अर्थात् हे ईश्वर अंधकार से मुझे प्रकाश की ओर ले चलो। यह प्रार्थना भारतीय संस्कृति की आत्मा है, इसका प्राण है, भारत की जीवनशैली है।
यहां प्रकाश का तात्पर्य ज्ञान से है, ज्ञान से व्यक्ति का अंधकार (अज्ञानता) नष्ट होता है। जब व्यक्ति की अज्ञानता समाप्त होती है और उसके चित्त में सुज्ञान का प्रादुर्भाव होता है, तो वह सही मायने में अपना भावी जीवन जीने योग्य बनता है। ज्ञान से उसकी सुप्त इन्द्रियां जागृत होती हैं, उसकी कार्य क्षमता बढ़ती है, जो उसके जीवन को प्रगति पथ पर ले जाती है।
ज्ञान का रूपान्तरण वर्तमान में शिक्षा के नाम से जाना जाता है। हमारे देश की गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था में विद्यार्थी गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे। इसमें बालक को सभी सुसंस्कारों से, ज्ञान, बुद्धि, बल, शौर्य, अस्त्र, शस्त्र विद्या, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं सांसारिक गृहस्थ जीवन को सर्वश्रेष्ठमय बनाने जैसे विषयों पर अधिक बल दिया जाता था, क्योंकि उस समय शिक्षा प्राप्ति का उद्देश्य कैरियर से सम्बन्धित नही था, इसके मूल में नैतिक-मूल्य शामिल हुआ करते थे, लोगो की आवश्यकतायें बहुत ही सीमित हुआ करती थी। यही कारण है कि उस समय जीवन मूल्यों में इतना ह्रास नहीं था। सभी व्यक्ति सामाजिक नियमों का पालन करते हुए जीवन यापन करते थे। एक-दूसरे की स्वतंत्रता एवं अधिकारों का सम्मान करते थे।
अनैतिक कार्यों में यथा सम्भव दूरी बनाये रखते थे। सभी अपने निर्धारित कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करते थे, परस्पर सहयोग एवं सम्मान की भावना थी। उस समय शिक्षा का तात्पर्य मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन में सर्वांगीण सुख व पूर्णता की प्राप्ति का भाव ही रहता था। वर्तमान की तरह सुख-सुविधाओं के साधनो का संग्रहण नहीं हुआ करता था, जिसके पास जितना होता था, उसी में वह संतुष्ट रहता था। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं था कि वे कर्महीन अथवा अल्पज्ञानी थे, उनके ज्ञान और सामर्थ्य के सामने इतने संसाधन होने के बावजूद भी आज का विज्ञान बौना है। यही कारण है कि आज भी वैज्ञानिक अनेक भारतीय सांस्कृतिक रहस्यों से पर्दा नहीं हटा पाये और उन रहस्यों को ही मनगढंत कहानी बताकर स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने का कुचक्र रचते रहे।
यह भी जानना आवश्यक है कि हमारी गुरुकुल शिक्षा विलुप्त क्यों हुयी? अंग्रेजी अथवा पाश्चात्य शिक्षा का आरम्भ ऐसे नवयुवकों को प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से हुआ था, जो अंग्रेजी सरकार के कार्यालयों में नौकर, सेवक बनते हुए निम्नस्तरीय प्रशासनिक कार्य कर सकें। हम सभी जानते हैं कि ब्रिटिश सरकार प्रारम्भ में व्यापार के उद्देश्य से आयी थी, बाद में छल से भारत को अपने अधीन कर लिया था।
ब्रिटिश सरकार के द्वारा चलाये गये विद्यालयों में अंग्रेजी भाषा व पाश्चात्य सभ्यता पर अधिक बल दिया जाता था। ब्रिटिश सरकार और अनेक पथ भ्रष्ट, दुष्प्रवृत्ति के शिकार, लालची प्रवृत्ति के भारतीय योजनाबद्ध रूप से भारतीय नवयुवकों के दिमाग में यह बात भरने में सफल हुए कि भारतीय संस्कृति, सभ्यता रूढि़वादी, पिछड़ा हुआ व निम्न वर्ग का है।
जिससे भारतीय नवयुवक पाश्चात्य संस्कृति, वेशभूषा, विचारधारा, खान-पान, रहन-सहन की ओर आकर्षित हुए और उन्होंने उसी के अनुसार अपना जीवन ढ़ाल लिया। साथ ही अपनी सभ्यता एंव संस्कृति को हीन मान कर निन्दा करने लगे।
ब्रिटिश काल में किसी भी महापुरुष ने इस ओर ध्यान नहीं दिया और ना ही अपनी मूल शिक्षा व्यवस्था संरक्षित करने का कोई प्रयास किया और स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी भारतीय शिक्षा में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। स्वतंत्र भारत में तकनीकी विकास-विज्ञान आधारित विषयों को पाठ्यक्रम में शामिल तो किया गया, लेकिन आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों की सदा अनदेखी ही की गयी है। पूर्व की सरकारो ने धर्म- निरपेक्षता की आड़ में सदा नैतिक शिक्षा की उपेक्षा ही की।
हम यहां तकनीक, नवीन ज्ञान-विज्ञान को समझने, जानने, सीखने के विरोधी नहीं है, परन्तु हम इस पक्ष में अवश्य हैं कि अपने मूल चिन्तन, संस्कृति को जीवन्त रखा जाए हमारी आने वाली पीढि़यों को ऐसी वैचारिक स्थिति दी गयी कि नैतिक शिक्षा से आपूरित आध्यात्मिक व्यक्ति निम्नकोटि का, पिछड़ा हुआ, हीन, रूढि़वादी और हमेशा पूजा- पाठ करने वाला, गेरुआ वस्त्रधारी, पंडित, पुजारी, लम्बी जटाओं-दाढ़ी वाला दिखने में असभ्य होता है।
