शिष्य का हृदय अत्यन्त सहृदया और अत्यन्त कोमल होना चाहिये। वह तो एक स्वच्छ दर्पण की तरह होना चाहिये।
शिष्य को गुरु के प्रति अपनत्व रखना चाहिये।
श्रेष्ठ शिष्य वही है जो गुरु के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता है।
यदि शिष्य गुरु का अनुभव नहीं कर पाये, पूर्णता के साथ समर्पण नहीं कर पाये तो उनका सारा जीवन अपने आप में बेमानी हो जायेगा।
गुरु से अलग रहने की कल्पना से ही शिष्य के प्राण कांपने लग जाने चाहिये।
शिष्य को जीवन का सौभाग्य, जीवन का आनन्द, जीवन का ऐश्वर्य, जीवन की पूर्णता सिर्फ और सिर्फ गुरु ही दे सकता है।
शिष्य बने रहने के लिये प्रेम अत्यन्त आवश्यक तत्व है।
शिष्य को गुरु का नाम सुनते ही शरीर में एक अजीब सी हलचल, एक तफ़ूान सा पैदा होना चाहिये।
शिष्य को गुरुदेव से बार-बार विनती करते रहना चाहिये कि उसकी आँखों पर से परदा हटाकर दिव्य-दृष्टि प्रदान करें।
शिष्य को सतत गुरु की निकट जाने के प्रयास करते रहना चाहिये जिससे शीघ्र ही गुरु में लीन हो सके।
शिष्य के आँसुओं में गुरु की छवि स्पष्ट झलकनी चाहिये, शिष्य के हृदय में गुरु का प्रतिबिम्ब दिखना चाहिये, रोम रोम में गुरु का नाम गुंजारित होते रहना चाहिये।
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