भारतीय धर्म की यह मान्यता बड़ी अनूठी एवं वैज्ञानिक है कि सब कुछ दैवयोग से समय पर ही होता है, समय से पहले कुछ नहीं होता, ‘माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय’। गीता में इसलिये कहा गया है ‘कर्म पर तेरा अधिकार है, फल में नहीं’ फल तो ईश्वर के अधीन है, भाग्य में जैसा लिखा है वैसा ही होगा, आदि धारणायें भारतीय धर्म का अंग हैं। इससे जीवन में कोई तनाव नहीं है, अशांति नहीं है, भौतिक सुख-समृद्धि के अभाव में भी वह प्रसन्नचित्त है, आनंदित है, नाचता-कूदता है। पश्चिम समय से पूर्व ही प्राप्त करना चाहता है, सब कुछ अपनी इच्छानुसार ही प्राप्त करना चाहता है किन्तु ऐसा होता नहीं। मशीन के साथ यह संभव है किन्तु मनुष्य के साथ संभव नहीं है। इसलिये सब भौतिक सुविधाओं से सम्पन्न होते हुये भी पश्चिम बेचैन है तनावग्रस्त है, पागलों की संख्या बढ़ती जा रही है। आत्मिक शांति नष्ट हो रही है। इसका कारण मात्र इतना है कि सृष्टि के चैतन्य के नियमों से अपरिचित है। उसका सारा ध्यान भौतिक नियमों की जानकारी पर ही केन्द्रित हो गया जिससे वह वैज्ञानिक प्रगति तो कर सका किन्तु आत्मिक-ज्ञान से वंचित रह गया जिसका दुष्परिणाम वह भुगत रहा है।
सभी समय आने पर ही होता है। पहले करने का कोई उपाय है ही नहीं। समय पर ही वृक्ष खिलते हैं, समय पर ही फल आते हैं, बच्चे का जन्म नौ महीने बाद ही होगा, काम-भावना चौदह वर्ष बाद ही आती है, समय पर ही फलसल पैदा होती है, सृष्टि का हर कार्य एक निर्धारित समय पर ही होता है। मनुष्य इससे पहले उसे कर नहीं सकता। वह प्रतीक्षा मात्र कर सकता है।
इसी प्रकार सभी कार्य दैवयोग से ही होते हैं। जब सभी परिस्थितियां अनुकूल होती है तभी कार्य होता है। ईश्वर न कर्त्ता है, न दयालु है। उसके सारे कार्य प्रकृति की सहायता से ही होते हैं जिसके अपने नियम हैं। वह किसी पर दया करके न अपने नियम बदलती है न रूष्ट होकर दण्ड देती है। मनुष्य के शुभ अशुभ कर्म भी ईश्वर नहीं कराता, न उनके कर्मों का हिसाब रखता है, न उनका अच्छा-बुरा फल ही देता है।
ये सभी कार्य प्रकृति अपने आप करती है। प्रकृति में सभी प्रकार के पदार्थों के बीज सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं किन्तु अनुकूल परिस्थिति पाकर ही वे उत्पन्न होते हैं। जिस काल में उनकी परिस्थिति निर्मित हो जाती है उसी काल में वे पनप उठते हैं। जैसे बीज में पूरा वृक्ष विद्यमान है किन्तु उचित भूमि, खाद, जलवायु, पानी को पाकर ही वह वृक्ष बनता है। केवल बीज होना ही पर्याप्त नहीं है। इसी को दैवयोग कहते हैं। मनुष्य कर्मों के फल भोगता है यही ईश्वर का न्याय है।
इसलिये अष्टावक्र कहते हैं कि विपत्ति और सम्पत्ति दैवयोग से ही समय पर आती है। जिस ज्ञानी को ऐसा निश्चय हो जाता है वह सदा संतुष्ट एवं स्वस्थेन्द्रिय रहता है तथा न किसी की कामना करता है न अप्राप्त अथवा वस्तु के नष्ट होने पर शोक ही करता है। वह हमेशा मानसिक तनावों से बचा रहता है यही स्वस्थेन्द्रिय के लक्षण हैं। इसके विपरीत अज्ञानी अपने कर्म का निश्चित फल समय से पूर्व ही प्राप्त करना चाहता है किन्तु उसकी इच्छानुसार कार्य या फल न होने पर वह तनावग्रस्त रहेगा एवं मानसिक रुग्णता पैदा होगी जिससे बचने का यही एकमात्र उपाय है।
