





इस सूत्र में अष्टावक्र कहते हैं कि जो बन्ध के कारण ही मोक्ष है अर्थात् जब चित्त न चाह करता है, न सोचता है, न त्यागता है, न ग्रहण करता है, जब यह न सुखी होता है न दुःखी होता है तब मुक्ति है। चित्त की शान्त अवस्था ही मुक्ति है। यह मन, बुद्धि, अहंकार और शरीर भी चित्त से भिन्न नहीं हैं बल्कि चित्त की ही विभिन्न अवस्थायें हैं। चित्त वासनाओं और इच्छाओं का पुंज है, उसमें ‘मैं’ भाव का उत्पन्न होना, अपने को आत्मा से भिन्न मानना ही अहंकार है। वासनापूर्ति हेतु जब वह विचार करता है तब उसे ‘मन’ कहते हैं, जब वह अच्छे-बुरे का भेद करता है, निर्णय लेता है तब ‘बुद्धि’ कहलाता है, जब वह क्रियाशील होता है तो ‘शरीर’ है। शरीर का विकास भी चित्त की वृत्तियों के कारण एवं उसके अनुरूप ही हुआ है। यह संसार और मोक्ष कोई भौगोलिक स्थिति नहीं है, किसी स्थानविशेष में नहीं है। शरीर से बाहर जो भौतिक जगत्, स्थूल जगत् दिखाई देता है, ये पर्वत, पठार, मैदान, नदियां, झरने, समुद्र आदि दिखाई देते हैं वह संसार नहीं है बल्कि मनुष्य के भीतर एक और जगत् है। इसी के अनुरूप वह बाह्य जगत् दिखाई देता है, दुःखी को दुःखपूर्ण एवं सुखी को सुखपूर्ण दिखाई देता है। बाह्य जगत् में जो कुछ एवं जैसा कुछ दिखाई देता है वह भीतरी चेतना का ही प्रक्षेपण है अन्यथा जैसे आत्मा निरपेक्ष है वैसे ही बाह्य जगत् भी निरपेक्ष है।
मनुष्य अपनी चित्तवृत्तियों के विक्षेपों के अनुसार ही इस व्यक्त जगत् की व्याख्या कर देते हैं। यही भ्रम है। इसीलिये इस संसार को अध्यात्म में माया कहा है। यह माया मनुष्य की चित्तवृत्तियां हैं न कि बाह्य जगत्। अध्यात्म इसी भीतरी माया-जगत् की बात कहता हैं इसी प्रकार मोक्ष भी कोई भौगोलिक स्थान नहीं है कि इस भौतिक-जगत् से मर कर किसी सिद्ध लोक में जाकर बैठ गये, अथवा किसी सिद्ध शिला पर बैठ गये बल्कि चित्त की आत्यंतिक रूप से शान्त हो गई अवस्था है जिसमें न कोई वासना है, न इच्छायें, न विचार, न कर्म। यही चैतन्य की शुद्धतम अवस्था है। यही आत्मा का स्वरूप है, यही निज स्वभाव है। इसे उपलब्ध हो जाना ही मोक्ष या मुक्ति है अन्य कोई स्थिति नहीं है। चैतन्य की उद्विग्न लहरें ही संसार है, एवं उनका शांत हो जाना ही मुक्ति है। मोक्ष की चाह करना, मोक्ष की चाह में संसार छोड़ देना, सत्य और आनन्द की खोज में छोड़ना भी मोक्ष का मार्ग नहीं है बल्कि वह भी कामना, वासना की लहरें ही हैं। संसार की कामना हो या मोक्ष की, ये लहरें ही हैं, विषय बदलने से लहरों में कोई अन्तर नहीं आता, कामना चाहे ग्रहण की हो, भोग की हो या त्याग की, कामना ही है अतः दोनों की मोक्ष की स्थिति नहीं है। अष्टावक्र के अनुसार संसार चित्त की चाह की अवस्था है एवं अचाह की अवस्था मुक्ति है।
