इस अवस्था में शरीर विभिन्न रोगों की शरण स्थली बन जाता है, जहां कई तरह के शारीरिक कष्टों का सामना करना पड़ता है। शरीर विज्ञान के अनुसार इस अवस्था में त्वचा के नीचे वसा की परत गल जाती है, जिससे त्वचा पर झुर्रियां पड़ जाती हैं। मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं। धमनियां कठोर होने लगती हैं, जिससे रक्त प्रवाह में न्यूनता आने लगती है। अस्थियों में पोलापन (मज्जा) की कमी होती है। दांत कमजोर होकर गिरने लगते हैं। आंखों की ज्योति क्षीण हो जाती है, श्रवण शक्ति में न्यूनता आ जाती है।
पाचन रस में कमी से पाचन शक्ति बिगड़ जाती है, जिससे भूख कम लगने लगती है। मस्तिष्क की क्रियाएं कमजोर होने के कारण स्मरण शक्ति, एकाग्रता आदि में गिरावट, चिड़चिड़ापन एवं चक्कर आना, सामाजिक जीवन से कटाव आदि विकार होने लगते हैं।
ऐसी शारीरिक क्रिया से वृद्ध व्यक्ति के मन में हीन भावना प्रवेश हो जाती है, जिससे वे हार जाते हैं। यह स्थिति तब और अधिक दुखदायी हो जाती है, जब उन्हें परिवारजनों की उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। हीन भावना एवं हताशा से उनके मन में यह सोच घर कर जाती है कि उम्र ढ़ली तो कद्र घटी। ऐसी स्थिति में उन्हें घोर शारीरिक यातनाओं के साथ-साथ परिवार जनों का सहयोन ना मिलने से मानसिक यातनाओं से भी गुजरना पड़ता है। जो उनके लिए असीम दुख का कारण बन जाता है।
अपने समान आयु वाले कई इष्ट मित्रों को एक-एक करके समाप्त होते देख, वे सोचने लगते हैं कि हाड़-मांस का यह पिंजरा दिन पर दिन क्षय होता जा रहा है, अब मेरा इस संसार में क्या काम? उनके मन की हीनता उन्हें कहीं अधिक मानसिक पीड़ा पहुंचाती है और वे निराश, हताश होकर जीवन के अन्तिम छोर पर अन्त की प्रतीक्षा करने लगते हैं।
लेकिन जरा सोचें! मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। वास्तव में वृद्धावस्था अभिशाप नहीं वरदान है, अब तक का जीवन अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करने में गुजर गया, परिवार वालों एवं समाज के लिए क्रिया-कलाप करने में निकल गया। लेकिन अब जीवन का यह पड़ाव स्वयं के लिए है, अर्थात् अब स्वयं के लिए जीना है, अब अपने भावी जीवन का मार्ग प्रशस्त करना है। सद्गुरु से, ईश्वर से, परमात्मा से लगन लगाना है, उनमें पूरी तरह लीन हो जाना है, नित्य उसी का चिन्तन करना है। मोह-माया से छुटकारा पाकर निर्मोही बन जाना है। इस बुढ़ापे को बोझ नहीं ओज समझें, यह जीवन की स्वर्णिम सांझ है, यह भावी जीवन के निर्माण की बेला है, यह जीवन का एक परिपक्व फल है, जिसमें ज्ञान की पूर्णता, अनुभवों की मिठास, चिन्तन की उपयोगिता व जीवन जीने की गहराई होती है और इसी अवस्था में सद्गुरु में मन पूरी तरह तल्लीन हो पाता है।
इस वृद्धावस्था में ही तो अनेक लोगों ने वैज्ञानिक, राजनैतिक, साहित्यिक एवं आध्यात्मिक सफलता प्राप्त की है। इसे शक्तिहीन, पराधीन, बीमारी का घर, असहाय और अभिशाप समझना हमारे चिन्तन की कमी है। इससे बुढ़ापे को मापना उचित नहीं है।
यदि आपके मन में दृढ़ता हो तो आप भी ऐसे किसी कार्य को कर सकते हैं, जो आपने सोचा तो था लेकिन कर्तव्यों के बोझ तले दबकर नहीं कर पाये, इस अवस्था में साहित्यिक लेखन, अपने जीवन का अनुभव, अपने सुझाव या किसी ऐसे विषय पर जिसकी जानकारी आपको हो उसके बारे में लिखकर आप युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन कर सकते हैं। परोपकार की भावना से निर्धन, असहाय बच्चों को निःशुल्क बेसिक शिक्षा जैसे किसी भी कार्य को आप अपनी क्षमता अनुसार संचालित, संपादित करने का कार्य भी कर सकते हैं।
