शिष्य को गुरु के चिन्तन को समझने की जरूरत नहीं है, उनकी गहराई में जाने की जरूरत नहीं है। उनको तो सिर्फ गुरु के समीप जाना है और उनके अनुरूप बनना है।
गुरु की आज्ञा का पालन करना और एकमात्र आज्ञा का पालन करना ही शिष्य का परम कर्त्तव्य हैं।
शिष्य वह होता है जो बिना आलस्य किये हर क्षण सावधान और तत्पर रहें, न मालूम गुरु को कब आवश्यकता पड़ जाये, गुरु के उठने से पहले उठ जाये, गुरु के सोने के बाद सोयें तथा शिष्य पांचों नियम का पालन करें –
गुरुदेव के पुकारने पर तुरन्त आंख खुल जाये और आज्ञा पालन को तत्पर हो जाये।
हर क्षण सचेष्ट और सावधान रहे।
गुरुदेव की आज्ञा का पहला शब्द सुनते ही उस आज्ञा पालन में तत्पर हो जाये।
अल्पाहारी हो।
कम बोलने वाला हो।
जो शिष्य गुरु का हल्का सा इशारा समझकर कार्य करे वह उत्तम शिष्य होता है।
जो आज्ञा मिलने पर कार्य करे वे मध्यम स्तर के श्ष्यि होते है।
जो आज्ञा मिलने पर भी आलस्य वश धीरे-धीरे कार्य करते हैं वह अधम शिष्य कहे जाते हैं।
गुरु के सामने जो शिष्य आलस्य करता है, उसके पुण्य क्षीण हो जाते हैं।
जो शिष्य गुरु के सामने असत्य बोलता है वह अपने घर में दरिद्रता बुला लेता है।
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