इसलिये कि तुमने समर्पण का अर्थ समझा ही नहीं है, समर्पण करने की क्रिया नही है, समर्पण तो घटने की घटना है, यदि तुम स्वयं इसके लिये प्रयास करोगे भी तो ऐसा होना संभव नहीं है, जब व्यक्ति सादगीपूर्ण, सरल जीवन जीता है, उसके जीवन में किसी प्रकार का छल, कपट, पाखण्ड, आडम्बर न हो कर वह एक खुली किताब की तरह अपना जीवन व्यतीत करता है, तो वह अहंकार रहित होता है और जहां अहंकार नहीं होता है। वहां ईश्वर स्वयं उपस्थित होता है, क्योंकि वहां व्यक्ति की स्वयं की उपस्थिति नहीं होती जहां मैं गया वहां स्वतः समर्पण होता है।
एक आडम्बरहीन सरल व्यक्ति ही प्रसन्नता से आनन्द से जीवन जी सकता है और प्रसन्न रहने के लिये किन्ही उपकरणों की या किन्हीं अन्य वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती। शांति पूर्वक जीवन व्यतीत करना, प्रसन्नता पूर्वक जीने के अनेक कारण हो सकते हैं तथा दुःख व अशांति पूर्वक जीने के लिये भी बहुत से कारण हो सकते हैं। यह केवल अपने-अपने दृष्टिकोण का, अपने-अपने विचारों का अपना-अपना ढंग है। एक व्यक्ति जो भी उसके पास साधन है, उसी में खुश रह सकता है। उसी को पाकर आनंदित है तथा सरलता पूर्वक अपना जीवन निर्वाह करता है।
कुछ व्यक्ति जिन के पास कुछ भी साधन नहीं है। वह यह विचार कर प्रसन्नता पूर्वक रहता है कि ईश्वर ने यह जीवन दिया है, उसी की कृपा से मैं जीवित तो हूं। जब कि कुछ व्यक्तियों के विचार, सोच, सदैव कुछ न कुछ एकत्र करने की होती है। जो उसके पास होता है। वह उसका आनंद न लेकर, अन्य अनेक वस्तुओं की ओर आकर्षित होकर दुःखी रहता है कि यदि यह चीज मेरे पास हो जाये तो ही मैं सुखी होऊंगा। जिस घर में वह रह रहा है, उस में वह तृप्त नहीं है तथा आलीशान भवन पाने की इच्छा ही उसे दुःखी कर रही है। ऐसे लोगों की विचारधारा ही उन्हें समस्याओं से युक्त करती है, वह धन सम्पदा की ओर भागता है, वह सोचता है, जब तक उसके पास उसकी इच्छित वस्तु नहीं हो जाती तब तक वह सुखी नहीं हो सकता, प्रसन्न नहीं हो सकता।
और एक संतुष्ट व्यक्ति ही गुरु से जुड़ सकता है, वह यह सोचकर ही खुश है कि मेरा जीवन गुरु कृपा से ही चल रहा है, जो उसके पास है उसी में आनंदित है। वह ही धर्म का पालन कर सकता है, गुरु के साथ चल सकता है। एक असंतुष्ट व्यक्ति तो प्रार्थना भी नहीं कर सकता, उसके प्रार्थना करने में भी एक शिकायत होगी, नाराजगी होगी कि आपने मुझे यह नहीं दिया, वह नहीं दिया, मुझे ये भी नहीं मिला, मेरे पास ये भी नहीं