिनों तक आस-पास के लोग सूखी लकडि़यां, गोबर के उपले इत्यादि लाकर उस डंडे के चारों ओर इकट्ठा करते रहते हैं, धीरे-धीरे एक बड़ा ढे़र बन जाता है, होलिका दहन तक इसे कोई नहीं छेड़ता है। सभी लोग इसके नीचे होलिकोत्सव मनाते हैं। ऐसी मान्यता है कि होलाष्टक से होली तक का समय एक विशेष तांत्रिक समय है। उस समय किसी बड़ी नवीन वस्तु का क्रय करना, नया वाहन लेना, नये मकान की पूजा, गृह प्रवेश, विवाह आदि वर्जित है।
होलिका दहन से पहले स्त्रियां होली को पूरी श्रद्धा से पूजा करती हैं और पूजन सामग्री का कुछ अंश होलिका को अर्पण करती हैं। उसी समय नवजात शिशुओं, जो कि पिछली होली के बाद से अब तक जन्म लेते हैं, उन्हें तिलक किया जाता है और होलिका दहन के पश्चात् उसके चारों ओर सात परिक्रमा दी जाती है, जिससे नवजात शिशुओं के रोग समाप्त हो जाते हैं और विशेष काल के प्रभाव के कारण बालक भूत-प्रेत बाधा से मुक्त हो जाता है, उस पर किसी की नजर नहीं लग सकती।
होलिका अग्नि पर्व है, क्योंकि हम उस अग्नि की पूजा करते हैं, जिसकी साधना के बल पर होलिका देवी भक्त प्रह्लाद को अपने गोद में लेकर बैठी, लेकिन अग्नि ने प्रह्लाद को अपने प्रभाव से मुक्त रखा, यह प्रह्लाद की साधना, तपस्या और प्रभु कृपा का फल है। होलिका दहन के समय जो चारों ओर खडे़ होकर उसकी पूजा करते हैं, उन्हें उस विशिष्ट अग्नि के ताप से शक्ति प्राप्त होती है, जिससे उनके जीवन के दोष समाप्त होते हैं, आवश्यकता है, मन में सच्ची श्रद्धा और विश्वास की। जब होलिका दहन प्रचंड रूप में होती है, तो उसकी हवा का रूख, धुयें का स्वरूप देखकर आज भी बडे़-बूढे़ बता देते हैं कि आने वाला वर्ष कैसा रहेगा, क्या अकाल की स्थिति पड़ेगी, अथवा महामारी फैलेगी, अथवा फसल बहुत अच्छी होगी। इनका ज्ञान उसी समय हो जाता है।
जितना महत्व होली पर्व का भौतिक दृष्टि से है, उससे कहीं अधिक महत्व आध्यात्मिक दृष्टि से है। होलाष्टक से होली पूर्णिमा तक के आठ दिवस पूर्ण रूप से तांत्रिक साधनाओं को सम्पन्न करने के लिए श्रेष्ठ माने गये हैं। इन आठ दिवसों में जो भी तंत्र प्रयोग किया जायं वह सफल होता है, इसलिये तांत्रिक लोग प्रतिवर्ष इस समय का इन्तजार करते हैं, अघोर पंथ, नाथ सम्प्रदाय, औघड़ सम्प्रदाय, नागा सम्प्रदाय इन आठ दिनों में विशेष साधनात्मक क्रियायें सम्पन्न करते हैं। इस कल्प में कोई भी साधना सम्पन्न की जा सकती है। जिन साधनाओं में पूरे वर्ष भर सफलता न मिल पाई हो, उन्हें भी एक बार फिर इसी अवसर पर दोहराया जा सकता है।
