विश्वामित्र का जब इन्द्र से युद्ध हुआ, लड़ाई हुई तो विश्वामित्र ने कहा मैं नई सृष्टि रच दूंगा। मगर मैं तुम्हारी बात नहीं मानूंगा और उन्होंने एक नवीन पृथ्वी की रचना कर दी, नवीन पक्षियों की रचना कर दी, नवीन व्यक्तियों की रचना कर दी और उनको एक ऐसी स्थिति प्राप्त हो गई कि वे मृत्यु को प्राप्त कर ही नहीं सके। क्योंकि वे एक उद्धर्ष ऋषि थे, ताकतवान ऋषि थे, क्षमतावान ऋषि थे।
मैं जब यह बार-बार दोहराता हूँ कि आपको ताकतवान बनना है, क्षमतावान बनना है तो उसके पीछे विश्वामित्र का एक श्लोक एक चिंतन है। इस श्लोक में विश्वामित्र ने कहा है कि वह जीवन नहीं है जो रोते कलपते हुये बीते। वह कोई जीवन नहीं है। वह जीवन भी नहीं है जो दुर्बलता के साथ व्यतीत हो। चाहे पुरूष हो, चाहे स्त्री हो। जीवन का एक-एक क्षण जिंदा और सजीव बीते। ऐसा बीते कि हम हुंकार भरें तो दूसरे को एहसास हो सके। जब हम बोलें तो सामने वाला हतप्रभ हो सके। जब हम अपनी बात कहें तो सामने वाला बाध्य हो सके उस बात को मानने के लिये।
यह जीवन में सफलता के लिये अत्यन्त आवश्यक है। आप कोई बात कहें और सामने वाला माने ही नहीं, घर वाले नहीं माने, बेटे नहीं माने, पत्नी नहीं मानें, पति नहीं मानें, पड़ौसी नहीं माने, आपका ऑफिसर नहीं माने तो आपके जो बोल ब्रह्म के समान हैं वे बोल व्यर्थ गये और आप मन में हताशा, निराशा, कुंठा, चिंता, तनाव लिये जीते रहते हैं और वे आपको मृत्यु देते हैं। मृत्यु आपको तनाव देती है, जो आप चाहते हैं वह हो नहीं पाता, इसलिये आप मृत्यु का वरण करने के लिये बाध्य हो जाते हैं? बाकी हमारे ऋषियों को तनाव था ही नहीं, हमें भी कोई तनाव है नहीं। मगर हम तनाव से मुक्त होने की क्रिया नहीं सीखे। विश्वामित्र ने सीखी।
इस श्लोक में वही बात कही गई है कि वैसा जीवन नहीं होना चाहिये जो एकदम रोता, कलपता बीते। मैं घर पर बैठा था तो पंचाग देख रहा था। मेरा समय या तो शिष्यों के साथ व्यतीत होता है या शास्त्रों के साथ व्यतीत होता है।
मुर्खो का समय आलोचना करने में या एक दूसरे की निंदा करने में व्यतीत होता है और बुद्धिमानों का समय-काव्य, शास्त्र, विनोद-हंसी मजाक में, शास्त्र पढ़ने-पढ़ाने में और कविता गुनगुनाने और कविता लिखने में व्यतीत होता है। समय तो बीतता ही है। दोनों अपने-अपने ढंग से व्यतीत करते हैं। मैं पंचांग में देख रहा था कि यह जो पिछला कुछ ऐसा समय व्यतीत हुआ ऐसा क्यों हुआ और आगे क्या है?
आने वाला समय ऐसा है जो महाभारत युद्ध के बाद का वापस समय आ रहा है तथा मैं कह रहा हूँ वह बात प्रवचन में खुले में कह रहा हूँ। यह आधारहीन बात नहीं है। इसलिये पिछले दस हजार वर्षों में वह समय आ रहा है जो कि अष्ट ग्रही योग है। आठों ग्रह मिलकर एक स्थान पर खड़े होंगे। आठों ग्रह जब एक साथ मिले हैं— नौ ग्रह तो मिल ही नहीं सकते। राहु केतु तो एक बिल्कुल विपरीत ध्रुव पर होते हैं। एक ही व्यक्ति के दो हिस्से हैं एक धड़ है, एक सिर है। एक को राहु कहा गया है, एक को केतु कहा गया है और जब महाभारत काल में अष्टग्रही योग हुआ तो आधे से ज्यादा भारतवर्ष समाप्त हो गया। ठीक वैसा ही योग पंचाग में आगे आ रहा है और मैं सन्न सा रह गया उस पंचांग पर नजर पड़ने पर।
मैंने सोचा क्या स्थिति बनेगी फिर, अगर प्रलय की स्थिति बनती है तो शास्त्रों ने कहा है कि अगर हम मरे तो प्रलय है ही फिर। हम समाप्त हो गये तो भले ही पीछे कुछ भी रहा हो वह बेकार है फिर और आप मेरी बात जान लें कि अगर महाभारत युद्ध की तरह विश्व युद्ध हुआ और अगले कुछ साल में ऐसा हो सकता है तो वह हमारे लिए, पृथ्वी के लिये बहुत विनाशकारी होगा। किसी की भी बुद्धि थोड़ी खराब होने की जरूरत है और परमाणु बम के माध्यम से पूरी पृथ्वी को मटिया मेट किया जा सकता है और मैं आज अगर इस तनाव में हूँ तो इस तनाव में आप भी हैं।
मैं इसीलिये आपको कह रहा हूँ आप ताकतवान बनें, आप शेर की तरह बनें, पौरूषवान बनें। मैं कह रहा हूँ मगर केवल सुनना और जीवन में उतार देना अलग-अलग क्रिया है। कहने से आप ताकतवान, साहसवान नहीं बन सकेंगे। कहने से तनाव मुक्त नहीं बन सकेंगे। समझाने से कुछ नहीं हो पायेगा। मैं अपने आपको कितना ही समझाऊं उससे तनाव मुक्त नहीं हो सकता। उसको फेस करके, उसका सामना करके, उस पर हावी होऊंगा तब मैं तनाव से मुक्त हो पाऊंगा, तब मैं एकदम काल बन पाऊंगा, तब मैं पौरूषवान और क्षमतावान बन पाऊंगा।
कृष्ण, महाभारत में हुंकार भरते हुये कहते हैं- दुर्योधन मैं तुम्हें ललकार रहा हूँ, ताकत है तो मेरे सामने आ। छिप कर मत खड़ा हो, मैं अकेला ही बहुत हूँ, तुम्हारे लिये, तुम्हारे पूरे कौरवों के लिये मैं बहुत हूँ। जब वे हुंकार भरते हैं तो कौरव हतप्रभ हो जाते हैं, तीर धनुष सब छूट जाते हैं उनके हाथों से। क्या है वह? वह हुंकार कहां से आई उनमें?
