शिष्य को अपने आप पर विश्वास होना चाहिये, क्योंकि आत्म विश्वास ही साधना है, विश्वास की डोर से बंध कर आगे बढ़ना ही सेवा है और आंसुओं के अर्घ्य से समर्पित हो जाना ही इष्ट दर्शन है।
शिष्य को यह पता होना चाहिये कि पूर्णता को पाने के लिए कुंकुंम अक्षत नहीं चाहिये, गुरू को पाने के लिये तो उसका रास्ता आंखों की पलकों से बुहारना होगा।
शिष्य को यह चाहिये कि अपने शरीर से द्वेष, छल, झूठ के कोयले का कालापन हटाकर प्रेम, नम्रता, माधुर्य और ऊष्णता को स्थान देने में प्रयत्नशील रहे।
शिष्य के जीवन का लक्ष्य, ध्येय और कार्य बस इतना होना चाहिये कि वह प्रेम के हिमालय के सर्वोच्च शिखर को स्पर्श करें, अपने सद्गुरू से ऐसा प्रेम करें जैसा आज तक किसी ने न किया हो और भविष्य में कोई कर भी न सके।
जो व्यक्ति स्वयं का सम्मान करता है, वही मात्र दूसरों से सुरक्षित है, क्योंकि उसने एक ऐसा अभेद्य कवच ओढ रखा है, जिसे कोई हानि नहीं पहुंचा सकता।
गुरु क्या करते हैं, इस बात पर शिष्य को ध्यान नहीं देना चाहिये, श्रेष्ठ शिष्य वही है जो गुरु कहते है वह करे।
वे जो कुछ करते हैं, यह सब क्रिया कलाप उन्हीं की माया का हिस्सा है, मैं तो मात्र उनका दास, एक निमित्त मात्र हूं, जो यह भाव अपने मन में रख लेता है वह शिष्यता के उच्चतम सोपानों को प्राप्त कर लेता है।
शिष्य के मन में एक ज्वार होना चाहिये कि उठूं और गुरु से मिल जाऊं।
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