जो कुछ करते हैं, गुरू करते हैं, यह सब क्रिया कलाप उन्हीं की माया का हिस्सा है, मैं तो मात्र उनका दास, एक निमित्त मात्र हूं, जो यह भाव अपने मन में रख लेता है वह शिष्यता के उच्चतम सोपानों को प्राप्त कर लेता है।
गुरु से बढकर न शास्त्र है न तपस्या, गुरु से बढकर न देवी, न देव और न ही मंत्र, जप या मोक्ष। एक मात्र गुरुदेव ही सर्वश्रेष्ठ हैं।
सद्गुरु के लिए प्रिय और अप्रिय शब्द नहीं होता उनके लिए सबसे महतवपूर्ण शब्द शिष्य ही होता है और जो शिष्य बन गया, वह कभी अपने गुरु से दूर नहीं होता। क्या परछाईं को आकृति से अलग किया जा सकता है? शिष्य तो सद्गुरु की परछाईं की तरह होते हैं।
जिसमें अपने आप का बलिदान करने की समर्थतता है, अपने को समाज के सामने छाती ठोक कर खड़ा कर देने और अपनी पहचान के साथ-साथ गुरु की मर्यादा, सम्मान समाज में स्थापित कर देने की क्षमता हो वही शिष्य है।
यदि कोई मंत्र लें, साधना विधि लें तो गुरु से ही लें, अथवा गुरूदेव रचित साहित्य से लें, अन्य किसी को भी गुरु के समान नहीं मानना चाहिये।
वास्तविकता को केवल शब्दों के माधयम से व्यक्त नहीं किया जा सकता। आम का स्वाद उसे चख कर ही जाना जा सकता है। साधना से विकसित ज्ञान द्वारा ही परम सत्य का साक्षात्कार संभव है।
मलिन बुद्धि अथवा गुरु भक्ति से रहित, क्रोध लोभादि से ग्रस्त, नष्ट आचार-विचार वाले व्यक्ति के समक्ष गुरु तंत्र के इन दुर्लभ पवित्र रहस्यों को स्पष्ट नहीं करना चाहिए।
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