अगहन माह मार्गशीर्ष की शुक्ल पक्ष की पंचमी को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और शक्तिमयी सीता का विवाह हुआ था। शास्त्रों ने इस दिवस को विवाह पंचमी नाम से सम्बोधित किया। सभी गृहस्थियों के लिए राम-सीता का वैवाहिक जीवन आदर्श स्वरूप है। इनका वैवाहिक जीवन इसलिए सर्वोच्च माना जाता है कि एकमात्र इनका ही जीवन पति-पत्नी युगल रूप में ऐसा है, जिसमें केवल कर्तव्य निर्वाह ही मुख्य रहा है, दोनों ने कभी भी अधिकारों की बात नहीं की।
जिस तरह से आधुनिक समाज का ग्लोबलाइजेशन हुआ है, उतनी ही तीव्रता से सम्बन्धों व रिश्तों में बदलाव भी आया है। पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव मनुष्य के निजी जीवन में भी देखने को मिल रहा है, जिसके अनेक लाभ भी है और हानि भी। इसका सबसे अधिक लाभ यह हुआ कि स्त्रियां आत्मनिर्भर होने लगी, अपनी बेबस व बेचारी माने जाने वाली छवि से मुक्ति पाने की ओर बढ़ने लगी, पूर्व की तुलना में अधिक समर्थ और सक्षम हुयीं, उनका भी जीवन आत्मनिर्भर हो गया और अपने अधिकारों के लिए वे बोलने लगी हैं। परन्तु आर्थिक, सामाजिक रूप से आत्मनिर्भर होने के कारण आये इस परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव उनके वैवाहिक जीवन पर पड़ा। अच्छी बात तो यह स्त्री के लिए थी, लेकिन व्यस्तता के कारण जो परिवार व घर के प्रति नजरअंदाजी स्त्री के तरफ से हुयी, वह पारिवारिक सम्बन्धों की मधुरता को कम करने का बड़ा कारण बना। इसके साथ ही स्वयं स्त्री के लिए भी परिस्थितियां जटिल होती गयीं। यही कारण है कि विवाह जैसे पवित्र व समर्पित रिश्ते की परिभाषा बदल गई।
माता सीता का आदर्शवान गृहस्थ जीवन श्रीरामचरित मानस में एक प्रसंग है, जब श्रीराम और सीता ने विवाह के पश्चात् पहली बार बात की तो राम ने सीता को वचन दिया कि वे जीवन भर उनके प्रति निष्ठावान रहेंगे। उनके जीवन में कभी कोई दूसरी स्त्री नहीं आएगी। सीता ने भी वचन दिया कि हर सुख और दुख में वे उनके साथ रहेंगी। राम और सीता ने पहली बातचीत में भरोसे ओर समर्पण की प्रतिज्ञा ली थी। समर्पण राम का था तो सीता भी प्रत्येक कदम पर सहयोगी रहीं और यही कारण रहा कि इन दोनों के मध्य कभी व्यक्तिगत रूचियां अड़चन नहीं बनी और ना ही दोनों के बीच कभी अहंकार कोई कारण बना। दोनों एक-दूसरे के सुख की चिंता करते थे।
वर्तमान में सर्वाधिक रिश्ते व्यक्तिगत रूचि और अहंकार के कारण ही खण्डित होते हैं। रिश्तों में समर्पण की भावना समाप्त सी हो गई हैं और यदि हम वैवाहिक जीवन के मूल तत्व सर्मपण व भरोसे को पुनः जीवन्त बना लें, अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से परे हटकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह करें, तो हमारा गृहस्थ जीवन राम-सीता की तरह सफल-सुखद और शांतिदायक हो सकता है।
इसी तरह जब श्रीराम वनवास जा रहे थे, तब उनकी इच्छा थी कि सीता माता कौशल्या के पास ही रुक जाएं। जबकि सीता श्रीराम के साथ वनवास जाना चाहती थीं और माता कौशल्या भी चाहती थीं कि सीता वनवास ना जाये। इस विषय पर सीता की इच्छा अलग और श्रीराम-कौशल्या की इच्छा अलग थी, लेकिन श्रीराम के धैर्य, सीता जी और कौशल्या जी की समझ से सभी मतभेद दूर हो गए, अंततः सीता जी श्रीराम के साथ वनवास गयीं।