वह आ पाई क्योंकि वे पूर्ण यम पर अपने आप में हावी थे। मैं कृष्ण का उदाहरण बार-बार इस लिये देता हूं कि कृष्ण पूर्ण पौरूषवान थे, क्षमतावान थे, पूर्ण थे। और कृष्ण ही नहीं सैकड़ों ऐसे योद्धा हुये हैं। कृष्ण इतना क्षमतावान, इतना ताकतवान था, वह पूरी कौरव सेना को ललकारे, वह छोटी सी बात नहीं हो सकती। एक आदमी खड़ा होकर हजार विद्वानों को ललकारे वह छोटी सी बात नहीं हो सकती। एक आदमी पूरे समाज को ललकार कर खड़ा हो जाये यह छोटी सी बात नहीं हो सकती और यदि आप ऐसे नहीं बन सकेंगे तो आप पर तनाव हावी हो जायेगा या आप तनाव पर हावी होंगे, दुःखों पर हावी होंगे या दुःख आप पर हावी हो जायेंगे। चाहे मैं कितना भी समझा लूं फिर उससे कुछ नहीं हो सकता।
और हमारे सारे देवता अपने आप में शस्त्रवान हैं। भगवान शिव के पास त्रिशूल है। विष्णु के पास सुदर्शन चक्र है। दुर्गा के पास खड़ग है, काली के पास तलवार है। इंद्र के पास गदा है। शस्त्र विहीन कोई व्यक्तित्व है ही नहीं और देवताओं को शस्त्र की आवश्यकता क्या है?
वह एक प्रतीक है कि व्यक्ति जब तक ताकतवान नहीं बनता, तब तक उच्च व्यक्तित्व नहीं बन सकता। व्यक्तित्व का निर्माण हो ही नहीं सकता, चाहे वह पुरूष हो, चाहे वह स्त्री हो। अगर स्त्री है और उसमें क्षमता नहीं है तो परिवार का पालन नहीं कर पायेगी, बेटों पर नियंत्रण नहीं कर पायेगी, गलत रास्ते पर जाते हुये पति पर नियंत्रण नहीं कर पायेगी।
यदि आपमें ताकत नहीं है तो समाज में आप नगण्य से बन जायेंगे। तब उस समय आपको कुछ दिखाई नहीं देगा, आप सिर पकड़ कर बैठ जायेंगे जैसे सैकड़ो, लाखों लोग बैठते हैं। फिर आप शेर नहीं बन पायेंगे। फिर आप शिष्य भी नहीं बन पायेंगे। विश्वामित्र यही बात कह रहे हैं, यही महाभारत कह रहा है, यही रामायण कह रहा है। जब राम धनुष को उठा रहे हैं और परशुराम आ रहे हैं तो लक्ष्मण कहते हैं राम आप रूकिये। मैं परशुराम को बताता हूँ कि मैं क्या हूँ। मैं रघुवंशी हूँ और ऐसे धनुष के हजार टुकड़े कर सकता हूँ इतनी ताकत है मुझमें।
वह क्या बोल रहा था? वह कह रहा था हुंकार एक। उसका पौरूष बोल रहा था और सारी सभा सन्न थी, स्तब्ध थी। हिम्मत नहीं पड़ रही थी। उस समय रावण भी वहां था, उस धनुष को उठाने के लिये जनक के दरबार में मगर लक्ष्मण की हुंकार ने सारे राजाओं को निस्तेज कर दिया, एक व्यक्ति ने।
एक व्यक्ति ने परशुराम जैसे व्यक्ति ने, अपने फरसे से सारे शत्रुओं को समाप्त कर दिया। जब तक व्यक्ति में ताकत नहीं आयेगी, जब तक व्यक्ति में क्षमता नहीं आयेगी तब तक व्यक्तित्व बन ही नहीं सकता। व्यक्तित्व तो बनेगा शत्रुओं पर हावी होने से। मगर आपके जीवन में शत्रु आप पर हावी हैं। आने वाला समय हर दम तनावग्रस्त ही होगा, दुःखमय ही होगा, चिंताग्रस्त करने वाला होगा, हिंसा से पूर्ण होगा, अभावों से पूर्ण होगा और पल-पल मृत्यु आपकी ओर सरकती हुई मिलेगी। अभी तक तो मृत्यु धीरे-धीरे चलती थी अब जो समय आ रहा है, वह अत्यन्त विनाशकारी होगा। आप खुद देख लें। समय से पहले कहने वाला प्रज्ञा पुरूष होता है, समय से पहले सावधान करने वाले व्यक्ति को प्रज्ञा पुरूष कहते हैं, वह बता देता है कि आने वाला समय ऐसा होगा।
वह जीवन कैसा होगा, सोचिये आप? वह समय कैसे होगा जब आप में हुंकार नहीं होगी, ताकत नहीं होगी और आप मृत्यु से ग्रास बन जायेंगे? वह क्या जीवन होगा? जब आपके पास आयुध बल नहीं होगा तब फिर काली और भुवनेश्वरी और छिन्नमस्ता ये देवी देवता ये सब क्या कर पायेंगे? कृष्ण क्या कर पायेंगे, गुरू भी क्या कर पायेंगे? इसलिये नहीं कर पायेंगे कि आप में वह ताकत और क्षमता रहेगी नहीं। इसलिये जीवन का मूल अर्थ, जीवन का चिंतन है, अपने व्यक्तित्व को पौरूषवान बनाना, अपने आपको पौरूषवान बनाना। दस भाई मिलकर, बेटे मिलकर भी आपको पौरूषवान नहीं बना सकते, आप तो उतने ही असुरक्षित रहेंगे।
अगर आप असुरक्षित हैं और जैसा समय बह रहा है उसमें तो समाप्त होने की क्रिया है। फिर हमारी विद्या का क्या अर्थ होगा, फिर जो मैं तीस चालीस साल से चीख रहा हूँ उसका क्या अर्थ होगा? फिर आप में पौरूष और क्षमता कहां से आयेंगी? फिर आपकी चिंता मिटेगी कैसे? और अगर मैं चिंता मिटाऊंगा नहीं तो आप क्या मंत्र जप कर पायेंगे, कैसे आप गुरू से मिल पायेंगे। कैसे आप लक्ष्मी का वरण कर पायेंगे? कैसे लक्ष्मी को अपने अधीन कर पायेंगे? कैसे यम पर पांव रख पायेंगे? कैसे आप हुंकार भर सकेंगे? कैसे आप महाभारत युद्ध में खड़े हो सकेंगे?
कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। एक अंधकार दिखाई दे रहा है। आज आप इस बात को नहीं समझ पाये, कल समझें यह अलग बात है। कल हाथ पैर पटकते हुये मर जायें, तो आपके जीवन का अर्थ क्या होगा? कौन सा आपका बेटा वहां काम आयेगा, कौन सा पिता काम आयेगा, वह आपको पानी पिला देगा, खाना खिला देगा, दूध पिला देगा, मगर आप अपने आप में निस्तेज हो जायेंगे।
एक क्षमता और एक ताकत आपके काम आ पायेगी और ताकतवान व्यक्ति का स्त्री भी वरण करती है। जब क्षीर सागर मंथन हुआ, सागर मंथन हुआ तो लक्ष्मी प्रकट हुई । श्री रंभा विष वारूणी अमिय शंख गजराज तो और देवता बहुत थे, ताकतवान भी थे, मगर हुंकार करने वाले भगवान विष्णु थे और लक्ष्मी उनके बगल में जाकर खड़ी हो गई। स्त्री भी वरण ताकतवान का ही करती है, वह भी अपने आप में गर्व करती है कि मेरा पति ताकतवान है, क्षमतावान है। व्यक्ति भी अपने आप में जब हुंकार करता है तो वह एहसास करता है कि मैं कुछ हूँ। यदि आप कुछ हैं तो फिर जीवन है आपका। अन्यथा वह एक घसीटता हुआ जीवन है, रेंगता हुआ जीवन है, वह मृत्यु प्रायः जीवन है।
आप देखेंगे कि सैकड़ों ऐसे व्यक्ति हैं जो सुबह शाम चिंताये आपको देते रहेंगे। वे इसके अलावा आपको कुछ दे ही नहीं सकते- आपके पिता, भाई, पत्नी, बहन, बेटी! आप चौबीस घंटे का हिसाब लगा लें, कोई न कोई तनाव, कोई न कोई चिंता ही वे आपको देंगे। उन को काटने की आप में क्षमता है ही नहीं, न रोगों को काटने की क्षमता है, न शत्रुओं पर हावी होने की क्षमता है, क्योंकि आपके पास शस्त्र है ही नहीं। मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की क्रिया आपके पास नहीं है। मृत्यु क्या चीज है जो आपके पास आ सके? ऐसा कैसे हो सकता है?
