मीरा, सूर, तुलसी एवं कबीर पढ़े-लिखे तो थे नहीं, किन्तु उन्होंने ऐसे सशत्तफ़ गुरु एवं साक्षात् परब्रह्म का हाथ पकड़ा और उस मस्ती में, उस खुमारी में उनके मुंह से जो कुछ भी निकला, वह धर्म एवं साहित्य की अनमोल धरोहर बन गया। आज भी बड़े-बड़े विद्वान उन पर शोध-कार्य कर रहें हैं। सद्गुरु को पाने के लिये शिष्य को एकलव्य बनना होगा, उसी की ही भांति पूर्ण श्रद्धा, आस्था, विश्वास के साथ सद्गुरु के चरणों में आत्म समर्पित होना होगा। एकलव्य की निष्ठा, उसकी गुरु भक्ति देखिए- गुरु से तिरस्कृत होने पर भी गुरु-प्रतिमा बना कर, उसके सामने बैठ कर उसने धनुर्विद्या सीखी, सीखी ही नहीं, उसमें महारत भी हासिल की और फिर गुरु दक्षिणा में अपने दायं हाथ का अंगूठा काट कर गुरु चरणों में समर्पित कर दिया। इस प्रकार उसने सदा-सदा के लिये गुरु शिष्यों के बीच अपने आपको अमर कर दिया। यही समर्पण, यही प्रेम, यही उत्सर्ग जब शिष्य में आ जाता है, तब उसे अनुभव होता गुरु के उस दिव्यतम प्रकाश का, फिर उसे अपने गुरु में ही गुरुः परम् दैवतम दिखने लगता है।
रावण जैसा ज्ञानी दूसरा कोई नहीं था, किन्तु अपने जीवन के सांध्य काल में वह भी बुद्धि-भ्रमित से ग्रस्त हो गया था, तभी तो मन्दोदरी उसके सामने राम के शौर्य के गुणगान कर रही थी, तो वह उसे अपना शौर्य समझ कर प्रसन्न हो रहा था। तुलसी दास ने रामचरित मानस से लिखा-
काल कभी भी सीधे प्रहार नहीं करता, वह पहले व्यक्ति के धर्म, बुद्धि, बल का हरण कर लेता है। रावण का अन्त भी धर्मच्युत होने से, बुद्धि-भ्रम से ही हुआ। सद्गुरु शरण में ही काल के पंजो से बचा जा सकता है, काल कब किसको, कहां से जकड़े, इसका ज्ञान केवल सद्गुरु को ही होता है। सद्गुरु यह जानते हैं, कि शिष्य के जीवन पर कौन सी संकट, कब आ रही है? वे पूर्ण काल ज्ञाता होते हैं। इसलिये शिष्य को सद्गुरु के चरणों का अनुग्रह निरन्तर प्राप्त करते रहना चाहिये।
एक मजबूत और सशक्त वृक्ष, जिसकी डाल टूट भी जाये, पत्ते पतझड़ में गिर भी जाये, तो भी वह अपना अस्तित्व नहीं खोता, क्योंकि उसकी जड़ो में तो चट्टानों को भी तोड़ने की ताकत है, जमीन की गहराईयों तक जाकर जल और खनिज पदार्थ प्राप्त करने की क्षमता है, जिस वृक्ष की जड़े जितनी गहरी और मजबूत होंगी, उस वृक्ष की हरियाली उतनी ही शीतल और सौम्य होंगी। उसे किसी प्रकार का खतरा नही हो सकता, उसे किसी आंधी तूफान का भी भय नहीं होता।
उसी प्रकार चैतन्य जीवन्त गुरु अपनी तपस्या के बल पर, साधना के बल पर अपनी गरिमा को बनाये रखते हैं, उनकी ज्ञान रूपी जड़े इतनी विस्तृत व मजबूत होती हैं, कि कोई आंधी या तूफान उसे डिगा नहीं सकता और यदि लालची, अधर्मी शिष्य गुरु से विमुख होता भी है, तो गुरु का कुछ नहीं बिगड़ता, बल्कि वह अपना ही जीवन बर्बाद कर लेता है। ऐसे सशक्त, मजबूत वृक्ष की छाया के नीचे आने वाला प्रत्येक शिष्य शीतलता प्राप्त करता है, जीवन की धूप में सद्गुरु के तपस्यांश शक्ति की सौम्य हवायें उसको सुख-आनन्द प्रदान करतीं ही हैं।
गुरु पूर्णिमा पर्व इन्हीं भावों को बोध करने का महापर्व है, गुरु महिमा का साक्षात्कार करने का चिंतन है। अपने आत्मिक समर्पण का प्रगटिकरण का दिवस है गुरु पूर्णिमा। यह एक ऐसा दिवस है, जब गुरु अपने शिष्यों के मस्तक पर प्रतिबिम्ब स्वरूप में उपस्थित होकर उसे आशीर्वाद् देते हैं, उसके भौतिक समस्याओं के निवारण का मार्ग प्रशस्त करते हैं। उसके जीवन की विषमताओं का विषपान कर उसे ऊर्ध्वता देते हैं।
नव सृजन पूर्णिमा दिवसों में चन्द्र ग्रहण चैतन्यता युक्त गुरु पूर्णिमा महापर्व पर सद्गुरु नारायण-माँ भगवती की अभ्युदय शक्ति व आशीर्वाद से जीवन की दूषित, मलिन, कष्टपूर्ण विसंगतियों को पूर्ण रूपेण समाप्त करने की चेतना से आप्लावित होने की साधनात्मक क्रियायें सद्गुरुदेव कैलाश श्रीमाली जी के सानिध्य में 25-26-27 जुलाई को महामाया शक्ति भूमि कोरबा छ-ग में सम्पन्न कर साधक-साधिकायें सिद्धाश्रम शक्तिमय योगेश्वर नारायण भगवती गौरी कामकला महाकाली, अखण्ड सावित्री सौभाग्य शक्ति दीक्षा व सर्व पिशाच तंत्र बाधा नृसिंह भैरव शक्ति साधनायें चन्द्र ग्रहण के मोक्ष काल में अभिषेक, हवन, अंकन साक्षीभूत रूप में आत्ससात कर आनन्द, सुख-भोगमय अष्ट सिद्धि नवनिधि लक्ष्मियो से युक्त सुमंगलमय जीवन की प्राप्ति कर सकेंगे।
आप सभी का हृदय भाव से स्वागत है——-!!
पूज्य गुरु तुमसे मिलने का कोई भी अवसर मैं अपनी ओर से व्यर्थ नहीं जाने देता, यह तुम्हारी इच्छा है, तुम मुझसे मिलो या ना मिलो, मेरा प्रयास तो सदा तुम्हारे कर्म दोषों को समाप्त करने का रहता है, हजार बार भी तुम्हारे पास आना पड़े तो मैं आऊंगा, मैं आता रहूंगा—– तब तक आता रहूंगा——जब तक तुम्हारे दोषों की अन्तिम ग्रन्थि ना काट दूं——तुम्हारी इच्छा है, चाहे जब तुम आओ मेरा हृदय द्वार तुम्हारे लिये सदा खुला है—–!!!
परम पूज्य सद्-गुरुदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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