वर्तमान में बहुत सी स्त्रियां ऐसी मिल जायेंगी, जो पति के आय पर संतुष्ट नहीं होती, उनकी इच्छाएं नित्य बढ़ती ही रहती है। सांस, बहू और बेटे के बीच मतभेद और कलह-क्लेश प्रतिदिन होते रहते हैं। इन सभी का कारण अधिकार और कर्तव्य निर्वाह मुख्य रूप से होता है, सभी लोग अपने-अपने अधिकार की बात करते हैं, परन्तु कर्तव्य निर्वाह की ओर कम ही ध्यान जाता है, ये बाते पति-पत्नी, सास सभी पर समान रूप से लागू होती है। यदि किसी में भी कर्तव्य निर्वाह की भावना प्रबल रूप से है, तो उसे अधिकार स्वतः ही धीरे-धीरे प्राप्त हो जाते हैं। अधिकारों को प्राप्त करने के लिए किसी संघर्ष की आवश्यकता नहीं होती है। इसके लिए अनिवार्यता केवल इतनी ही है कि आप अपने कर्तव्य का निर्वाह निष्ठा पूर्वक करें।
केवट की नाव में जब सीता ने श्रीराम के चेहरे पर संकोच के भाव देखे तो सीता तुरंत ही समझ जाती हैं कि राम केवट को कुछ भेंट देना चाहते हैं, लेकिन उनके पास देने के लिए कुछ नहीं था। यह बात समझते ही सीता ने अपनी अंगूठी उतारकर केवट को देने के लिए आगे कर दी। लेकिन केवट ने मना कर दिया और कहा वनवास पूर्ण होने पर आप मुझे जो भी उपहार देंगे, मैं उसे प्रसाद समझकर स्वीकार कर लूंगा।
रामचरित मानस के इस प्रसंग में स्पष्ट उल्लेखित है कि पति-पत्नी के मध्य ठीक इसी प्रकार की समझ होनी चाहिए। दोनों के बीच अन्डर स्टैंडिग बहुत ही महत्वपूर्ण है, यह एक ऐसा तथ्य है जो सम्पूर्ण गृहस्थ जीवन को एक अलग ही आनन्द से युक्त करता है। वैवाहिक जीवन में दोनों की आपसी समझ जितनी मजबूत होगी, गृहस्थ जीवन उतना ही मधुर आनन्ददायक होगा।
सीता जी और राम जी वन में साथ रहे, इनकी यह बात संदेश है कि पति-पत्नी गृहस्थी की धुरी होते हैं। सफल गृहस्थी ही सुखी परिवार का आधार है, यदि पति-पत्नी के रिश्ते में थोड़ी भी दूरी है तो फिर परिवार कभी खुश नहीं रह सकता, परिवार का सुख, गृहस्थी की सफलता पर निर्भर करता है।
राम-सीता के गृहस्थ जीवन में ऐसे कई तत्व हैं, जिसें सभी दाम्पत्य को अपने जीवन में सम्मिलित करना चाहिए, जिससे आपका गृहस्थ जीवन भी प्रभु श्रीराम और माता सीता के समान ही आत्मिक, मानसिक रूप से एकरस हो सकेगा और आप अपने गृहस्थ जीवन को पूर्ण सुख-शांतिमय व्यतीत कर सकेंगे।
संयम- समय-समय पर उठने वाली मानसिक वृत्तियों पर नियंत्रण रखना, राम-सीता ने सम्पूर्ण दाम्पत्य जीवन बहुत ही संयम और प्रेम से व्यतीत किया था। वे कहीं भी मानसिक-शारीरिक रूप से अनियंत्रित नहीं हुए।
संतुष्टि- एक-दूसरे के साथ रहते हुए समय और परिस्थिति के अनुसार जो भी सुख-सुविधा उपलब्ध हो उसी में संतोष करना। राम-सीता एक-दूसरे से पूर्णता संतुष्ट थे, राम-सीता ने कभी भी एक-दूसरे में कोई कमी नही देखी।
संवेदनशीलता- पति-पत्नी के रूप में एक-दूसरे की भावना को समझना और उसका सम्मान करना महत्वपूर्ण है। राम-सीता के बीच संवेदनाओं का गहरा रिश्ता था। दोनों बिना कहे-सुने ही एक दूसरे के मन की बात समझ जाते थे।
संकल्प- पति-पत्नी को अपने धर्म सम्बन्ध अनुरूप अपने कर्तव्यों के लिए प्रतिबद्ध व संकल्पित रहना चाहिए।
समर्पण- दाम्पत्य जीवन में पति-पत्नी का एक दूसरे के प्रति पूरा समर्पण और त्याग होना भी आवश्यक है। एक-दूसरे के लिए अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं का त्याग करना चाहिए।
इससे दाम्पत्य सम्बध में मजबूती और मधुरता आती है। इन सभी विचारों को अपने गृहस्थ जीवन में सम्मिलित कर आज भी स्त्री-पुरुष सम्पूर्ण जीवन को सुखमय बना सकते हैं, सम्पूर्ण गृहस्थ जीवन आनन्दमय बना सकते हैं।
आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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