संभव नहीं हो सकता। आप में दुर्बलता आये ही नहीं। इच्छा मृत्यु बने और हम मृत्यु को प्राप्त करना चाहते ही नही। इच्छा मृत्यु का तो मतलब है कि हम मरेंगे ही, भीष्म कह रहे हैं- मैं चाहूं जब मरूं और मैं कह रहा हूं कि भीष्म यहां कायर था कि उसने कहा इच्छा मृत्यु। मृत्यु हमारे पास आने की हिम्मत कर सके वह संभव नहीं हो। विश्वामित्र ने कहा- ब्रह्मा मैं तुम्हारी चिंता नहीं करता हूँ। एक नवीन ब्रह्माण्ड रच कर दिखा दूंगा। मैं हूं, मैं गुरू हूं और मैं समझता हूं, वह विश्वामित्र था। इसलिये उसका व्यक्तित्व मुझे शोभनीय लगता है कि एक हुंकार भरता है वह और लक्ष्मी को भी अपने आंगन में खड़ा कर देता है, वह घबराता नहीं है क्योंकि उसके अन्दर एक आग, एक ज्वाला है, एक मंत्र बल है, एक ताकत और साहस है। यम को पैरों के तले रौंदने की क्रिया है। जीवन में एक उच्चकोटि ब्रह्मत्व प्राप्त वशिष्ठ के सामने तन कर खड़ा हो गया। उसने कहा- तुम्हें ब्रह्मत्व प्राप्त है, पर मेरे पास जो साहस, ताकत, क्षमता है, वह तुम्हारे पास नहीं है। तुम एक दिन मर सकोगे, मैं नहीं मर सकता, संभव नहीं है।
इसलिये भीष्म से भी ताकतवान विश्वामित्र है जो कहता है मृत्यु जैसी चीज है ही नहीं संसार में। क्योंकि उनके गुरू ने समझाया था- मृत्यु चीज कहां है, कहां से आई। मृत्यु दरवाजे पर ठक-ठक करती है, एक सौ आठ बार आती है, कभी आपके सिर के बाल सफेद करते हुये आती है, कभी आपके आंखें निस्तेज करते हुये आती है, तीसरी बार आती है तो खून की कमी करते हुये आती है, फिर बीमारी बनते हुये आती है। एक सौ आठ बार दरवाजा खटखटाकर मृत्यु आपके पास आती है और उसमें से पचास बार खटखटा चुकी है। केवल लकडि़यों की चिता पर जाकर सो जाने को मृत्यु नहीं कहते।
ऐसा गुरू भी क्या काम का जो कहे- राम-राम करो, भगवान जो करेगा अच्छा ही करेगा। भगवान जो करेगा तो करेगा पर हम क्या करेंगे यह समझना है। भगवान को भी समझा देंगे की कैसे किया जाता है। हममें वह ताकत है, वह क्षमता है। भगवान तो अच्छा कर ही रहे हैं। बम फट रहे हैं, भगवान अच्छा कर रहे हैं! हम क्या कर रहे हैं? हम कैसे पौरूषवान बन सकते हैं, कैसे ताकतवान बन सकते हैं, कैसे इंद्र बन सकते हैं, कैसे पूर्ण अग्निमय बन सकते हैं, कैसे देवतामय बन सकते हैं- यह आवश्यक है। आप में क्षमता कहां से आयेगी- हाथ जोड़ने से, गिड़गिड़ाने से, पांव में पड़ने से? उन अफसरों के तलवे चाटने से? औरत के सामने बिल्कुल निस्तेज भीगी बिल्ली बनकर आप पौरूषवान बन जायेंगे?
ऐसा जीवन क्या हो पायेगा? ऐसे जीवन में आपको दूंगा भी तो क्या फायदा होगा? ऐसे जीवन में तो आप घुट-घुट कर बीस साल में मरेंगे ही मरेंगे, रोते-रोते मरेंगे, घुट-घुट कर मरेंगे। मृत्यु जैसी चीज आपके साथ जुड़े नहीं, जीवन जुडे़, हंसी जुड़े, मस्ती जुड़े, साहस जुड़े। मैं कह रहा हूँ आपके चेहरे पर मुस्कुराहट होनी चाहिये। खिलखिलाहट होनी चाहिये, हंसी होनी चाहिये। मगर आपको बराबर वेदना, चिंता, समस्यायें, बाधाये, कठिनाईयां, पग-पग पर मिल रही हैं। आप अपना पिछला दस दिन का ही इतिहास देख लें। कितने तनाव आपको मिले आप खुद हिसाब लगा लें। सड़क पर निकलते हैं तो आप भयभीत रहते हैं। लड़का एक घंटा लेट आता है तो कांप जाते हैं। पति ऑफिस से आने में लेट हो जाता है तो आंखों से आंसू निकल आते हैं।
यह सब क्या है? इतना तनाव, इतना जहर फैल गया है, देश में, संसार में कि आदमी हर पल सशंकित हो गया है, दुःखी हो गया है, चिंतातुर हो गया है, हर पल ऐसा सोचता है कि न जाने कब मृत्यु हावी हो जायेगी। जाते हैं सड़क पर परंतु लौटेंगे, कोई भरोसा नहीं है।