है। एक प्रसन्न व्यक्ति, सरल व्यक्ति को ही वरदान प्राप्त होते है क्योंकि उसका एक संपूर्ण हृदय एक अहोभाव से, कृतज्ञता से आपूरित होता है। प्रार्थना के समय उसकी आंखों में अश्रु होते है, कण्ठ अवरूद्ध होता है। उसको कोई शिकायत नहीं होती, उसकी कोई मांग न होकर वह तो ईश्वर के, गुरु के दिये गये पूर्व के अनुग्रहों का धन्यवाद कर रहा होता है।
हम सदैव प्रसन्न रहे, मुस्कुराते रहे, सादगी से व्यतीत करें तो हम गुरु के, ईश्वर के समीप आ सकते हैं। जो जीवन में आवश्यक है, उसके लिये प्रयत्नशील होकर जियें तथा आकांक्षाओं का पहाड़ अपने मस्तिष्क में न बनायें।
तुम्हारे पास घर है, वस्त्र है, भोजन भी है और तुम्हें चाहिये भी क्या लेकिन आकांक्षाओं और इच्छाओं के तो तुम्हारे मन में पहाड़ खडे़ हैं, तुम्हें चाहिये आलीशान भवन, तुम्हें चाहिये प्रेम करने के लिये सुंदर स्त्री, तुम्हें चाहिये लग्जरी कार आदि तो यहीं से समस्या शुरू होती है। तुम चाहते हो असंभव चीजें प्राप्त करना जो तुरन्त चाहिये। इन सब को प्राप्त करने के लिये पौरूष चाहिये, दृढ़ संकल्प चाहिये, समर्पण चाहिये। तुम सोचते हो अधिक और अधिक लेकिन तुम छोड़ देते हो कि कभी मेरे पास ये चीजें होंगी तो मुझे चैन मिलेगा। जब कि स्थिति यह है कि तुम अभी इसी समय भी चैन से सुख, शांति से रह सकते है, जो तुम्हारे पास है उसका प्रयोग कर उसका आनंद उठाकर।
कभी शांति पूर्वक सोच-विचार कर जीवन के बारे में, अपने बारे में पीछे की ओर दृष्टि घुमाकर तो देखना क्या लेकर तुम आये थे और क्या तुम्हारे पास है। गुरु से जुड़ने से पहले तुम क्या थे? और अब क्या हो? पहले कितना ज्ञान था? अब कितना है? अब इतने ज्ञानवान हो कि कोई तुम्हें ठगने की हिम्मत नहीं कर सकता। अतः काल्पनिक इच्छाओं का त्याग कर सहज, सरल, निर्दोष बालक के समान बन जाओं। तुम्हें ईश्वर के, गुरु के दर्शन तुम्हारे हृदय में ही हो जायेंगे अपितु ईश्वर तुम्हारे पास सदैव मौजूद रहेगा। एक शानदार भोज भी अस्वादपूर्ण हो सकता है, यदि भूख नहीं हो, मन प्रसन्न नहीं हो तथा रूखा-सूखा भोजन भी पूर्ण स्वाद पूर्ण हो सकता है यदि भूख लगी हो तथा मन प्रसन्न हो। तुम्हारी जिंदगी ही एक मात्र दौड़ बन कर रह गयी है, तुम्हारी अति महत्वाकांक्षाओं के कारण। इन्ही महत्वाकांक्षाओं, इन्ही पागलपन की इच्छाओं के कारण जीवन में कोई संतुष्टि का भाव नहीं आता। तथा तुम पूरे जीवन भर दौड़ते ही रहते हो, सुख चैन खो बैठते हो तो ईश्वर को कैसे प्राप्त कर सकते है?
