अष्टावक्र और जनक दोनों ज्ञानियों में परस्पर बड़ा मधुर संवाद चल रहा है। दोनों को एक ही अनुभूति हुई जिससे संवाद संभव हुआ। एक ज्ञानी और एक अज्ञानी में विवाद तो हो सकता है, संवाद संभव नहीं है, दो अज्ञानियों में परस्पर विवाद भी संभव नहीं होता, झगड़ा ही होगा। अष्टावक्र के उपदेश से जनक आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हुये। अब वे अपनी उपलब्धि के क्रम का वर्णन करते हुये कहते हैं कि वासना के कारण चित्त में तरंगें उठती हैं जिससे मन में विचारों की, संकल्प-विकल्प की उथल-पुथल आरंभ होती है। ये ही विचार वाणी एवं शारीरिक क्रियाओं में प्रकट होते हैं। इन सबका निरोध करने से ही आत्म-ज्ञान होता है। पतंजलि कहते हैं ‘चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है’। गीता में कहा गया है ‘यह मन कठिनाई से ही वश में आता है’।
पतंजलि कहते हैं कि ‘अभ्यास और वैराग्य से चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है’। अतः अभ्यास और वैराग्य आत्म-ज्ञान के लिये परमावश्यक है। जनक कहते हैं कि पहले मैंने शारीरिक कर्मों का निरोध किया फिर वाणी के कर्मों का निरोध किया और फिर मानसिक कर्मों का भी निरोध किया। इस प्रकार मैं आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होकर अब आत्मा में ही स्थित हूँ। शरीर और इन्द्रियों से जो कर्म किये जाते हैं उनके साथ फलाकांक्षा, आशा-निराशा, लाभ-हानि, सुख-दुःख, एवं अनेक अपेक्षायें जुड़ी रहती हैं जिनसे मन में विक्षेप उत्पन्न होते हैं। इनके निरोध के लिये जप, तप, यज्ञ, आसन, हठयोग आदि शारीरिक कर्मों को करते हैं जिससे और नये विक्षेप आरंभ हो जाते हैं। यदि शारीरिक कर्मों को रोक भी दिया जाये तो भी वाणी के कर्म चलते रहते हैं।
भजन-कीर्तन, मन्त्रेच्चारण, प्रवचन, उपदेश, अखण्ड-पाठ आदि कुछ न कुछ चलता रहता है। इनके रोक देने पर भी मन में अनेक संकल्प-विकल्प, विचार आदि चलते रहते हैं। ये तीनों प्रकार के कर्म जब तक शांत नहीं होते तब तक चित्त शांत नहीं होता एवं चित्त के शांत हुये बिना आत्म-ज्ञान नहीं होता। इन तीनों के निरोध का मात्र उपाय इतना है कि इनके प्रति उपेक्षा रखना। कर्म से कर्म को रेाकने के प्रयत्न में नये कर्म उत्पन्न हो जाते हैं। अतः उपेक्षा, उदासीन होना, दृष्टा होना ही है। शरीर, मन और वाणी के कर्म अपने आप होते हैं, स्वभाव से होते हैं, नींद और बेहोशी में भी शरीर का कार्य बन्द नहीं होता, स्वप्न में भी मन का कार्य चलता रहता है, शरीर भी अपने आप चलता है, सारी क्रियायें प्राकृतिक हैं। इसी प्रकार मन एवं वाणी की क्रियायें भी स्वभाव से होती हैं। रोकने के प्रयत्न से ये ज्यादा उग्र रूप से चलने लगती हैं।
अतः अपने को इन सबसे अलग करके दृष्टारूप होकर साक्षी भाव से देखने से इनका निरोध हो जाता है जिससे इनसे मुक्त हो जाते हैं। अपने को कर्त्तापन से हटा लेना ही मार्ग है। इसी से चित्त स्थिर व शांत हो सकता है। यही वीतरागता है। मित्र-शत्रु, प्रशंसा-निंदा, त्याग-ग्रहण, राग-विराग, सभी उपद्रव हैं, दोनों में ही रस है, आसक्ति है। ग्रहण में आसक्ति है तो त्याग भी आसक्ति ही है, शत्रु, निंदा, विराग भी उल्टी आसक्ति है। इसलिये जनक कहते हैं कि मैं तीनों प्रकार के कर्मों को न सहारने वाला हुआ, इस प्रकार अब मैं चैतन्य आत्मा में स्थित हूँ।
मन में वासनायें हैं उनकी पूर्ति वह शरीर के माध्यम से करता है। शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। इन ज्ञानेन्द्रियों के शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि विषय हैं जिनका इन्द्रियों के माध्यम से सेवन कर मन तुष्ट होता है। इसी से राग पैदा होता है एवं बार-बार भोगने की इच्छा होती है यह मन स्वयं एक उपद्रव है। यह न भोगने से शान्त होता है न भोगों के त्याग से। शारीरिक भोग बन्द करने पर वाणी के भोग चलते रहते हैं, वाणी के बन्द करने पर मानसिक भोग चलते रहते हैं। मन भोग और त्याग दोनों से ही अशान्त बना रहता है, उसमें विक्षेप निरन्तर चलते रहते हैं क्योंकि इसका मूल वासना है जो भीतर विद्यमान है।
