आत्मज्ञान स्वयं से परिचित होने की क्रिया है यह ही एकमात्र जीवन में सुखद स्थितियां निर्मित करती हैं और जिसकी दिशा सही हो उसकी दशा निश्चित रूप से श्रेष्ठमय बनेगी।
सांसारिक ज्ञान मनुष्य जीवन में प्रमुख है और एकमात्र सांसारिक ज्ञान को ही उन्नति, प्रगति मार्ग के लिये श्रेष्ठ माना जाता है, परन्तु यह पूरी तरह वास्तविक सत्य नहीं है, हम लौकिक रूप से जीवन में सुख-समृद्धि-साधन को ही उपलब्धि समझने की भूल करते हैं। लेकिन लौकिक सुख-सुविधा आत्मसुख से कोसों दूर है। मनुष्य अपने पूरे जीवन काल में साधन सुख के लिये प्रयत्न करता रहता है। वह उन्हें प्राप्त भी कर लेता है और अनेक बार असफलता भी मिलती है, कुछ समय बाद ये असफलतायें उसके दुःख का कारण बनती हैं।
अत्यधिक सांसारिक सुख, काम, मद, लोभ आदि जीवन को अंशातमय बनाते हैं। वास्तविक सुखद स्थिति व आनन्द आत्मज्ञान से ही संभव है। आत्मज्ञान प्रत्येक शिष्य के स्वयं के भीतर विद्यमान है, गुरु अपनी चेतना, ऊर्जा प्रदान कर आत्मतत्व जाग्रत तो करते ही हैं, परन्तु उस आत्मा के भीतर चेतना को सही दिशा देना शिष्य, साधक पर निर्भर है। आत्मज्ञान हमें स्वयं से स्वयं का बोध करवाती है और हमारे जीवन के आधार (नींव) को पूर्णरूपेण सुदृढ़, सशक्त बनाकर हमें सांसारिक-आध्यात्मिक जीवन में पूर्ण सफलमय बनाने में प्रमुख रूप से सहायक है। आत्मज्ञान अपने भीतर परम सत्य से साक्षात्कार की क्रिया है, जो पहले से ही सभी में विद्यमान है।
जिस तरह का संग्रह हम हमारे भीतर करते हैं, उसी तरह की अनुकूलता व बाधायें हमारे जीवन में निर्मित होती रहती है, आत्मज्ञान से इन बाधाओं का निराकरण संभव है, क्योंकि आत्मज्ञान होने से ऐसे कर्म नहीं होते जिससे जीवन में असंतुष्टता की स्थितियां निर्मित हों। जीवन में आने वाली बाधाओं का निवारण अपनी ऊर्जा शक्ति को रूपांतरण कर श्रेष्ठ दिशा की ओर अग्रसर करना है। सांसारिक सुख क्षण मात्र के लिये होते हैं, परन्तु आत्मज्ञान से अर्जित सुख-आनन्द सदा हमारे साथ विद्यमान रहता है और वही सिद्ध पुरुषमय योगी बनता है।
आपका अपना
विनीत श्रीमाली
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