पिक्चर देखने गये हॉल में, बम फट गया और ढाई सौ लोग मर गये, उनका कसूर क्या था? उनको क्या पता था हम मरेंगे वहां जाकर के? मृत्यु तो प्रत्येक पल दरवाजा खटखटा ही रही है और मैं आपको कह रहा हूं आपको मुस्कुराना चाहिये। मैं कह रहा हूं आप में छलछलाहट होनी चाहिये। वह तब आयेगी जब आप निश्चिंत हो जायेंगे कि मृत्यु मेरा वरण करे यह संभव नहीं है, ऐसा होना चाहिये जीवन। तब मैं समझूंगा कि शिष्यों को मैं कुछ दे पाया। यदि आपको किसी ने मुस्कुराहट भी दी हो, तो मुस्कुराहट के नीचे दबी हुई सिसकारियां भी दी होंगी। उस मुस्कुराहट के नीचे दबा हुआ रूदन भी होगा, आंखों में आंसू भी होंगे। ऊपर से नकली मुस्कुराहट होगी। वह जीवन नहीं है। जीवन हुंकारमय है, ताकतवान है, क्षमतावान है, जोश है वह जवानी का एक दर्प है, वह व्यक्ति में होना चाहिये, चाहे आप मेरे शिष्य हों या नहीं है। आप ऐसा जीवन प्राप्त करें या नहीं करें परन्तु यह मेरा, गुरू का धर्म है कि मैं आपको बताऊं कि जीवन क्या है।
जब मैंने पहली बार ली तो दीक्षा उन गुरू ने कहा- मैं बाद में तुम्हें दीक्षा दूंगा, पहले यह दीक्षा देना चाहता हूं कि तुम अपने आपमें पौरूषवान बनो, झुकोगे नहीं कहीं पर। मृत्यु तुम्हारा वरण नहीं कर सके। मृत्यु तुम्हारे सामने खड़ी हो सकती है, स्पर्श नहीं कर सकती और पग-पग पर खड़ी हो।
जब मैं सिद्धाश्रम गया तो सबसे पहले उन्होंने मुझे यह दीक्षा दी कि मृत्यु तुम्हारे सामने नहीं फटक सकती है, चाहे आग लगे, चाहे बम फटे। उस जीवन में जहां तुम्हें भेज रहा हूँ, वहां पग-पग पर केवल युद्ध है, लड़ाई है, चाकू है, छुरे हैं, बम है, पिस्तौल है, तलवार है। इसके अलावा कुछ है ही नहीं, चाहे आप फिल्म देख लें, चाहे टी-वी- देख लें, चाहे सड़क देख लें, चाहे घर देख लें। हर जगह आप सशंकित और तनाव युक्त हैं। फिर जीवन क्या काम का? न मालूम कब यम आकर समाप्त कर दे, मृत्यु पकड़ ले और हमारी सारी इच्छाये जो भी मैंने आपको सिखाया वह क्या काम आया आपके? मेरा कहना बेकार, आपका सुनना बेकार।
मैं कहां बता पाऊंगा की ये मेरे शिष्य हैं जो ताकतवान हैं और यदि मैं आपको क्षमता नहीं दे पाऊंगा तो कौन दे पायेगा? अगर मैं खुद अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं कर पाऊंगा तो अपनी ही आंखों से गिर जाऊंगा कि मैंने दिया ही क्या आपको। मैंने कह दिया हंसिये आप और एक नकली मुस्कुराहट आ गई आपके चेहरे पर। मैं समझता हूँ कि इसके नीचे कितनी वेदना, कितनी आग और कितना मृत्यु भय है। उस मृत्यु भय से परे हटना जीवन का सौन्दर्य है। जब आप निश्चिंत हो पायेंगे तब आप में हिलोर उठ पायेगी। पांडव निशि्ंचत थे, अर्जुन निशि्ंचत था कि कृष्ण मेरे पीछे खड़े है। कृष्ण अपने आप में निश्चिंत थे कि मेरे पीछे मेरे गुरू सांदीपन खड़े हैं , जिन्होंने मुझे मृत्युंजयी दीक्षा दी है। मृत्युंजयी दीक्षा का अर्थ है मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की क्रिया- मृत्यु का मतलब वेदना!