जीवन को अनन्त आनंदयुक्त बनाने के लिये किसी शर्त की आवश्यकता नहीं हो सकती। कुछ व्यक्तियों के अनुसार तो पहले कुछ खास शर्तों को पूरा करने पर ही आनंद की प्राप्ति होती है। दुःख का कारण अहंकार होता है और स्वयं का जागरूक न होना ही अहंकार का होना है। हम उन चीजों के पीछे दौड़ते हैं जो व्यर्थ होते हैं। हम दौड़ते हैं मोह के कारण, द्वेष के कारण, घृणा के कारण जो हमारे अंदर अहंकार को दर्शाता है। हमारा कुछ भी करना अहंकार द्वारा ही होता है। यदि हम कुछ भी न करें, केवल देखते रहें, साक्षी भाव से तब हम अहंकार शून्य होते हैं। मैं तो चाहता हूं कि तुम्हारा प्रतिदिन उत्सवमय हो। इस प्रकार जियो कि प्रत्येक रात्रि एक जागरण की रात्रि हो जाये, नृत्य युक्त बन जाये और तुम यह कर सकते हो, सिर्फ दृष्टिकोण बदलने की बात है। जितना अधिक नृत्य युक्त बनोगे उतना अधिक उत्सव जीवन में मनाओगे। उतना ही अधिक ऊर्जा से स्वयं को आपूरित कर सकोगे।
पक्षी गा सकते हैं, नृत्य कर सकते हैं, साधारण से पक्षी और जो नृत्य कर सकता है, वह आनंदयुक्त हो सकता है। मोर नाचता है प्रकृति को धन्यवाद करने के लिये, कबूतर नाचता है, अपनी प्रेमिका को रिझाने के लिये, उसके चारों ओर तो तुम क्यों नहीं कर सकते हो यह सब। हम व्यर्थ की बाधायें अपने चारों ओर निर्मित कर लेते हैं और तुम प्रतीक्षा करते रहते हो, अवसरों की और अवसर भी तुम्हें अनेक बार मिलते हैं। फिर भी तुम अपने जीवन को उत्सवमय नहीं बना पाते। तुम अपने जीवन में साधारणता, सादगी, सरलता लाने का प्रयास करो। जीवन अवश्य उत्सवमय होगा। ध्यान रखना कि कोई भी साधारण नहीं है। प्रत्येक असाधारण है, ईश्वर किसी को भी साधारण नहीं बनाता। उसने प्रत्येक में कोई न कोई विशिष्टता दी है। परन्तु किसी के कहने पर अहंकार नहीं करना, तुम जो हो सो हो यही पर्याप्त है। यही ईश्वर की अनुकम्पा है, तुम्हारे ऊपर कि तुम जीवित हो, श्वास ले रहे हो, प्रकृति के दृश्यों को निहार सकते हो।
दुःखी होने पर तुम रो सकते हो, क्रोध होने पर तुम आपा खो बैठते हो, मरने-मारने पर उतारू हो सकते हो, तो प्रसन्न होने पर नृत्य क्यों नहीं कर सकते हो? उसके लिये तुम्हें कोई अलग क्लास में थोडे़ ही जाना पडे़गा। जब तुम दुःख व क्रोध के लिये किसी क्लास में नहीं गये, तो आनंद व नृत्य के लिये क्लास किस बात की। हो सकता है पहली बार नृत्य करते समय तुम्हारे पांव आडे़-तिरछे पडे लेकिन भाव तो आनंद के ही होंगे। आप स्वयं के लिये नृत्य कर रहे हो, दूसरों को दिखाने के लिये नहीं जो नृत्य की क्लास में नृत्य को ढंग से कर सके वह एक कला होगी, दूसरों को आनंद देने के लिये। लेकिन स्वयं आनंद युक्त होकर नाचना तो ईश्वर को प्रसन्न करना है या ईश्वर के अहोभाव में स्वतः ही हम थिरकने लगते हैं।
पूरा जीवन ही नृत्यमय बना लें और बन जाये एक छोटे बच्चे के समान। देखो! उसके बालपन की घटनाओं को, क्रिया-कलापों को आश्चर्य पूर्वक जो कभी कीचड़ में तो कभी रेत में लोट-पोट होता है, कभी दौड़ता है, तितली पकड़ने के लिये तो कभी फूल को लेने का आग्रह करता है। एक ही वस्तु के बारे में पूछता है, बड़े भोलेपन से और कभी बिना वस्त्रों के नंगा ही भाग जाता है, हाथों से छूट कर। क्या आप भी कर सकते हैं ऐसा? नहीं! क्योंकि तुम्हें ज्ञान जो हो गया है कि बिना वस्त्रों के बाहर नहीं जा सकते। अतः ज्ञान में मत जियो यह जीवन एक आश्चर्य जनक घटना है। इसे आश्चर्य पूर्वक, मधुरता पूर्वक हर पल एक नई उत्सव के रूप में मनाओ। यदि तुम ऐसा कर सको तो तुम्हारे लिये कोई भी चीज अप्राप्य नहीं होगी।