इसी क्रम में अष्टावक्र कहते हैं कि सुख-दुःख, एवं जन्म-मृत्यु भी दैवयोग से होती है। मनुष्य के अधिकार में नहीं है। यदि मनुष्य के अधिकार में होता तो वह दुःख और मृत्यु से हमेशा के लिये मुक्त हो जाता किन्तु वह कर नहीं सका। वह केवल भोगता ही है। अतः ज्ञानी इन्हें दैवयोग से होते हैं ऐसा निश्चय करके करने योग्य कर्म हैं उन्हें ही देखता हुआ प्रयासरहित कर्मों को करता है जिससे वह उनमें लिप्त नहीं होता है। दैवयोग से होना मानने के कारण वह कर्त्तापन से मुक्त हो जाता है, अहं भावना से मुक्त हो जाता है, उसे परम शांति मिलती है एवं वह उन कर्मों में लिप्त नहीं होता, जल कमलवत् हो जाता है, वह दृष्टा मात्र रह जाता है। ऐसे कर्म करने में श्रम नहीं होता, आनन्द मिलता है, तनावों से मुक्त रहता है, चिन्ता से मुक्त रहता है। हार-जीत, लाभ-हानि, जय-पराजय, सफलता-असफलता सब उसी का है। मैं केवल उपकरण मात्र हूँ, निमित्त मात्र हूँ ऐसा मानने वाला ज्ञानी निर्भार, चिन्तामुक्त, तनावमुक्त होकर जीता है।
इसके विपरीत अज्ञानी स्वयं को कर्त्ता मान कर, फलेच्छा से काम करता है जिससे वह सदा दुःखी, अशांत, चिन्तित एवं तनावग्रस्त रहता हैं यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। साथ ही इसमें आध्यात्मिक सत्य भी है कि ऐसा कर्म करने वाला ज्ञानी कर्म फल का भोक्ता नहीं होता। ज्ञान को उपलब्ध हुआ व्यक्ति फल की कामनारहित होकर कर्म करता है, उनके कर्म मानवमात्र के कल्याण के लिये ही होते हैं, वह कर्मों की देह और इन्द्रिय का ही धर्म मानते हैं, आत्मा का नहीं तथा उसमें कर्त्तापन नहीं होता जिससे कर्मों के फल का विधान उस पर लागू नहीं होता। वह कर्म फल से मुक्त ही रहता है। भारतीय अध्यात्म इसी कारण से दैवयोग, भाग्य, ईश्वर, फलेच्छा का त्याग आदि पर विशेष जोर देता है। जिससे वह शांति से जी सके, चिन्ताओं, परेशानियों, तनावों से मुक्त रह सके।
इसी क्रम में अष्टावक्र कहते हैं कि जहाँ अहंकार है वहीं कर्त्ता भाव है एवं जहाँ कर्त्ता भाव है अर्थात् ‘यह मैं ही कर रहा हूँ’ ऐसा भाव है वहीं फलाकांक्षा होगी एवं चिन्ता होगी। जहां चिन्ता है वहीं दुःख है। ज्ञानी ही ऐसा मानता है कि मैं कर्त्ता नहीं हूँ, निमित्त मात्र हूँ, सभी कर्म ईश्वर के ही कर्म हैं, उसी के आदेश एवं प्रेरणा से मैं कर्म कर रहा हूँ, वाहनमात्र हूँ, मांसुरीमात्र हूँ, बजाने वाला वही है, स्वर उसी के हैं। ऐसा मान कर कर्म करने वाला निर्भार होकर, चिन्ता मुक्त होकर जीता है। ऐसा व्यक्ति ही सुखी और शांत है। इस भावना से उसकी इच्छायें सर्वत्र गतिल हो जाती हैं। वह अपनी इच्छा से नहीं, परमात्मा की इच्छा मान कर कर्म करता है अतः वह चिन्ता मुक्त रहता है।
जिस प्रकार छोटा बच्चा अपने पिता की ऊँगली पकड़कर निश्चिंत हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य परमात्मा का सहारा लेकर निश्चिंत जीता है जिससे वह अनेकों प्रकार की मानसिक उलझनों से मुक्त रहता हैं जो ईश्वर की सत्ता में ही विश्वास नहीं रखते उनका जीवन अनेक प्रकार की कुंठाओं से ग्रस्त रहता हैं अतः मानसिक सन्तुलन को बनाये रखने के लिये ईश्वर की ऐसी धारणा अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं ईश्वर है या नहीं यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना उसका मानना महत्वपूर्ण है।
अष्टावक्र कहते हैं कि जो आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो गया है वह अपने को निश्चय ही बोधस्वरूप चैतन्य आत्मा ही समझता है। ‘उसका शरीर से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है इसलिये ऐसा ज्ञानी कहता है – मैं शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ।’ आत्मा का कोई शरीर नहीं होने से वह कहता है ‘मेरा शरीर नहीं है’। ज्ञानी ही ऐसा निश्चयपूर्वक जानता है। जिससे वह कैवल्य को प्राप्त हो जाता है। कैवल्य को प्राप्त हुआ ज्ञानी अपने को आत्म-स्वरूप मानता है। जिससे वह किये और अनकिये कर्मों का स्मरण नहीं करता क्योंकि जो कर्म किये गये हैं वे शरीर द्वारा किये गये हैं जो अनकिये रह गये हैं, केवल विचारों तक ही सीमित रह गये हैं वे मन की सीमा में आते हैं। दोनों का आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं होने से वह उनका स्मरण नहीं करता।