आपके कंधे पर आपके बेटे की अर्थी चली जाये इससे ज्यादा दुखमय चीज हो ही नहीं सकती। पत्नी के सामने पति की मृत्यु हो जाये इससे ज्यादा वेदना क्या हो सकती है? आप रात तड़पते हुए बिताये और नींद नहीं आये इससे ज्यादा दुःख क्या हो सकता है? आप की आंखों की ज्योति कमजोर हो जाये आप सिसकते रहें, अस्पताल में पड़े रहें वह आपका जीवन क्या हो सकता है? क्या वह जीवन है? और वह जीवन है तो आनन्द क्या है? इसलिये जीवन की मुस्कुराहट एक अलग चीज है, एक नकली मुस्कुराहट एक अलग चीज है। जो आप मुस्कुरा रहे हैं, वह सौ प्रतिशत नकली मुस्कुराहट है और आने वाला समय इतना भीषण है, जिसका हम आज से ही अनुभव कर रहे हैं और वे ग्रह अपने आप में बोल रहे हैं।
आप में से प्रत्येक व्यक्ति चिंताओं से ग्रस्त होगा, ऐसा समय आ रहा है। कौन संभालेगा, कौन समझायेगा आपको। कोई न कोई समस्या ऐसी आयेगी, कि आप बिल्कुल मृत्यु के पास खड़े होंगे। आप का मतलब है आप आपकी पत्नी, बेटे, बेटियां, आपका परिवार, आपका धन, आपका यश और आपका सम्मान। आज पांच सौ रूपये कमाने वाला सिपाही आपके हाथों में हथकड़ी लगा कर ले जाता है, आपने अपराध किया या नहीं किया पर आपकी इज्जत धूल में मिला देता है। क्या ताकत है आपकी? आपकी आंख में चिंगारी क्या रही?
आपकी इज्जत दो मिनट में चली गई और आपका जीवन समाप्त हो गया। निर्भीकता जो आनी चाहिये वह निर्भीकता तब आयेगी जब आप निशि्ंचत हो जायेंगे कि अब मेरे जीवन या परिवार में कोई चिंता या तनाव आ ही नहीं सकता। इज्जत में कोई बट्टा लगा ही नहीं सकता। मृत्यु मेरे पास फटक नहीं सकती- मेरे पास ही नहीं, मेरे बेटे, बेटियों, पत्नी के पास भी। अभाव मेरे जीवन में आ नहीं सकता। दरिद्रता मेरे जीवन में नहीं आ सकती। मैं निशि्ंचत होकर विचरण करूं तो कोई मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता। मेरी दुर्घटना हो नहीं सकती और जो विद्या गुरू दे रहे हैं उसे पूर्णता तक पहुँचा सकूंगा क्योंकि मैं निशि्ंचत हूं, निर्भीक हूं, मेरे पीछे गुरू हैं जिन्होंने मुझे इस योग्य बनाया है।
ये क्रियाये हम भूल गये हैं। आज से पचास वर्ष पहले तक जब गुरू दीक्षा देते थे तो पहले उसे निर्भीक बनाने की क्रिया देते थे। मृत्यु को परे हटाने की क्रिया देते थे, फिर उसको शिष्य बनाते थे। अब हम सीधा शिष्य बना देते हैं। मैं अपनी खुद की आलोचना कर रहा हूँ। मगर जो आप धीरे-धीरे सिसक रहे हैं, उन आंसुओं को कौन देख पायेगा, उस वेदना को कैसे समझेंगे, कैसे दूर करेंगे। दूर तब कर सकेंगे जब आप निर्भीक हो पायेंगे। इसलिये हमारे शास्त्रों में प्रत्येक देवता को एक आयुध दिया, शस्त्र दिया, उनके शरीर में ताकत दी, ऋषियों को एक क्षमता दी, पौरूष दिया, गिड़गिड़ाते हुये नहीं जीये इसलिए दस महाविद्याओं की रचना की कि उस मंत्र बल के माध्यम से निर्भीक बन सकें। मंत्र का अर्थ है मैं बोलूं आप पर प्रभाव हो।
एक बंदूक की गोली दस फीट की दूरी से छोडूं और आप समाप्त हो जायें वह मृत्यु है, आप घर में अभाव ग्रस्त हैं वह मृत्यु है, आप को कुछ हो जाये तो जीवन का क्या अर्थ रह जायेगा, जो विद्या मैं दे रहा हूं उसका क्या अर्थ रह जायेगा। इसलिये गुरू पहले दीक्षा देते ही नहीं थे। पहले पूर्णता के साथ मृत्यु से परे हटाने की क्रिया करते थे। मेरे साथ मेरे गुरू ने वह क्रिया की, मेरे साथ और शिष्य थे उनके साथ की। मगर अब वैसे शिष्य रहे नहीं, अब वैसे गुरू भी नहीं रहे। क्योंकि गुरूओं को वह ज्ञान नहीं रहा, शिष्यों में ग्रहण करने की शक्ति नहीं रही। दोनों में अंतर आया। इसलिये सीधा गुरू मंत्र दिया, गुरू अपने घर, शिष्य अपने घर। क्या गुरू ने अपने कर्त्तव्य का पालन किया? क्या गुरू दम ठोककर कह सकता है कि मैंने शिष्य को निर्भीक बनाया? क्या गुरू ने उसके छिपे हुये आंसुओं को देखा? क्या गुरू ने उसकी सिसकारियों को सुना?