जब कोई बच्चा प्रसन्नता से कूद रहा होता है, तो सभी को उसके साथ खेलना चाहिये। कभी पिता कोई आवश्यक कार्य कर रहा होता है और बच्चा किसी प्रश्न को बार-बार पूछता जाता है और कूदता रहता है। पिता चिड़चिड़ा जाता है बताते-बताते। समस्या होती है। लेकिन बच्चे को प्राथमिकता देनी चाहिये क्योंकि बच्चा कल का भविष्य है। पिता अपने कार्यों को कुछ देर बाद भी करें तो चल जायेगा। लेकिन बच्चे कि जिज्ञासा को विलंबित नहीं किया जा सकता क्योंकि बच्चा जिस भाव दशा में, मौज में, उमंग में, तरंग में उस जिज्ञासा के समय है हो सकता है फिर वह नहीं आये।
कुछ पिता, कुछ मातायें ऐसी होती हैं, जो कूदते हैं, बच्चों के साथ, मातायें नाचती हैं बच्चों के साथ और बना लेती हैं जीवन को उत्सवमय। हम बन सकते हैं बच्चों की भांति निष्कपट, निर्दोष एवं सरल। हमारा शरीर विकसित हो सकता है लेकिन चेतना की गुणवत्ता निर्दोष रहनी चाहिये। एक धारणा हमारे अंदर बन गयी है कि ईश्वर को पाना बड़ा कठिन है। यह बात हमारे मन मस्तिष्क पर चुम्बक की तरह चिपक गयी है कि ईश्वर बड़ी दूर है कहीं स्वर्ग में, वैकुण्ठ में, पहाड़ पर, आकाश में आदि-आदि। बड़ी लम्बी यात्रा के पश्चात उसे पाया जा सकता है और सब की सामर्थ्य उसे पाने की नहीं है। हमने छोड़ दिया ईश्वर को पाने का विचार जब दूरी अनंत है, पाने की संभावना भी क्षीण है। मनुष्य के लिये धन पाना आसान है, वह भागता है धन की ओर। पद पाना आसान है, वह दौडता है पद की अभिलाषा में, यश पाना सरल है, तो वह उपाय करता है यश पाने के लिये। कुछ लोग किसी के बहकाने पर ईश्वर की तलाश में कहीं दूर निकल जाते है और भटक जाते हैं।
लेकिन जहां पर आप है, ईश्वर भी वहीं है, उसी जमीन पर जहां पर आप खडे़ है और आप अपने हृदय की आंखे खोलें और ईश्वर को अनुभव कर लें। जीवन के संगीत में आपको ईश्वर की झलक मिल जायेगी वह दूर नहीं है। वह अत्यंत समीप है, जो यह कहते हैं कि वह दूर है, उन्हें कोई अनुभव ही नहीं है, क्योंकि यदि वह दूर है, तो हमारे आस-पास यह प्रकाश, यह हवायें, यह घटाये, यह बादल, यह वृक्ष, यह पक्षी आदि-आदि क्या है, इन सब में देवताओं के, ईश्वर के दर्शन सुलभ है। हमने अपने और ईश्वर के बीच एक दूरी बना ली है। इसीलिये ईश्वर से मिलन कठिन हो गया है। क्योंकि कुछ धर्म गुरु, पादरी, पण्डे-पुरोहित प्राचीन समय से ही यह बात मनुष्यों को समझाते आये हैं कि ईश्वर को पाना बड़ा कठिन है। यह प्रचार करते-करते वह अपना हित साधते आये हैं। ईश्वर का ठेका केवल उन्होंने ही ले रखा है, क्योंकि वह इस प्रकार ईश्वर की जगह स्वयं की पूजा करवाते आये हैं। तथा उनकी रोजी-रोटी का साधन तुम लोग बन गये हो। यदि तुम ईश्वर को पूजने लगे तो उन्हें कौन पूजेगा? यदि ईश्वर को पाने को वह सरल कहेंगे तो उन्हें कौन पूछेगा?
