शिष्य को निरन्तर गुरु-चिन्तन करते रहना चाहिये, जिससे जन्म-जन्मान्तरीय दोषों तथा पाप आदि क्षय हो जाता है।
गुरु को अपने हृदय में स्थापित करने हेतु शिष्य को सदैव गुरु-मंत्र का अहर्निश जप करते रहना चाहिये।
जो शिष्य गुरु के सामने भक्ति-भाव से दंडवत् प्रणाम करता है, वह समस्त प्रकार के भय से दूर, दुःख और तनाव से मुक्त हो जाता है।
शिष्य को एकनिष्ठ बुद्धि से निरन्तर गुरु का चिन्तन करना चाहिये, वही उस परम गुरु तत्व को प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त करता है।
शिष्य को प्रसन्न मन से श्रद्धा पूर्वक गुरु को ही अपना परम लक्ष्य बना लेना चाहिये, और यही एकमात्र माध्यम है जो साधक के जीवन को पूर्ण सौभाग्यशाली बना देता है।
शिष्य अपना शरीर, सभी इन्द्रियां, प्राण, धन-सम्पत्ति, बंधु-बांधव, पत्नी, पुत्र, पौत्र एवं समस्त स्वजनों को गुरुसेवा में समर्पित कर देना चाहिये। समर्पण ही गुरु को प्रसन्न करने की अंतिम क्रिया है।
जब शिष्य ‘स्व’ को समाप्त कर देता है, तब उसके हृदय में ज्ञान का दीपक प्रज्ज्वलित होता है।
शिष्य को गुरु की कृपा प्राप्ति हेतु बारम्बार हाथ जोड़कर प्रार्थना करते रहना चाहिये।
शिष्य को गुरुदेव के श्री चरणों की भाव पूर्ण हृदय से उपासना करते रहना चाहिये।
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