अज्ञानी शरीरों को देखता है, पदार्थों को देखता है, इसलिये उसे भिन्नतायें दिखाई देती हैं किन्तु ज्ञानी इस सम्पूर्ण सृष्टि के मूलतत्व ब्रह्म को, आत्मा को देखता है जिससे इस सृष्टि का अस्तित्व है इसलिये उसे इस सम्पूर्ण सृष्टि में एकता दिखाई देती है, एक साम्य दिखाई देता है। जिसने आत्मा को जान लिया वह आत्म-रूप ही हो जाता है, वह सम्पूर्ण सत्ता को अपनी ही सत्ता समझने लगता है, भिन्न-भिन्न शरीरों एवं भिन्न-भिन्न आत्माओं का अज्ञान समाप्त हो जाता है। अष्टावक्र कहते हैं कि जिस ज्ञानी को ऐसा निश्चय हो जाता है कि मैं आत्मा हूँ और ब्रह्म से लेकर तृणपर्यन्त मेरा ही (आत्मा का ही) विस्तार है। मैं एक और अद्वय हूँ, यह सृष्टि मेरी नहीं बल्कि मैं ही सृष्टि हूँ, मेरे से भिन्न कुछ है ही नहीं। ऐसा व्यक्ति निर्विकल्प हो जाता है। दूसरा कोई विकल्प रहता ही नहीं। वही व्यक्ति शांत और शुद्ध हो जाता है, निखालिस स्वर्ण हो जाता है। जितनी विकृति, विजातीय अशुद्धता थी सब दूर हो गई। अब ऐसा व्यक्ति प्राप्त से भी मोह नहीं करता, न अप्राप्त की चिन्ता करता है। दोनों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति ही कह सकता है कि ‘सब कुछ मेरा है या मेरा कुछ भी नहीं हैं’ यही ज्ञानी की स्थिति है। यही मुक्ति है।
जिसने शाश्वत को जान लिया वह क्षण-भंगुर में रूचि नहीं लेता, जिसने परम को जान लिया वह क्षुद्र में मोहित नहीं हो सकता, जो अद्वैत के परमानन्द में मग्न हो गया वह द्वैत के अशांत, दुःखमय एवं क्लेशयुक्त घेरे से बाहर हो जाता हैं फिर उसकी इस क्षणिक एवं नाशवान् संसार के प्रति वासना, आसक्ति, आदि सब कुछ छूट जाती है एवं वह परम शांति को उपलब्ध हो जाता है। अष्टावक्र कहते हैं कि यद्यपि यह संसार अनेक आश्चर्यों वाला है किन्तु आत्मानन्द के सामने कुछ भी नहीं है, मिथ्या है, रसहीन है। बोध-स्वरूप पुरूष आत्म-ज्ञानी ऐसा निश्चयपूर्वक जानता है इसलिये वह संसार को मिथ्या समझकर शांति को प्राप्त होता है। संसार में सत्य, आनन्द, सुख-दुःख, हर्ष-विषाद आदि का जो अनुभव होता है वह सब मनुष्य की वासना एवं अहंकार के कारण है, जिनसे वासना एवं अहंकार की तुष्टि होती है, वह सुखपूर्ण ज्ञात होता है, विपरीत होने पर दुःख होता है किन्तु सृष्टि अपने नियमों से चलती है। उसे हर मनुष्य के सुख-दुःख की चिन्ता नहीं है।
मनुष्य अपने को उन नियमों के अनुकूल बनाकर सुखी हो सकता है एवं विपरीत जाने पर टूटता है, कष्ट पाता है। आत्म-ज्ञानी इस रहस्य को जान लेता है जिससे वह सृष्टि के नियमों के अनुकूल व्यवहार करता हुआ सृष्टि की अवहेलना, उपेक्षा करता है, उन्हें मिथ्या एवं तथ्यहीन, असत्य समझने लगता है। इसी से उसे शांति प्राप्त होती है। इसके विपरीत संसारी मनुष्य सृष्टि के नियमों के अज्ञान के कारण सांसारिक, सामाजिक आदि नियमों में उलझ कर अशांति को ही प्राप्त होता हैं ज्ञानी एवं अज्ञानी की दृष्टि में यही अन्तर होता है। सृष्टि के नियमों को जान लेना ही ज्ञान है एवं इन्हें नहीं जान पाना ही अज्ञान है। इसलिये ज्ञान से ही अज्ञान मिटता है।
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