वे यह कहकर कि ईश्वर के साथ साक्षात्कार करना कठिन है, अपनी उपस्थिति आपके व ईश्वर के बीच करा रहे हैं। क्योंकि ईश्वर मनुष्य से जितना दूर होगा, धर्म गुरु मनुष्य के उतने ही समीप आयेंगे तथा मनुष्य धर्म गुरुओं के शोषण का शिकार होंगे। संसार में अनेकों-अनेकों धर्म है तथा अनेक पंथ भी है सभी धर्म गुरु यही बताते हैं कि ईश्वर से साक्षात्कार करने का मार्ग हमें पता है। हम तुम्हें बतायेंगे इन्ही धर्म गुरुओं के कारण ईश्वर से हमारा मिलन भी संभव नहीं हो पा रहा है। आपको पता ही है कि यदि एक बात को हजारों साल तक बार-बार पुनरावृत्ति करें तो वह भी सच प्रतीत होने लगती है।
लोग उन्हें मानने को मजबूर हो जाते है यही बात हमारे मन-मस्तिष्क में बैठ गयी है। हमारा मन उनकी बातों को पकड लेता है और हम मान लेते हैं कि ईश्वर को पाना मेरे बस में नहीं। यह मेरी सीमा के बाहर की बात है। जब ऋषि-मुनियों को हजारों वर्ष तपस्या करके भी नहीं मिला तो मुझे क्या मिलेगा? इसीलिये हमने अपनी तरफ से प्रयास छोड़ दिया तथा साधनाओं का त्याग कर दिया। हमें जो वस्तु सहज प्राप्त होती है, उसका कोई मूल्य नहीं होता तथा जो वस्तु अप्राप्त है या कठिनता से प्राप्त होती है उसको विक्रय (बेचना) किया जा सकता है। उसकी कीमत ली जा सकती है। इसीलिये ईश्वर से साक्षात्कार करने की बात को कठिन बताया गया जिससे उसके नाम पर व्यापार किया जा सके।
ईश्वर को पाने की कठिनता का प्रचार इतना अधिक हुआ कि भोले-भाले सरल लोगों ने उस तरफ सोचना भी छोड़ दिया उनकी विचारधारा ही ऐसी हो गई कि यह हमारी क्षमता के बाहर है, हम ईश्वर को प्राप्त करने के पात्र नहीं है। और वास्तव में, सच तो यह है कि यह भोले-भाले सरल लोग ही तो ईश्वर को प्राप्त करने के अधिकारी है। ये ही तो अहंकार शून्य होते है। इनका ही मन बालक के समान होता है, इनके अन्दर छल-कपट आदि नहीं होता इन्ही पर तो धर्म गुरुओं की शिक्षा का प्रभाव पड़ा। अन्यथा अहंकारी तो सदैव विपरीत ही चलता है। एक बार कह दो कि यह कार्य करना बड़ा कठिन है तो वह उसे करने के लिये तत्पर हो जाता है। परमात्मा को पाने के लिये वे ही लोग प्रयासरत हुये, जिन में अहंकार अधिकतम है और व्यक्ति संन्यासी बन भगवे वस्त्र धारण कर लेते हैं कि घर-बार आदि छोड़ कर तो ईश्वर मिलेंगे ही। लेकिन ईश्वर कभी अहंकारी को मिले हैं क्या?