नहीं सुना। नहीं सुना इसलिये गुरू अपने आप में निस्तेज हो गये, समाप्त हो गये बुझ गये। गुरू ही समाप्त हो गये, शिष्यों की कमी नहीं थी उसमें और अगर शिष्य भी ग्रहण नहीं कर सके तो वह शिष्य भी अपने आप में धिक्कारने योग्य है। रोते हुये, कलपते हुए जीवन व्यतीत करेंगे भी क्या होगा आपका? फिर मैं आपको मंत्र किस लिये दे रहा हूँ क्यों दीक्षा दे रहा हूँ? क्यों मैं ब्रह्मत्व दीक्षा दे रहा हूं? कल आप मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे तो फायदा भी क्या इस सबका? आपके परिवार में कोई अकस्मात् मौत हो गई तो मैं कहां मुंह दिखा पाऊंगा, कैसे खड़ा हो पाऊंगा आपके सामने? आप कहेंगे- मैं तो अपने को समर्पित कर चुका आपके सामने, गुरूजी फिर क्या स्थिति बनी? क्यों मुझे आपने दीक्षा दी, फिर मुझे शिष्य क्यों बनाया?
यह सारी मन में उथल-पुथल उस पंचांग को देखने के बाद आई और फिर मुझे श्लोक याद आया यमोपनिषद का- भौमवारे चतुर्दश्यां तां कालरात्रि महावहे, पूर्णतां मृत्यु इच्छायां दीवोदेवा वदन्यवी। चतुर्दशी हो और भौमवार हो, वह अपने आपमें एक योग होता है। आपने देखा होगा की अष्टमी होती है या चतुर्दशी होती है देवी के पूजन के लिये और मंगलवान पूर्ण यम का प्रतीक होता है और कालरात्रि के दिन हो तो इन दोनों में ही निर्भीक बन सकते हैं। कुछ साधनाये ऐसी होती हैं जो रात्रि को ही होती है।
मैंने पंचाग देखा वह योग देखा तो मानस में आया, कि तुमने अभी शिष्यों की सिसकारियां नहीं सुनी। ऊपर से तुमने कहा, वे मुस्कुरा दिये। जय गुरूदेव की हाथ जोड़कर बोल दिये। क्या तुमने उनको समझा, क्या उनको मृत्यु से परे हटाया? यह तुम जो देख रहे हो अष्टग्रही योग इससे दूर कौन हटायेगा इनको!
हो सकता है कल नहीं मिल पाये यें, हो सकता है कल शिविर में न आ पाये। हो सकता है छः महीने बाद नहीं मिल पायें और छः महीने में न मालूम क्या घटनाये घट जायेंगी, क्योंकि उतना सशंकित मैं भी हूँ, जितने आप हैं। आप उतने सशंकित हैं नहीं मगर मैं आपको लेकर सशंकित हूँ, क्योंकि मैं आपको हर हालत में जीवित और पौरूषवान देखना चाहता हूँ और जब मैं आप शब्द बोल रहा हूँ तो आप, आपकी पत्नी, आपके पुत्र, आपका परिवार- ये सब कुछ मिलकर आप बन रहे हैं।
और समय ऐसा बिल्कुल सामने स्पष्ट है और आप स्वयं देख पायेंगे अपने गांव को, शहर को, देश को, संसार को और आज की घटना आपको याद रहेगी कि गुरूदेव जी ने पहले ही बता दिया था कि समय ऐसे आने वाला है। पड़ोस में आपके सौ घर होंगे तो देख लेना आप कि पिचानवे किस प्रकार से वेदना और रोने में जी रहे हैं- देख लेना आप। आप निशि्ंचत होंगे इन सब के बीच। मगर यह तब हो पायेगा जब आपके पास मृत्यु से परे हटने की क्रिया होगी।
निर्धनता को परे हटाने की क्रिया होगी। जब उनसे जूझने की आप में ताकत आ पायेगी, जब आप पौरूषवान बन पायेंगे जब शत्रुओं का संहार कर सकेंगे। और शत्रु आपके पग-पग पर है, मेरे भी हैं, आपके भी है, और मैंने सन्यासी जीवन जीया, गृहस्थ जीवन भी। संन्यासी जीवन में मेरे इतने शत्रु थे ही नहीं और गृहस्थ जीवन में शत्रुओं के अलावा कुछ है ही नहीं। हर क्षण एक व्यर्थ का तनाव लड़के तनाव ग्रस्त हैं, घर वाले तनाव ग्रस्त हैं।
मगर तनाव से होगा क्या? कुछ होना ही नहीं क्योंकि शिष्य बनने से पहले मुझे दीक्षा ही वही मिली है। वही क्रिया मुझे मिली थी इसलिये न मैं कभी दुःखी होता हूं, न तनाव ग्रस्त होता हूं। कुछ क्षणों के लिये होता भी हूं तो आपकी वजह से कि इनसे मैंने क्या चालाकी भरा भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया, क्या वह चीज दी जो देनी चाहिए थी, क्या तुमने आने वाले समय को देखा?
