यह देह जिसमें परमात्मा ब्रह्म का आवास माना जाता है। शरीर की सारी क्रियाये अपने आप चलती रहती है, ऐसा लगता अवश्य है लेकिन मनुष्य शरीर में इन्द्रियों और अन्तकरण में प्रगट रूप में देवता स्थित है, भगवान ने अपनी अचिन्त्य शक्ति से माया से वृक्ष, सरीसृप(रेगने वाले जन्तु), पशु, पक्षी और मछली आदि अनेकों प्रकार की योनियां रची, परन्तु उनसे उन्हें संतोष न हुआ। तब उन्होंने मनुष्य शरीर की सृष्टि की। यह ऐसी बुद्धि से युक्त है जो ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकता है। इसकी रचना करके वे बहुत आनन्दित हुये।
इस शरीर में बहत्तर हजार नाडि़यां है और उतने ही देवता भी हैं। उनमें और सब तो अप्रकट रूप से हैं, किन्तु चौदह देवता (10 इन्द्रियों के तथा चार अन्तः करण के अधिष्ठाता) प्रकट रूप में है। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
1 चक्षुरिन्द्रिय के देवता– चक्षुओं में भगवान सूर्य का निवास है और ये ही सूर्य चक्षुरिन्द्रिय के अधिष्ठाता देवता है। इसीलिये चक्षुओं द्वारा ही रूप दर्शन संभव हो पाता है। रूपदर्शन का अधिकार चक्षुरिन्द्रिय को ही है अन्य को नहीं। नेत्र सम्बन्धी विकृतियों के लिये चाक्षुषोपनिषद, सूर्योपनिषद आदि सूर्यदेवतापरक उपासनाओं से विशेष लाभ होता है।
2 घ्राणेन्द्रिय के देवता– नासिका के अधिष्ठाता देवता अश्विनी कुमार हैं। नासिका के द्वारा गन्ध का ज्ञान होता है। गन्ध तत्व के अधिकारी देवता अश्विनी कुमार है। इनका नासिका में अधिष्ठान है।
3 श्रोत्रेन्द्रिय के देवता– श्रोत्र कान के द्वारा शब्द का श्रवण होता है। इसके अधिष्ठाता दिक् देवता है। इससे शब्द का ज्ञान होता है।
4 जिह्ना के देवता- जिह्ना में वरूण देवता का निवास है, इससे रस का ज्ञान होता है। इसीलिये जिह्ना को रसना भी कहा जाता है।
5 त्वक् के देवता- त्वचा के द्वारा जीव स्पर्श का अनुभव करता है। इस त्वगिन्द्रिय के अधिष्ठाता वायु देवता हैं, त्वचा में वायु देवता का निवास है।
6 हाथों के देवता- ग्रहण, त्याग, बल और पराक्रम आदि से सम्बद्ध सभी कर्म हाथों के द्वारा सम्पन्न होते हैं, इनमें इन्द्र देवता का निवास होता है और ये ही हस्तेन्द्रिय के अधिष्ठाता देवता है।
7 चरणों के देवता– चरणों के देवता श्री विष्णु हैं, इनमें विष्णु का निवास है। इनके द्वारा धर्म की सिद्धि के लिये तीर्थयात्रादि सेवा धर्म होते हैं।
8 वाणी के देवता- जिह्वा दो इन्द्रियां हैं, एक रसना तथा दूसरी वाणी। रसना के द्वारा आस्वादन होता है और वाणी के द्वारा सब शब्दों का उच्चारण होता है। वाणी में देवी सरस्वती का निवास है, ये देवी वाणी की अधिष्ठाता है।
9 मेढ उपस्थ के देवता- यह गुह्येन्द्रिय है। यह आनन्द का अधिष्ठान है और इसमें प्रजापति देवता का निवास है। इससे प्रजा संतति की सृष्टि होती है।
10 पायु गुढ़ा के देवता- इस इन्द्रिय से शरीर के मल का निःसरण होता है, जिससे शरीर शुद्ध होता है। इसमें मित्र देवता का वास है।
उपर्युक्त दस बाह्येन्द्रियां हैं, जिनमें पांच ज्ञानेन्द्रियां तथा पांच कर्मेन्द्रियां हैं। अन्तः करण भीतरी इन्द्रियां हैं। ये चार हैं- बुद्धि, अहंकार, मन और चित्त। इनका विवरण इस प्रकार है-
11 बुद्धिइन्द्रिय के देवता- बुद्धि के अधिष्ठाता ब्रह्मा है इसी के द्वारा सांसारिक ऋषियों का विवेक ज्ञान उत्पन्न होता है। बुद्धि की निर्मलता, विवेक और ज्ञान में अभिवृद्धि करती है पवित्र एवं निर्मल बुद्धि प्रज्ञा और पूर्णत्व और साक्षात्कार सम्पन्न कराती है, बुद्धि की तीव्रता हेतु ब्रह्मा और ब्रह्म स्वरूप गुरू का चिंतन निरन्तर करना चाहिये।
12 अहंकार के देवता– जीवन में अहम् तत्व अत्यन्त आवश्यक है, योगी, यति और सांसारिक प्रत्येक व्यक्ति में अहम् तत्व अवश्य होता है, यह अहम् तत्व तीन प्रकार का कहा जाता है, सत्व, रज और तम स्वरूप अहम् राजस् और तामस् अहम् द्वारा व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करता है, सत्व प्रधान अहम् तत्व से योग बुद्धि विकसित होकर मनुष्य को ऋषि, योगी बना देती है। इस अहम् तत्व के देवता रूद्र है, इसीलिये रूद्र सांसारिक व्यक्तियों में और योगियों में सर्व पूज्य हैं।
13 मन के देवता- मन का धर्म संकल्प विकल्प है, सांसारिक अवस्था में और यौगिक दोनों ही अवस्था में मन के अनुसार ही मनुष्य निर्णय करता है। जीवन में सुख और दुःख का कारण न मनुष्य है, न देवता, न शरीर है, न ग्रह कर्म, काल संसार में सुख और दुःख का कारण मन ही है, और मन ही संसार को चला रहा है। मन जहां बंधन का कारण है, वहीं मन मुक्ति का भी माध्यम है, यही मन मानवीय शक्ति बनने पर पूर्णत्व परम तत्व की प्राप्ति करता है। मन को एकाग्र बनाने के लिये दान, अपने धर्म का पालन, नियम, यम, श्रेष्ठ अध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्य पालन आवश्यक कहा गया है। मन की एकाग्रता सांसारिक सुखों को उपलब्ध कराती है और इसका निग्रह होने पर व्यक्ति परमेष्ठि बन जाता है। इस मन के अधिष्ठाता देव चन्द्र है, इसीलिये मन हर समय चंचल रहता है।
14- चित्त तत्व के देवता- मनुष्य जीवन की मूल्य शक्ति चित्त रूपी चैतन्य शक्ति है, तंत्र में इसे शक्ति रूप में माना गया है, यह मूल प्राण शक्ति, प्रकृति शक्ति है। इसी शक्ति में मनुष्य देह में विराट स्वरूप सनिहित है। सच्चिदानन्द निर्मल शक्ति जिसमें सत् चित् और आनन्द तीनों तत्व है। वह शक्ति देवी भगवती शक्ति है, प्राण शक्ति है जो अन्य सभी शक्तियों को नियंत्रित करती है।
मनुष्य अपने देह और मन में स्थित देवताओं का ध्यान कर उनकी शक्ति जब प्राप्त करता है तो उसे जीवन में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चतुर्वेद पुरूषार्थ प्राप्त होता है।
सस्नेह आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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