ईश्वर तो मिले हैं, सरल चित्त लोगों को, ईश्वर दिखे हैं विनम्र मनुष्यों को स्वयं में भी, दूसरों में भी और यदि तुम लोग एक दूसरे पक्ष की ओर विचार कर देखो तो समझोगे कि आपके लिये ईश्वर को पाना कठिन नहीं है। ईश्वर को खोना कठिन है। क्योंकि मनुष्य ईश्वर से दूर है ही नहीं वह एक पल के लिये भी उससे दूर रहने में सक्षम नहीं है, क्योंकि वह ईश्वर भी क्या? जिससे दूर रहकर जिया जा सके हम दूर जा सकते हैं पत्नी से, बच्चों से, रिश्तेदारों से, पिता से, गांवों से, देशों से। लेकिन ईश्वर तो स्वयं हमारे अन्तःकरण में विद्यमान है फिर हम कहां भागेंगे? जहां भी जायेंगे, जहां भी रहेंगे वह हमारे साथ-साथ रहेगा। अतः हम ईश्वर को स्वयं से दूर नहीं कर सकते, उसे खो नहीं सकते यह बात ही कठिन है। अतः ईश्वर को खोना कठिन होगा, पाना बड़ा सरल होगा। उसे पाने के लिये हमें किसी विशेष जाति में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं है तथा न ही धर्म संगठन से जुड़ने की तथा न ही किसी धार्मिक सम्मेलन में भीड़ का हिस्सा बनने की। अब तक जिसने भी पाया अकेले ही ईश्वर से साक्षात्कार किया है, एकान्त में किया है, निजता में किया है। ईश्वर का संगठन से, भीड़ से, सम्प्रदाय से, जाति से कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका सम्बन्ध जिससे भी हुआ नितांत अकेले में हुआ। जिससे हुआ, उसका राज उसे ही मालूम रहा। उसकी पत्नी, बेटे, नाती, पोते तक को नहीं पता चला। उससे तो व्यक्तिगत सम्बन्ध बनता है, उसमें कोई सिफारिश अथवा घूस नहीं चलती।
बडे़-बडे़ धार्मिक संगठन ईश्वर का साक्षात्कार नहीं करा सकते, क्योंकि वहां व्यक्ति एक भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। भीड़ कभी ईश्वर से सम्बन्ध नहीं बना सकती अतः हमें ईश्वर तक जाने का रास्ता स्वयं ही (अकेले) तय करना है। तभी हम वहां पहुंच सकते है। सभी धर्मों के पहुंचे हुये महापुरूषों को भी अकेले में, एकांत में ही प्रभु से साक्षात्कार हुआ चाहे वह बुद्ध हों, क्राइस्ट हों, महावीर हो, मुहम्मद हो या कोई भी हो। ऐसा नहीं है ईश्वर केवल मंदिरों में ही रहता हो या अल्लाह केवल मस्जिद में ही रहता हो अथवा मूर्ति में ही भगवान हो। ऐसा कोई मंदिर, मस्जिद, मूर्ति आदि इतनी विशाल कैसे हो सकती है कि वह ‘असीम’ को अपने अन्दर समाहित कर लें। ईश्वर है तो सब जगह है, वह अनन्त है, विराट है।
और किसी को पता नहीं कि कब किस क्षण ईश्वर की कृपा प्राप्त हो जाये, कब उसकी झलक मिल जाये तो जीवन सफल हो जाये। अतः हमें अपने हृदय के कपाट प्रेम भाव से सदैव खुला रखें। क्योंकि ईश्वर हृदय द्वार पर ही आते हैं। सूर्य के उगने की तरह यदि हम अपने कमरे के दरवाजा बन्द रखेंगे तो सूर्य की किरणें अन्दर नहीं आ सकेंगी। सूर्य अपनी तरफ से अन्दर आने की कोई कोशिश नहीं करेगा। उसके लिये हमें ही दरवाजा खुला रखना होगा। यही बात ईश्वर की है। वह आये तो हमारे भीतर जाने का हृदय का भाव उसके लिये खुला हो तो साक्षात्कार हो सकता है।