उसके रहते भोग और त्याग दोनों व्यर्थ हो जाते हैं। मन को शान्त करने के लिये जो जप, तप, यज्ञ, कर्मकाण्ड आदि किये जाते हैं इनसे नये विक्षेप और पैदा हो जाते हैं। अतः ये दोनों ही कर्म मन को इन विक्षेपों से मुक्त नहीं कर सकते। आत्मा अदृश्य है। वह दिखाई नहीं देती। ध्यान एवं समाधि में भी आत्मा का दर्शन तथा आत्म-साक्षात्कार शब्द ही गलत है। आत्मा का केवल अनुभव होता है, ज्ञान होता है, बोध होता है। वह दृश्य विषय नहीं है, स्वयं द्रष्टा है, वही सबको देखने वाली है।
इन्द्रियों के समस्त कार्य उसी से हो रहे हैं। शरीर, मन, बुद्धि आदि जड़ हैं, यन्त्र-मात्र हैं जो उस आत्मा-रूपी चेतन-शक्ति से सक्रिय हैं। जड़ पदार्थ चेतन को कैसे देख सकता है। इसलिये जनक को आत्म-ज्ञान हो जाने से वे इस स्थिति की व्याख्या करते हुये कहते हैं कि आत्मा की अदृश्यता से अर्थात् उसके ज्ञान के अभाव से ही शरीर, मन आदि के समस्त विक्षेप होते हैं, आत्म-अज्ञान ही समस्त विक्षेपों का कारण है एवं सभी राग इसी अज्ञान से उत्पन्न होते हैं। अतः मुझे आत्म-ज्ञान हो जाने से अब मेरे समस्त रागों का अभाव हो गया है तथा आत्मा की अदृश्यता से जो मन में विक्षेप पैदा हुये थे उनसे अब मेरा मन मुक्त होकर एकाग्र हो गया है। अब मैं केवल आत्मा में स्थित हूँ तथा इन विक्षेपों से पार हो गया हूँ। यह आत्म-ज्ञानी की स्थिति है। शरीर और मन द्वारा किये गये कर्मों से आत्मा अस्पर्श रहती है। इसीलिये आत्मा-ज्ञानी पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ आदि कर्मों से सर्वदा मुक्त रहता है। वह अच्छे-बुरे कर्मों का न कर्त्ता है न उनके फलों का भोक्ता।
आत्मा के अज्ञान के कारण ही मनुष्य मन, शरीर, बुद्धि व इन्द्रियों का दास हो जाता है, वह भोगों में ही रूचि लेता है जिससे अनेक प्रकार के विक्षेप पैदा होते हैं। ये सारे विक्षेप अध्यासमात्र हैं, भ्रममात्र हैं, अज्ञानवश होते हैं। ये अन्धकारवत् हैं। आत्म-ज्ञान के प्रकाश में ही सत्य और मिथ्या, तथ्य एवं भ्रान्ति, विवेक और मूढ़ता का पता चलता है। इस अज्ञान को दूर करने एवं आत्म-ज्ञान प्राप्ति के लिये लोग समाधि का व्यवहार करते हैं। आत्मा का ज्ञान समाधि अवस्था में ही होता है। किन्तु जनक आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो गये इसलिये वे इन सबको साक्षी-भाव से देख रहे हैं। वे अब समाधिरहित होकर आत्मा में ही स्थित हो गये हैं।
अब उन्हें समाधि की भी आवश्यकता नहीं है। साध्य प्राप्त होने पर साधन अपने आप छूट जाते हैं। इसलिये वे कहते हैं कि अज्ञान के कारण ही विक्षेप होते हैं जिससे समाधि का व्यवहार किया जाता हैं किन्तु मैं आत्म-स्वरूप हूँ इसलिये समाधिरहित होकर इस नियम को देख मात्र रहा हूँ। अब मुझे इस नियम के पालन की आवश्यकता नहीं है। अब मैं आत्मानन्द में स्थित हूँ। इसका सार इतना ही है कि आत्म-ज्ञान बोध से हो सकता है। जिसमें बोध नहीं है उसी को ध्यान, धारणा, समाधि आदि का व्यवहार करना पड़ता है अन्यथा यह आवश्यक नहीं है। आत्म-ज्ञान के लिये ऐसी कोई शर्त नहीं है कि यह समाधि के बिना होगा ही नहीं यह, नियम, आसन, प्राणायाम के बिना होगा ही नहीं। आत्मा तो सदा उपलब्ध ही है। जाग कर देखना मात्र है। दृष्टि पर्याप्त है। क्रिया आवश्यक नहीं है।
आत्मा हमारा स्वभाव है, उसे उपलब्ध हो जाना ही अपने स्वभाव को उपलब्ध होना है। वही शुद्ध है, उसमें विकृति है ही नहीं। हेय और उपादेय, अच्छा-बुरा, उपयोगी-अनुपयोगी आदि ख्याल ही मन की वासना के कारण पैदा होते हैं। वासना गिरने पर ये भेद ही समाप्त हो जाते हैं। हेय और उपादेय के कारण ही उपादेय वस्तु की प्राप्ति से हर्ष होता है एवं छूटने पर विषाद होता है, इसी प्रकार हेय के छूटने पर हर्ष एवं प्राप्ति पर विषाद होता है।
जनक आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो गये, वे अपने स्वभाव में स्थित हो गये इसलिये हेय और उपादेय की धारणा ही नहीं रही और इसीलिये उनसे होने वाले हर्ष और विषाद का भी अभाव हो गया। अब वे कहते हैं मैं जैसा हूँ वैसा ही स्थित हूँ अर्थात् अपने वास्तविक स्वरूप (ओरिजनल फेस) में स्थित हूँ। अज्ञानवश मैंने विभिन्न प्रकार के जो मुखौटे लगा रखे थे वे सब उतर गये हैं। सुकरात ने कहा ‘अपने को जानो’ वह यही स्थिति है-अपने स्वभाव को उपलब्ध हो जाना, आत्म ज्ञान, सैल्फ-रियलाइजेशन आदि कुछ भी नाम दिया जा सकता है।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,