वर्ष में कुछ दिवस ऐसे विशेष महत्व के होते हैं। जब प्रकृति का संतुलन, प्रकृति की रहस्यमय लीला, अणु-अणु चैतन्य होने के साथ इस प्रकार का वातावरण होता है। जो साधक को उसके परिश्रम का सौ गुना अधिक प्रभाव दे जाता है या स्पष्ट कहें तो प्रकृति विरोध न करने के स्थान पर सहायक और मृदु रूप में सामने आती है। प्रकृति के प्रकट स्वरूप में हम उसे दो प्रकार से देखते हैं या तो शीतल मंद पवन या उग्र प्रचण्ड तूफान के बवन्डर, खेतों को सींचने वाला नद़ी का शांत जल और वहीं बाढ़ की उफनती नद़ी से गांव के गांव निगलने वाला रौद्र प्रवाह। दोनों ही दृष्टियों में यदि प्रकृति हमारे साथ हो जाये तो संसार में कोई भी कार्य असंभव प्रतीत नहीं होता। इन दिवसों की यही विशेषता है कि प्रकृति सभी रूपों में साधक का साथ देने को तत्पर रहती है। प्रकृति की यह उग्रता और तंत्र की प्रचण्डता के सही ताल-मेल का दिन ही कालरात्रि, दीपावली की रात्रि या होलिका-दहन की रात्रि होता है। प्रकृति इस दिन सामान्य स्थिति में नहीं होती। इन दिवसों में कण-कण पूरी क्षमता से कम्पनमय रहता है और साधक इन्हीं क्षणों को पकड़ने की कला जानता है।
होली पर्व घर के दुःख दारिद्रय रूपी दोषों को जीवन से निकाल बाहर फेंक देने का पर्व है, दीपावली से होली तक आपने क्या-क्या कार्य किये हैं, अपने जीवन में क्या-क्या लक्ष्य स्थापित किया है और उस लक्ष्य की पूर्ति के लिये आपने अपनी कार्य क्षमता में कितना विकास किया है। यह सब अपने मन ही मन समझ कर अपनी गलतियों पर विचार कर उन्हें पुनः नहीं दोहराने का संकल्प दिवस है। अपने इस जन्म के दोषों को तथा पिछले जन्म के दोषों को भी दूर कर अपना भाग्य स्वयं लिखने में समर्थ होने का पर्व है।
जो भी अपने जीवन को और अपने जीवन से भी आगे बढ़कर समाज व देश को संवारने की इच्छा रखते हैं, अपने और अपनों का हित करने, उन्हें प्रभावित करने की शैली अपनाना चाहते हैं, उनके लिए यह दिव्यत अवसर है, जिसका उपयोग कर वे अपनी जीवन को बदल सकते हैं।
ऐसे विशिष्टतम अवसर पर साधक सिद्ध चैतन्य स्थल गुरुधाम में अपने सद्गुरूदेव के सानिध्य में जीवन की सभी विपदाओं के समाप्ति हेतु हवन, पूजन, साधना, तांत्रोक्त दीक्षायें आत्मसात करने की क्रिया पूर्ण करते हैं।
होलाष्टक के चैतन्य अवसर में सभी संताप, दुख, तंत्र-शत्रु बाधाओं, धनहीनता के शमन हेतु विशिष्ट तांत्रोक्त धूम्र विलोचन नृसिंह भैरव साधनात्मक क्रिया परम पूज्य सद्गुरूदेव होलाग्नि प्रज्ज्वलित कर सिद्धाश्रम शक्ति तेज पुंज युक्त क्रियायें प्रत्येक साधक को सम्पन्न करायेंगे। जिससे प्रत्येक साधक के जीवन से सभी पाप, दोष, विकार, न्यूनता, धनहीनता, जड़ता, बाधा, रोग, व्याधि, पीड़ा होलाग्नि के तेज में भस्मीभूत हो सकेगा। ऐसी चैतन्य साधनात्मक क्रियायें सम्पन्न कर साधक पूर्ण रूप से सहस्र लक्ष्मी को चिरस्थायित्व कर सकता है और जीवन को उच्च स्थिति में स्थिर कर सकेगा।
धूम्र विलोचन नृसिंह भैरव होलिका महोत्सव 11-12 मार्च को कैलाश सिद्धाश्रम जोधपुर में सम्पन्न होगा। जिससे साधक की कामनाओ एवं इच्छायें पूर्ण होकर जीवन में सौन्दर्य, सम्मोहन, वशीकरण, निर्भयता, शत्रु दमन और अक्षुण्ण धन वैभव के साथ नृसिंहत्व चेतना शक्ति पूर्णता से आत्मसात कर सकेंगे।
आप सभी का कैलाश सिद्धाश्रम जोधपुर में हृदय भाव से स्वागत है——–!
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,