नहीं देखा तो उनकी क्या गलती शिष्यों की? उन्होंने कब मना किया था। तुमने उनको क्यों निर्भीक नहीं बनाया? उनको मृत्यु से परे क्यों नहीं हटाया? तुमने उनके घर में मृत्यु को क्यों प्रवेश होने दिया? यह चिंतन मेरा भी रहा और पिछले कुछ समय से इस चिंता में रहा।
कृष्ण जब ललकारते है तो इसलिये ललकारते हैं कि उनमें पौरूष है। विश्वामित्र हिम्मत के साथ बोलते हैं सब ऋषियों के सामने तो इसलिये कि उनमें पौरूष है और अगर मैं बोल रहा हूँ तो इसलिये कि मैं उस शिष्यता, उस दीक्षा को प्राप्त कर सका हूं जहां मृत्यु मेरे पैरों के नीचे रौंदी तो जायेगी, मेरे ऊपर हावी नहीं हो पायेगी- यह गारंटी की बात है।
महाकाली का चित्र आपके सामने है जहां शिव के ऊपर पांव रखकर खड़ी हैं वह। बगलामुखी को देखें कि शत्रु पर पूर्ण हावी होकर खड़ी हैं। आइंस्टाइन के पेपर पढ़ें आप, उसने कहा- भारतीयों पर मुझे बहुत आश्चर्य सा हो रहा है। आइंस्टाइन ने अपने एक पत्र में लिखा है गांधी जी को। उन्होंने कहा- मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि भारतीय क्या हैं? भारतीयों के पास बगलामुखी जैसा उच्चकोटि का मंत्र होने के बाद भी गुलाम हैं। इस बात को देख-देख कर मैं आश्चर्य चकित हूं। इतना उच्चकोटि का मंत्र होने के बाद भी गुलाम हैं, मैं कल्पना नहीं कर सकता हूं। उसने ऐसा अपने पत्र में गांधी को लिखा है।
हम उस मंत्र के महत्व को ही नहीं समझ पा रहे हैं। हम बिल्कुल हतप्रभ, निस्तेज और डरपोक बनते जा रहे हैं, हरदम सशंकित बनते जा रहे हैं। हरदम दुःखी और चिंतित होते जा रहे हैं और यह स्वाभाविक है क्योंकि आज का युग तनाव युक्त है। मगर आने वाला समय इससे भी हजार गुना वेदना युक्त है। आपके लिये, मेरे लिये पूरे संसार के लिये। एक कोई सोच कि अणु बम पटक देना चाहिये- तो न आप हैं न हम हैं, न भारत वर्ष है। किसी का मांइड खराब होना चाहिये। एक इराक के साथ युद्ध हुआ पूरे संसार में युद्ध की स्थिति बन गई। ऐसा कुछ और हुआ नहीं कि प्रलय की स्थिति बन जायेगी। हम अपने आपको, अपने परिवार को, अपने देश को कैसे बचायेंगे? इसलिये हमारी महाविद्याओं की रचना हुई और वह श्लोक बना कि किस समय साधना कर पूर्ण निर्भीक बना जा सकता है।
और निर्भीक बनने की सर्वश्रेष्ठ क्रिया है बगलामुखी क्रिया या काली क्रिया। दस महाविद्याओं में लक्ष्मी युक्त भुवनेश्वरी भी है, भैरवी भी है, छिन्नमस्ता भी है, महाकाली भी है, बगलामुखी भी है। बगलामुखी का अर्थ है- मूल शब्द है वल्गा मुखी। वल्गा का अर्थ है लगाम। जैसे घोड़े के लगाम लगा देते हैं और हाथ में हमारे कंट्रोल रहता है, घोड़ा कितना ही ताकतवान हो। जब ताकत की बात करते हैं तो कहते हैं कि कितने हॉर्स पॉवर का है। घोडे की ताकत से उसका अंदाजा लगाते हैं। उस यम के मुंह में लगाम लगाने की जो क्रिया है उसे बगलामुखी या वगलामुखी कहा गया है। यम हमारे पैरों के नीचे कुचला हुआ रहे। क्योंकि हम देवताओं से भी श्रेष्ठ हैं, हम मनुष्य है। देवताओं से हम उच्चकोटि के है। और इस बात का हमें गर्व है। यह मेरा कर्त्तव्य है कि मैं शिष्यों को वह क्रिया सम्पन्न करा दूं कि इस जीवन में वे और उनका परिवार मृत्यु को प्राप्त नहीं हो सके, दुःखी नहीं हो सके, उनके जीवन में सिसकारियां नहीं हो सके।
और यह क्रिया कालरात्रि में ही सम्पन्न हो सकती है। कालरात्रि का अर्थ है- काल पर विजय प्राप्त करने की क्रिया, मृत्यु पर पूर्ण विजय होने की क्रिया और मृत्यु का अर्थ मैंने आपको समझा दिया है- अभाव, दरिद्रता, निर्धनता, गरीबी, मृत्यु और जीवन की न्यूनताये, वृद्धावस्था और बुढ़ापा। ये सब कुछ अपने आप में मृत्यु है। क्षण-क्षण हम मृत्यु की ओर सरक रहें हैं, हम आशंकित हैं, तनाव युक्त हैं, चिंतातुर हैं। आप सोचिये कि क्या आप तनाव ग्रस्त नहीं हैं? क्या आप चिंता युक्त नहीं है? आप बाहर जाते हैं और दो दिन टेलीफोन नहीं आता तो सोचने लग जाते हैं कि क्यों टेलीफोन नहीं आया। क्या हुआ? पत्नी, पति, बेटे, बेटियां सब तनाव में जी रहे हैं और मैं आपको ही नही आपके पूरे परिवार को उस तनाव से, मृत्यु से दूर धकेल कर ले जाना चाहता हूँ यह मेरे जीवन की इच्छा है।
