लोग तो तुम्हें भभूत, कड़े, ताबीज और न जाने क्या-क्या देते हैं पर मैं तुम्हें मृत्यु देता हूं क्योंकि मैं लीक से हट कर चलता हूं, विद्रोह मेरा स्वभाव है, रूढि़यों पर प्रहार करना मेरी नियति है, पाखण्ड और ढ़ोंग पर निर्ममता करना मेरा जीवन है।
तुम्हारे पाखण्ड, तुम्हारी संदेह शीलता, तुम्हारा शक, तुम्हारी न्यूनता, तुम्हारा ओछापन और तुम्हारी निर्लज्जता को मृत्यु देता हूं।
मैं मृत्यु देता हूं कि जो कुछ तुमने कूड़ा-करकट अपने दिमाग में भर दिया है वह जल जाय, जो कुछ संदेह की दीवारें खड़ी कर दी हैं वे भरभरा कर गिर जांय, जो कुछ कंकर पत्थर चुन कर इकट्ठे किये हैं वे हट जाय।
तुम्हारे चित्त पर, मन पर, हृदय पर जो कुछ स्याह है, कालापन है वह समाप्त हो जाय, आज तक तुम जो गंदे गलीच थे वह मर जाय, तब फि़र मैं नये सिरे से तुम्हारा निर्माण करूं, देवदूत की तरह, अद्वितीय मानव की तरह, दुर्लभ शिष्य की तरह।
मैं उनमें से प्राणता और जीवन्तता भरना चाहता हूं, उन्हें आफ़ताब बनाना चाहता हूं, उन्हें आफ़ताब बनाना चाहता हूं, कि वे सूर्य की तरह पूरी पृथ्वी के अंधोरे को दूर कर सकें।
उत्तराधिकार में प्रहार करने की कला सिखाना चाहता हूं कि ढ़ोंगियों, पाखण्डियों और आलोचकों पर वज्र की तरह प्रहार कर सकें, चुनौतियों का जवाब दे सकें और फुफकारती आंखों को नोच कर फेंक सकें।
उत्तराधिकार में देना चाहता हू प्रेम—– कि वे दग्धा हृदयों पर फ़ुहार बन कर बरस सके, जलते हुये दिलों का मरहम बन सकें, बिलखते हुये आंसुओं की हंसी बन सकें, छटपटाते हुये प्राणों की संजीवनी बन सकें।
मेरी करूणा, मेरा स्नेह, मेरी आत्मीयता और मेरा प्रेम ही उत्तराधिकारिता के रूप में अपने शिष्यों को देना चाहता हूं।
तुम बीज हो, पुष्ट, उन्नत, सम्पूर्ण वृक्ष को अपने गर्भ में समेटे हुये उर्वर, पर तुम जमीन पर गिरा दिये गये हो, क्योंकि इन साधारण परिवार के लोगों में तुम्हारे मूल्यांकन की क्षमता नहीं है।
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