जबकि अध्यात्म जीवन जीने की नीतियां बताता है, अध्यात्म तनाव रहित जीवन जीने का ज्ञान देता है, अध्यात्म मानव जीवन के कर्तव्यों के निर्वाह की शक्ति प्रदान करता है, अध्यात्म सामाजिक नियमों का पालन करते हुए दूसरों की स्वतंत्रता और सम्मान की परिभाषा समझाता है और यही आध्यात्मिक ज्ञान जीवन के नैतिक मूल्यों की रक्षा की दृढ़ता व सम्बलता प्रदान करता है। मनुष्य में संवेदनाओं का मिश्रण करता है, सभी से प्रेम करने की कला सिखाता है।
इन मूल्यों पर आधारित है हमारी प्राचीन आध्यात्मिक ज्ञान, हमारी नैतिक शिक्षा। परन्तु जिस प्रकार वर्तमान शिक्षा व्यवस्था धन, सुख-सुविधा, सत्ता तथा सामाजिक वर्चस्व पाने का एकमात्र साधन बनकर रह गयी है, यह हमारे सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों को और अधिक गर्त की ओर अग्रसर कर रही है। साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि ये व्यवस्थायें, शिक्षा केवल सामाजिक दृष्टिकोण से ही हानिकारक नहीं है, ये व्यवस्थायें हर एक व्यक्ति के लिए हानिकारक, कष्टदायी होंगी। इसमें पारिवारिक मूल्यों का भी पतन होगा और हो भी रहा है। परन्तु यदि हम सही समय पर नहीं जागे तो और अधिक पतन होगा। एकल जीवन प्रणाली में वृद्धि होगी, ईर्ष्या, द्वेष, लूट-पाट, चोरी, बेईमानी, भ्रष्टचार, बलात्कार, अनैतिक कृत्य, वृद्ध माता-पिता को घर से बाहर करना अन्य अनेक दुष्प्रवृत्तियों में वृद्धि होगी।
जिसके जिम्मेदार हम भी होंगे, यदि हम अभी जो पीढ़ी शिक्षा ग्रहण कर रही है, उसे नैतिक मूल्य की शिक्षा ना दे पाये तो परिणाम गंभीर ही होंगे।
इसलिए हमारे समाज में तकनीक व वैज्ञानिक शिक्षा के साथ ही साथ नैतिक मानवीय मूल्यों की रक्षा का ज्ञान, शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था शासन व सामाजिक दोनों स्तरों पर पुरजोर रूप में प्रारम्भ होनी चाहिए।
हमारी शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। कैरियर सम्बन्धित शिक्षा के साथ ही साथ विद्यार्थियों को जीवन मूल्य का ज्ञान भी देना होगा, तब ही उनका जीवन सही दिशा में अग्रसर हो सकेगा और वे अपने जीवन को आदर्श रूप में स्थापित कर पायेंगे।
हम कितनी भी उच्च श्रेणी की शिक्षा ग्रहण कर लें, हम तकनीक में कितनी भी उच्चकोटि की उपलब्धि हासिल कर लें, लेकिन यदि हमारे आन्तरिक गुणों का विकास नहीं होगा, यदि हम नैतिक शिक्षा नहीं ग्रहण कर पाये, यदि हमारी पीढ़ी जीवन जीने का सही सलीका नहीं सीख पाई तो ऐसा व्यक्ति अपने जीवन को आदर्श रूप में नहीं स्थापित कर पायेगा और वह स्वयं के साथ ही साथ समाज, परिवार आदि का भी अहित कर लेगा।
इस परिवर्तन के लिए शिक्षक-अभिभावक दोनों का सहयोग-योगदान आवश्यक है। शिक्षक को शिक्षा के साथ ही साथ बालक-बालिका के बौद्धिक, वैचारिक, चारित्रिक विकास की मजबूत नींव स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए। इस कार्य में अभिभावक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, इसलिए अभिभावकों को अपने संतान के लिए ऐसी व्यवस्था, वातावरण बनाना चाहिए, जहां वे वर्तमान तकनीक, शिक्षा, विज्ञान के साथ ही भारतीय मौलिक सभ्यता, नैतिक शिक्षा, मानवीय मूल्यों का ज्ञान, धर्म, कर्म, आध्यात्मिक ज्ञान, सुसंस्कार आदि अर्जित कर सके और इन विचारों को, शिक्षा को ग्रहण करने के लिए, रहन-सहन, कपड़े पहनने का ढंग आदि आडम्बरों में बदलाव की आवश्यकता नहीं, यह तो आंतरिक विषय है, जिसमें आंतरिक वैचारिक परिवर्तन होता है।
अध्यात्म किसी को भी रूढि़वादी, हीन, असभ्य नहीं बनाता। आध्यात्म जीवन में सम्बलता प्रदान करता है, जूझने की शक्ति, संघर्ष की प्रेरणा, जीवट शक्ति और जीवन का सही मार्ग बताता है। आध्यात्मिक शिक्षा आदर्श जीवन जीने का ज्ञान देता है। नैतिक ज्ञान, शिक्षा प्रत्येक विद्यार्थी में होनी चाहिए, तब ही वह विद्यार्थी स्वयं के साथ परिवार, समाज को सशक्त बनाने में सफल होगा।
एकजुटता, प्रेम, संवेदना और कर्तव्यों का सही रूप में निर्वाह केवल और केवल नैतिक शिक्षा, आध्यात्मिक ज्ञान पर ही आधारित है।
अन्त में इतना ही कहना चाहूंगा, एक बार मनन करें, चिन्तन करें फिर आपको जो भी उचित लगे, वैसा अपने बच्चों का निर्माण करें।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,