पहले और दूसरे सूत्र में अष्टावक्र बन्ध और मोक्ष की अलग-अलग व्याख्या करते हैं किन्तु इसमें वे सार रूप में एक ही सूत्र में व्याख्या कर देते हैं कि जब चित्त किसी दृष्टि अथवा विषय में लगा है तब बन्ध है और जब वह सब दृष्टियों से अनासक्त है तब मोक्ष है। इसमें अष्टावक्र एक और महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि कर्म में लगा होना ही बन्धन नहीं है बल्कि आत्मा से भिन्न दिखाई देने वाले समस्त विषयों के प्रति किसी भी प्रकार की दृष्टि होना भी बन्ध है। यह दृष्टि ही वासना का रूप है।
जहाँ दृष्टि है वहीं वासना भागेगी। यदि कोई दृष्टि ही न हो तो वासना को भागने का अवसर ही नहीं मिलेगा और वह अपने आप शान्त हो जायेगी। इसीलिये चित्त जब सभी दृष्टियों से चाहे वह संसार की हो, स्वर्ग की हो अथवा मोक्ष की, अनासक्त हो जाता है तब मोक्ष है। विषयों से दृष्टि हटाकर केवल आत्म-दृष्टि वाला ही मुक्त है। इसमें एक शंका यह होती है कि यह चित्त जब विषयों में दृष्टि रखता है तब बन्ध है एवं आत्मा में रखता है तब मोक्ष है तो फिर चित्त तो चंचल है। उसकी दृष्टि आत्मा से हटकर फिर विषयों में जा सकती है। ऐसी स्थिति में तो मोक्ष भी अनित्य ही हुआ, सावधिक ही हुआ। किन्तु इसमें यदि इच्छा करके यदि चित्त को जबरदस्ती अनासक्त किया तो वह पुनः विषयों में भाग सकता है किन्तु यदि वह स्वाभाविक रूप से अनासक्त हुआ है तो वह आत्मा के साथ एकाकार हो जाता है, उसका स्वतन्त्र अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है, वह भ्रान्तिवश, अहंकारवश, जो भिन्न प्रतीत होता था वह भिन्नता ही मिट जाती है। इसी को चित्त का आत्मा में लय होना कहा गया है। इसके बाद फिर उसमें वासना, कामना की तरंगें उठ ही नहीं सकतीं जैसे भुना हुआ चना अंकुर पैदा नहीं कर सकता उसी प्रकार आत्म-रूप होने पर वह चित्त रहता ही नहीं तो फिर उसमें वासना का बीज भी कैसे रह सकता है।
इस सूत्र में अष्टावक्र बन्धन का कारण अहंकार को बताते हुये कहते हैं कि जब तक मनुष्य में ‘मैं’ भाव है तभी तक बन्ध है। आत्मा से भिन्न किसी की सत्ता है ही नहीं किन्तु इस ‘मैं’ भाव से ही इन सब भिन्नताओं की प्रतीति होती है। ‘मैं’ भाव ही अहंकार है जिसके मिटने से सारी भिन्नतायें समाप्त हो जाती हैं। चित्तरूपी वायु से आत्मारूपी शान्त समुद्र में एक तरंग उठी। इस तरंग ने अज्ञानवश, भ्राँतिवश अपने को आत्मा से भिन्न अनुभव किया। यह भिन्नता का अनुभव ही अहंकार बन गया।
अहंकार के कारण अथवा भिन्नता के कारण वह स्वयं कर्त्ता बन गया, भोक्ता बन गया, विचार एवं बुद्धि का प्रयोग करने लगा, विषयों में आसक्ति बढ़ी, कुछ पाने की इच्छा से दौड़-धूप आरंभ हुई। यही मन एवं बुद्धि बन गया जिससे सृष्टि का क्रम चल पड़ा। यह सारा उपद्रव अहंकार के कारण आरंभ हुआ कि उसने अपना स्वतन्त्र अस्तित्व मान लिया। यदि यह ‘मैं’ का भाव नष्ट हो जाय तो न विचार पैदा होंगे, न इच्छा, न वासना आदि होगी, न ग्रहण व त्याग होगा। भिन्नतायें ही मिट जायेंगी, एक ही आत्मा शेष रह जायेगी फिर किसका त्याग व ग्रहण होगा। ऐसी स्थिति को उपलब्ध हो जाना ही मोक्ष है। जब तक जीव का सम्बन्ध इस अहंकार रूपी दुरात्मा के साथ रहता है तब तक वह अपने को आत्मा से भिन्न मानता रहेगा, तब तक मुक्ति नहीं है मोक्ष नहीं है।