शरीर की त्वचा में झुर्रियां भले ही आ गयी हों, पर मन में मुरझाहट (निराशा, हताशा या निःसारभाव) नहीं आने देना चाहिए। यही सच्ची जीवन जीने की कला है। हमेशा शरीर में उत्साह, उमंग, नया कार्य करने का भाव होना चाहिए। जिस तरह से शरीर की क्रियाशीलता के फलस्वरूप नौकरी या व्यवसाय में अपने आपको व्यस्त रखते थे, वैसी ही व्यस्तता उम्र के अन्तिम पड़ाव में भी बना कर रखें, तो जीवन बोझ या भार स्वरूप महसूस नहीं होगा और सही अर्थों में व्यस्त रहिये मस्त रहिये का विस्तार ही होगा। इससे आपका स्वास्थ्य भी सही रहेगा और शरीर की मांस-पेशियों में क्रियाशीलता भी बनी रहेगी, साथ ही घर के घरेलू कार्य में आप उपयोगी भी होंगे और ऐसे छोटे-छोटे कामों को करके आपका समय भी व्यतीत होता रहेगा। प्रतिदिन रामायण, भजन, भगवद्गीता का श्रवण करें, जिससे मन प्रसन्नचित्त रहेगा, जितना अधिक हो सके ईश्वर, सद्गुरु का स्मरण करें, मन ही मन, उठते-बैठते, जागते-सोते हर समय अपने इष्ट मंत्र का जाप करते रहें। इससे आपको दो लाभ होंगे पहला आप हर समय ईश्वर भक्ति में लीन रहेंगे, दूसरा मस्तिष्क व्यस्त होने के कारण निराशा का भाव-विचार नहीं आयेगा और प्रभु कृपा से, सद्गुरु की अनुकम्पा से जीवन की यह बेला भी सरलता व आनन्द से पूर्ण हो जायेगी।
कहीं-कहीं ऐसी भी स्थितियां होती हैं, जो व्यक्ति जीवन भर सम्मान से जीया हो, वह आगे भी सम्मान ही चाहता है, पर वृद्धावस्था ऐसी अवस्था होती है, जिसमें सम्मान मिलना कम हो जाता है या मिलना ही बन्द हो जाता है। नई पीढ़ी के अनेक लोग वृद्धों का सम्मान करना तो दूर की बात वे तो अवहेलना या तिरस्कार करने से भी नहीं चूकते। हर समय यह कहकर कि आप नहीं समझते! आपको क्या करना है? आप चुप रहिये आदि शब्द ऐसी भाषा में कहे जाते हैं, जिनमें उपेक्षा के भाव स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। ऐसी स्थिति में भी आप स्वयं को निराश ना होने दें। बल्कि अपने कार्यों में स्वयं को अधिक से अधिक व्यस्त रखें। इसके साथ ही युवा वर्ग को भी यह समझने की आवश्यकता है कि वे अपने आदरणीय जनों की भावनाओं का ख्याल रखें। उन्हें प्यार, सम्मान और सकारात्मक दृष्टिकोण दें, ध्यान रहें जिसने भी जन्म लिया है इस धरा पर, उसे एक दिन जर्जर होना ही है, वृद्धता उसमें भी आनी है और फिर जैसा व्यवहार हम दूसरों के साथ करेंगे, वही हमे वापस मिलेगा, इसके साथ ही किसी भी व्यक्ति के साथ अमर्यादित व्यवहार करना शिष्ट, सभ्य व्यक्ति की पहचान नहीं हो सकती है। कहीं-कहीं ऐसा भी देखने को मिलता है कि वृद्धजनों को परिवार का कोई बिगड़ा हुआ सदस्य मारता-पिटता भी है। ऐसी स्थितियां कितनी असभ्य और अनुचित है। किसी असहाय पर हाथ उठाने वाले ये क्यों नहीं समझते? कि ईश्वर इस अक्षम्य अपराध का दण्ड अवश्य देता ही है। ईश्वर सभी सुकृत्यों व कुकृत्यों का फल अवश्य ही प्रदान करता है। हमें विचार करना है कि निरन्तर हमें किस तरह के फल की आवश्यकता है।
एक बात और कहना चाहूंगी युवाओं में इतनी समझ तो होनी ही चाहिए कि यदि वे किसी वृद्ध को सम्मान, प्रेम, आदर, सेवा नहीं दे सकते तो कम से कम उनकी अवहेलना, तिरस्कार तो ना ही करें। वृद्धजनों के प्रति अनादार का भाव या उन्हें किसी भी तरह का दिया गया मानसिक-शारीरिक पीड़ा बाद में पितृ कोप का कारण बनती है। जिसके कारण जीवन में अनेक विसंगतियां, दुःख कष्ट, रोगा, पीड़ा, शत्रु बाधा जैसी क्रियाओं की प्राप्ति प्रारम्भ हो जाती है। यह भी समझ लें कि वृद्ध व्यक्ति परिवार वालों के लिए ईश्वर तुल्य होता है, जब वे शारीरिक रूप से असमर्थ होने लगते हैं, तब उनके आत्मिक शक्ति में वृद्धि होने लगती है।
ईश्वर ने ऐसी व्यवस्था कर रखी कि जो असमर्थ है उसके हृदय से निकली हुई प्रार्थना, आशीर्वाद् और हृदय से निकला हुआ कोप दोनो फलित होते हैं। यह युवा वर्ग को समझना होगा कि वे क्या प्राप्त करना चाहते हैं। परिवार का वातावरण ऐसा बनायें जिससे उनका परिवार से स्नेह एवं लगाव घटने ना पाये, उनके मन में जलन, कुढ़न, ईर्ष्या भाव पैदा ना हो, क्योंकि यदि वृद्धों की अन्तिम अवस्था परिवार वालों के कारण बिगड़ती है, तो परिणाम में आपको भी कांटे ही मिलेंगे।
अन्त में आप सभी से विनम्र निवेदन है कि वृद्धों की आत्मा को हमेशा खुश रखें, उनसे शुभ आशीर्वाद नित्य प्राप्त करें, उनका शुभ आशीर्वाद् भावी जीवन को सुखी समृद्धशाली बनाने का परम रहस्य है। वृद्धों की सेवा ईश्वर की सेवा है। उनको प्रसन्न रखना, उनसे शुभाशीष लेना परमात्मा की, सद्गुरु की कृपा पाना है।
आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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