हमें मंत्र सिद्धि क्यों नहीं मिल पाती, क्योंकि जब हम पूजा करने का, साधना करने का संकल्प कर साधना करने बैठते हैं या ध्यान के लिये बैठते हैं, तो उसी समय हमारा मन विचारों से भर उठता है। हम संकल्प लेते हैं कि हमारा मन शांत रहें हमारे मन में बुरे विचार बिल्कुल न आये लेकिन वही आने शुरू होते हैं। जिन्हें कहते है मत आओ क्योंकि जिसे हम मना करते हैं, उसके प्रति भी आकर्षण बढ़ता है, तो न तो हम शांत हो पाते है, न कभी निर्विचार होते हैं तो कैसे ध्यान लगेगा? किस प्रकार सत्य का अनुभव हो सकेगा? बिना एकाग्रता के हम ईश्वर तक कैसे पहुंच पायेंगे? हम ईश्वर के बारे में किताबों से, ग्रन्थों से शब्दों के द्वारा जान तो सकते हैं लेकिन उससे सम्बन्ध नहीं बना सकते हैं। सम्बन्ध तो भावों से ही बन पाते हैं। तुम मंत्र जप भाव द्वारा करों तो देवता प्रकट हो सकते हैं। तुम्हारे पास क्या है, क्या नहीं है, ये देवता नहीं देखते। तुम हीरे-जवाहरात चढ़ाओ या फूल चढ़ाओ अथवा दो रूपये। आपने किस भाव से चढ़ाया इस को परमेश्वर देखता है। एक करोड़पति हीरे चढ़ाता है, तो कोई कामना पूर्ण हो या नहीं हो यह निश्चित नहीं है, लेकिन एक व्यक्ति दो रूपये चढ़ाता है अथवा श्रद्धा भाव से फूल चढ़ाता है, तो उसकी कामना पूर्ण हो जाती है। दो रूपये चढ़ाने वाले के पास केवल दो रूपये ही थे। अतः उसने अपना सब कुछ दांव पर लगाने की हिम्मत की है, त्याग किया है। वास्तव में भावों का ही मूल्य है।
इन बातों को अपने मन में मत लाना कि मेरे पास तो चढ़ाने कि लिये कोई मूल्यवान वस्तु नहीं है। मैं तो गरीब हूं। मैं भगवान के चरणों में क्या चढ़ा सकता हूं? मेरे पास कोई पद भी नहीं है, धन भी नहीं है आदि-आदि। श्रद्धा के दो अश्रु भी बहुत मूल्यवान है। और तुम्हारे सब के पास भाव तो हैं ही, तुम अपने मन के राजा हो। यदि तुम्हारी आंखों में परमेश्वर के प्रति, गुरु के प्रति, हृदय भर आये, वाणी विगलित हो जाये और कण्ठ अवरूद्ध हो जाये तो उनके प्रति आंखों से केवल अश्रु ही ढलकेंगे और ये अश्रु उन हीरे-जवाहरातों से, करोडों-करोडों रूपों से भी मूल्यवान होंगे। ईश्वर उन्हें तुरन्त स्वीकार कर लेगा। तुम पुकारों और ईश्वर से जुड़ाव न हों, तो समझो पुकार सच्चे हृदय से नहीं की गयी। तुमने शब्दों के माया जाल में उलझकर केवल मुख से कुछ शब्द ईश्वर की महिमा के निकाले हैं। हृदय से पुकार नहीं निकली। तुम्हारे प्राण थर-थराये नहीं। यदि रोम-रोम से पुकार निकले तो ही बात बनेगी। तुम्हें अपना अन्तिम प्रयास हृदय से करना है।
तुम उस मृग के समान पागल मत बनों जो कस्तूरी की मादक गंध में इधर-उधर दौड़ता-फिरता है, उसकी तलाश में। मादक गंध के स्त्रोत को पाने के लिये, जिसे पाने के लिये वह स्वयं को घायल तक कर लेता है और जितना अधिक दौड़ता है, उतना ही व्याकुल होता जाता है। वह जहां-जहां भी जाता है, वह गंध तो उसके साथ-साथ चलती है। जो उसके स्वयं के अंदर से ही आती है लेकिन वह भ्रमित होता रहता है, उसे नहीं पता कि गंध कस्तूरी के अन्दर से आ रही है और वह कस्तूरी उसकी नाभि में स्थित है, बड़ी ही भाव-विभोर कर देने वाली गंध होती है। इसीलिये कबीर कहते है – ‘कस्तूरी कुंडल बसै मृग ढूंढै वन मांहि’ लेकिन मृग को कौन समझायें कि तू एक जगह बैठ जा और ध्यान लगा कर भीतर उतर जाओ। तेरे अंदर ही यह गंध व्याप्त है।