अष्टवक्र ने मूल पर ही चोट कर दी, जड़ को ही उखाड़ फैंकने को कह दिया जिससे वृक्ष पनपे ही नहीं, बीज को ही भुनने की बात कह दी जिससे वृक्ष उगने की संभावना ही समाप्त हो जाये। किन्तु लोग हैं बड़े चालाक। अहंकार तो छोड़ते नहीं और छोड़ने के नाम पर कोई चाय छोड़ रहा है, कोई रात्रि का भोजन छोड़ रहा है, कोई घरबार छोड़ रहा है, कोई दान दे रहा है, मंदिर, धर्मशालायें बनवा रहा है, कोई मंदिर जाकर 5 पैसे भेंट करता है, कोई नारियल-अगरबत्ती चढ़ाता है। धर्म के नाम से न जाने क्या-क्या मनुष्य कर रहा है किन्तु अष्टावक्र कहते हैं कि इन सबके पीछे यदि ‘मैं’ भाव है कि मैंने ऐसा किया, इन सबके पीछे यदि कुछ पाने की इच्छा है तो ये सब मोक्ष के मार्ग नहीं हैं।
दुनियां में सभी भोग से लिप्त हैं, ‘मैं’ भाव छूटा नहीं, वासना, आसक्ति छूटी नहीं इसलिये सब भोगवादी पूरे के पूरे चार्वाकी हैं। ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्’ ही सबका आदर्श है। आज यदि ऋण आदर्श नहीं है तो चोरी, डकैती, हत्या, बेईमानी, रिश्वतखोरी, धोखा देकर धन हड़पना, गबन करना, मिलावट करना, शोषण करना आदि द्वारा दूसरों का धन हड़प कर गुलछरें उड़ाना ही जीवन आदर्श बन गया है। चार्वाक सच्चा तो था कि उसने संसार की वास्तविकता को प्रगट कर दिया कि यह संसार ऐसा है किन्तु लोग इतने बेईमान हैं कि इस असलियत को छिपा कर धर्म का झूठा मुखौटा लगाये घूमते हैं कि लोग हमें धार्मिक समझें। इन धर्मग्रन्थों के आधार पर किसी जाति या वर्ग को धार्मिक कह देना मूर्खता ही है।
गीता, कुरान, बाइबिल, गुरु-वाणी, धम्मपद आदि के आधार पर कोई कहें कि मैं इसे मानता हूँ, इसे पढ़ता हूँ इसलिये धार्मिक हूँ यह मूर्खतापूर्ण एवं पाखंडयुक्त हैं धर्म है स्वयं के रूपान्तरण में। जो धार्मिक जीवन जी रहा है वही धार्मिक है अन्य कोई नहीं। चोर अचौर्य का सिद्धान्त लेकर चलता है, हिंसक अहिंसा परमोधर्मः की तख्ती लटका लेता है, भोगी निष्काम कर्म-योग की बातें करता है, अष्टावक्र कहते हैं कि अहंकार के रहते जो भी कुछ किया जायेगा वह पाप ही होगा। इससे तो चार्वाक की भाँति भोग को स्वीकार कर लेना अधिक सत्यता है, वह धर्म के अधिक निकट है। इसलिये चार्वाक को ऋषि कहा गया। असत्य को भी यदि स्वीकार कर लिया तो वह साक्षी बन जाता है, एवं सत्य के साथ भी धोखा किया जाये तो वह नरक का द्वार ही है। क्रोध, काम आदि भीतर से उठने वाली तरंगें हैं इनको साक्षी भाव से देखने पर ये अपने आप लीन हो जायेगी। संसार में जो कुछ हो रहा है अपने स्वभाव से हो रहा है। अतः भोग और मोक्ष दोनों से अलग होकर साक्षी हो जाना ही मोक्ष है। यह सब अहंकार गिरने से, ‘मैं’ भाव के गिरने से होगा अन्यथा नहीं। यही अष्टावक्र का उपदेश है।
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