शिष्य को प्रातः काल उठते ही अपने सहस्त्रदल कमल में दो नेत्र, दो भुजा युक्त एवं अभय देने में समर्थ शांत स्वरूप वाले गुरु का उनके नामोच्चारण पूर्वक ध्यान, मनन और चिन्तन करना चाहिये।
जो शिष्य गुरु के सामने भक्ति-भाव से दंडवत् प्रणाम करता है, वह समस्त प्रकार के भय से दूर, दुःख और तनाव से मुक्त हो जाता है, उसे जीवन में सभी प्रकार से पूर्णता प्राप्त होती है।
शिष्य को निरन्तर गुरु का चिन्तन, ध्यान करते रहना चाहिये, जिससे जन्म-जन्मान्तरीय दोष तथा पाप आदि क्षय होने से निर्मल चित्त में गुरु का ज्ञान, उनकी सिद्धि समाहित हो सके।
गुरु को अपने हृदय में स्थापित करने के लिये आवश्यक है, कि शिष्य सदैव गुरु-मंत्र का अहर्निश जप करता रहे।
श्री गुरु परब्रह्म स्वरूप हैं, अतः सर्वत्र व्यापक हैं, जब शिष्य गुरु-नाम स्मरण करता है, तो स्वतः गुरुत्व की तेजस्विता से आप्लावित होता ही है, क्योंकि गुरु तो सर्वत्र व्याप्त होते हैं।
जो निरन्तर गुरु का ध्यान करता है, वह शिष्य ब्रह्ममय बनता ही है, इसमें कोई सन्देह नहीं हैं।वह शिष्य शरीर, पद तथा रूपादि की आसक्ति से विमुक्त हो जाता है।
शिष्य प्रयास करके उच्च कुल, जाति, धनवान, ऐश्वर्यवान, प्रतिष्ठा, यश आदि चिन्तनों से स्वयं को मुक्त कर अपना सारा चिन्तन गुरु के लिये ही समर्पित कर दे।
शिष्य अपना शरीर, इन्द्रियां, प्राण, धान, बंधु, परिवार, स्वजनों को गुरुसेवा में समर्पित कर दें।
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