मनुष्य की नाभि भी आनन्द का स्त्रोत है, मनुष्य को मूल उत्सव, उसका मुख्य केन्द्र उसकी नाभि ही है। अगर तुम भी अपनी नाभि में उतर जाओं तो ईश्वर की सुगंध का आभास कर लोगे। सारे जीवन का राज तुम्हारी नाभि में छुपा है। जीवन से पहले जब माँ के गर्भ में होते हो तो भी तुम्हारे जीवित रहने का केन्द्र तुम्हारी नाभि ही थी और यदि तुम ध्यान के क्षणों में, समाधि के क्षणों में सूक्ष्म शरीर को अपनी देह से अलग करने में सफल हो जाओं तो उस समय भी तुम एक सूक्ष्म किरण के द्वारा नाभि से जुडे़ रहते हो। तुम पूरे ब्रह्माण्ड में कहीं भी घूमो लेकिन अपनी देह कि मुख्य केन्द्र नाभि से एक सूक्ष्म किरण के द्वारा सदैव जुडे़ रहते हो। यदि तुम्हारे सूक्ष्म शरीर का सम्पर्क तुम्हारी नाभि से टूट जाये तो तुम्हारी देह को मृत घोषित कर दिया जायेगा, नाभि हमारी देह का मुख्य केन्द्र है।
तुम भी सभी भ्रमित हो मृग की तरह। तुम भी दौड़ रहे हो पद की दौड़ में, धन कमाने की लालसा में, यश प्राप्त करने की इच्छा में भीड़ की तरह एक दूसरे की प्रति स्पर्धा में। लेकिन अधिक धन कमाकर, अधिक यश प्राप्त कर, पद सिंहासन प्राप्त करके भी क्या हो जायेगा। तुम्हारे जन्म लेने का उद्देश्य तो तुम भूल ही गये हो। तुम्हारे पास विचार करने का अभी वक्त नहीं है, कि जरा कुछ समय निकाल कर विचार कर लूं, कि यह जन्म क्यों लिया, किस कारण से लिया। जब तुम विचार करोगे कि तुम क्या कर रहे हो? किस के लिये कर रहे हो? इस बेईमानी आदि करके भी तुम्हें क्या मिलेगा? तो पाओगे कि यदि तुम इस सभी कार्यों में सफल हो भी गये तो भी अन्त समय में तुम्हें असफलता ही अनुभव होगी। तुम जीत भी गये तो भी तुम्हारी हार ही अनुभव होगी, क्योंकि तुम्हारे जीवन जीने का, जन्म लेने का उद्देश्य, लक्ष्य ही पूरा नहीं होगा और तुम्हारे पास समय भी नहीं बचेगा। तुम्हें अपने ज्ञान व मूढ़ता पर क्रोध आयेगा।
तुम अपने अहंकार के कारण सद्गुरु के पास से भाग जाते हो, क्योंकि सद्गुरु सपनों को खण्ड-खण्ड कर देता है। तुम्हारे अहंकार को तोड़ देता है, सद्गुरु तुम्हारे सामने आईना कर देता है। तुम्हें अहसास कराता है कि तुम क्या हो? वह सत्य को तुम्हारे सामने पेश कर देता है, तो तम्हें कठिनाई होती है। इस समाज को भी कठिनाई होती है, इसीलिये आज तक किसी भी सद्गुरु को कोई प्राइज नहीं मिला। कोई चक्र नहीं मिला, उन्हें पत्थरों से मारा गया, उन्हें शूली पर चढ़ाया गया, उन्हें जहर दे कर मारा गया, उन्हें कीले ठोकी गयी। क्योंकि उन्होंने सत्य को उघाड़ कर दिखा दिया लोगों के सामने, उजागर कर दिया उनकी असलियत को। फिर भी सद्गुरूओं ने अपनी करूणा से प्रेम की ही वर्षा की।
सद्गुरुदेव कैलाश चन्द्र श्रीमाली
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,