मैं अपने आप में उच्चता पर खड़ा हो जाऊं वह बहुत बड़ी क्रिया नहीं होगी। मोर पंखों से अच्छा लगता है। पंख नहीं होंगे तो मोर क्या सुन्दर लगेगा? शिष्य नहीं होंगे तो मैं गुरू बनूंगा भी क्या? मेरा गुरू बनना भी बेकार होगा, अगर मैं आपको यह ज्ञान नहीं दे पाया तो। महाकाल युक्त बगलामुखी दीक्षा ही वह माध्यम है, क्रिया है जिससे पूर्ण तनाव मुक्त हो सकते हैं, मृत्यु को भी पैरों तले रौद सकते हैं। यह अपने आप में कठिन दीक्षा है, जो एक सद्गुरू ही दे सकता है, आपके छोटे मोटे गुरू नहीं दे सकते क्योंकि इस महाविद्या को सिद्ध करना और महाकाल को सिद्ध करना इतना आसान नहीं होता। शिष्यों के जीवन से मृत्यु को हटा दें यह सामान्य क्रिया नहीं होती। ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं और मैं ऐसे बहुत उदाहरण बना देना चाहता हूं कि इन पर मृत्यु हावी नहीं हो सकती- यह गांरटी है, चैलेंज है- यह सर्टिफिकेट है मेरी तरफ से आपको।
एक श्लोक में भगवान शिव से कहा गया है-
हे महाकाल! जिस प्रकार से बाघ की दाढों में एक हिरन फंस जाता है और छटपटाता है उसी प्रकार से प्रत्येक मनुष्य आपकी दाढों में फंसा हुआ छटपटा रहा है। कब आपके जबड़े मिलें और वह समाप्त हो जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता। इसीलिये इस जीवन को पानी का बुलबुला कहा गया है, या क्षण भंगुर कहा है या नश्वर कहा है। मगर ये शब्द उन लोगों ने गढ़े हैं जिनके पास ताकत नहीं थी, क्षमता नहीं थी। यह आपकी स्तुति उन लोगों ने की है जो दीन हीन और अकर्मण्य व्यक्तित्व थे।
अरे चातक! तू बार-बार इन बादलों से दीन वचन क्यों बोल रहा है। गर्जन्ती केचिद ता ये तो बेकार गर्जना कर रहे हैं। इसलिये जो तुम्हारी प्यास बुझा सके उसके सामने याचना कर। इसलिये इस श्लोक में बताया है कि यह शब्द उन लोगों ने कहे जिनमें कर्मण्यता नहीं थी, ताकत नहीं थी, गुरूत्व नहीं था।
और मैंने कई बार आपको स्पष्ट कहा है- कि गुरूत्व का मतलब कोई व्यक्ति विशेष नहीं है। कोई नाम नहीं है। एक उच्चकोटि की ज्योति को गुरूत्व कहा है और इस श्लोक में बताया गया है कि जिसके पास वह है वह अपने आप में मृत्यु पर पांव रखता हुआ, आपके चुंगल को तोड़ता हुआ, आप पर विजय प्राप्त कर लेता है। ऐसा ही मैं आप से वरदान चाहता हूं, मैं युद्ध में संघर्ष करता हुआ, आपको जीतूं और आपको परास्त करूं, ऐसा मैं आपसे आशीर्वाद चाहता हूं।
यह व्यक्ति यमराज को ऐसा कह रहा है और ऐसा आशीर्वाद यमराज ने नचिकेता को दिया। अगला श्लोक मैं गुरूदेव के बारे में बोल रहा हूं जिन्होंने यह उच्चकोटि का ज्ञान दिया-
हे गुरूदेव! आप स्वयं ब्रह्म स्वरूप हैं, विष्णु स्वरूप हैं, रूद्र स्वरूप हैं और सारी शक्तियां आपमें समाहित हैं और आपने इतने दुर्लभ ज्ञान को ढूंढ कर निकाला जो कि समाप्त हो चुका था और वह प्रदान किया। मैं अपकी अनुमति लेता हुआ अपने शिष्यों को मृत्यु पर पांव रखते हुये निर्भीकता के साथ में जीवन व्यतीत करने को आशीर्वाद देता हूँ। वे अपने जीवन में वह सब कुछ प्राप्त करें। जिसके माध्यम से उल्लास, आनंद, उमंग, यौवन, स्थिरता और देवत्व प्राप्त हो सके, ऐसा ही मैं आपको आशीर्वाद प्रदान कर रहा हूँ। और आप सद्गुरूदेव से पूर्ण महाकाल बगलामुखी दीक्षा प्राप्त कर सकें, जीवन में मृत्यु पर विजय प्राप्त करते हुए निर्भीक बन सकें, ताकतवान, क्षमतावान तथा निशि्ंचत बन सकें, ऐसी ही मैं कामना करता हूं, हृदय से आशीर्वाद देता हूं।
परम् पूज्य
सद्गुरूदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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