इन सम्पूर्ण दुःखों से छूटने का एकमात्र उपाय केवल ईश्वर प्राप्ति ही है। जब तक ईश्वर प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक दुःख, संताप, अशान्ति आदि मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते। अतः बुद्धिमान मनुष्य वही है जो इस मानव-शरीर में आकर सबसे पहले सभी ओर से मन हटाकर केवल देव प्राप्ति के साधन में उसी प्रकार संलग्न हो जाता है, जैसे भूखा मनुष्य सब काम छोड़कर सबसे पहले भोजन करने में लग जाता है।
अतः आध्यात्मिक उन्नति एवं आत्म कल्याण के लिये भक्ति योग ही वरेण्य है। भक्ति की साधना विषाद् है और इसके कई भेद भी है, विभिन्न आचार्य ने विभिन्न प्रकार से भक्ति की व्याख्या की है। उन सबको पढ़ने से साधक उलझन में पड़ जाता है कि आखिर भक्ति है क्या? साधक को भक्ति के दार्शनिक पक्ष को छोड़कर भगवान के अनन्य प्रेमी भक्तों की दृष्टि में भक्ति क्या है- उस पर ही ध्यान देना चाहिये। भक्तों की दृष्टि में भगवान में प्रगाढ़ आत्मीयता ही भक्ति है। भगवान में ऐसा प्रबल अपनापन हो, जिससे चित्त वृत्ति निरन्तर अविछिन्न रूप से भगवान की ओर ही बहती रहे। इससे भक्ति की अन्य सभी बाते अपने आप ही आ जाती हैं।
जीव का इस संसार के साथ अनादि काल से भूल से माना हुआ अपनापन का सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध को एक ही झटके में काट देने की बात सुनने में तो बहुत सुहावनी लगती है, किन्तु यथार्थतः क्रियात्मक रूप से यह उतनी सरल नहीं है। भजन-साधना किये बिना कोई भी व्यक्ति भगवान को प्राप्त नहीं कर सकता। दूध को मथने से भले ही घी निकल जाये, बालु मिट्टी को मथने से उसमें से भले ही तेल निकल जाये, किंतु भगवान का भजन किये बिना कल्याण नहीं हो सकता।
संसार में जिन वस्तुओं को मनुष्य ‘मेरा’ कहता है, वे सब भगवान की है। मनुष्य मूर्खता से उन पर अधिकार को आरोपित कर सुखी-दुःखी होता है, भगवान की सब वस्तुयें भगवान के ही काम में लगनी चाहिये। भगवान के कार्य के लिये यदि संसार की सारी वस्तुयें मिट्टी में मिल जाये तो भी बड़े आनन्द की बात है और उनके कार्य के लिये बनी रहे तो भी बड़े हर्ष का विषय है। उन वस्तुओं को न तो अपनी सम्पति समझना चाहिये, क्योंकि वास्तव में तो सब कुछ नारायण का ही है, इसलिये नारायण की सर्व वस्तु नारायण को अर्पण की जाती है।
ऐसा समझकर संसार में जो कार्य किये जाते है, वहीं भगवान-प्रेमरूप शरण की प्राप्ति का साधन है। हमारे मन और बुद्धि त्रिगुणामयी प्रकृति के द्वारा नियंत्रित बतायी गयी हैं। मन का काम संकल्प – विकल्प करते हुये मोहपाश में बंधना है और बुद्धि का काम मन द्वारा किये गये संकल्प-विकल्पों पर विवेक की सहायता से समुचित निर्णय लेकर मन को मोहपाश में बंधने से बचाना है।
अब यदि ये दोनों मन एवं बुद्धि ही अपने इष्ट अपने गुरू को अर्पण हो जाये तो हमारे सारे संकल्प ही गुरूमय हो जायेंगे ओर फिर अहंकार के लिये स्वतः ही कोई स्थान नहीं बचेगा। परिणाम स्वरूप साधक निरहंकारी अवस्था को प्राप्त कर लेगा और उसका भक्ति मार्ग प्रशस्त हो जायेगा। सद्गुरू कहते हैं कि यदि मेरी भक्ति चाहिये तो अपनी सुबुद्धि रूपी कली से विकसित हुआ स्मरण ही मुझे अर्पण कर दो तो तुम्हारा काम बन जायेगा।
किसी भी वस्तु का निर्माण करने के लिये तीन वस्तुओं की आवश्यकता होती है-निर्माण करने वाला निर्माता, निर्माण करने की सामग्री और निर्माण करने के साधन, औजार आदि। जैसे घडे का निर्माण करने के लिये कुम्हार को मिट्टी एवं चाक आदि साधनों की जरूरत होती है, आभूषण का निर्माण करने के लिये सुनार को, सोना, अग्नि और औजारों की जरूरत होती है, उसी प्रकार अन्य वस्तुओं के सम्बन्ध में भी समझना चाहिये।
सृष्टि के पूर्व भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था और सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद भी जो कुछ यह दृश्यवर्ग है, वह मैं ही हूँ। जो सत्, असत् और उससे परे हैं, वह सब मैं ही हूँ तथा सृष्टि के बाद भी मैं ही हूँ तथा इन सबका नाश हो जाने पर कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ।
चिंता बन्द कर दें, चिंता काल्पनिक होती है। अपनी चिंता को चिंतन में बदल दें। चिंता तो एक बार में ही आपका अस्तित्व जलाकर समाप्त कर देती है, लेकिन चिन्ताये तब तक सतायेगी जब तक आप जीवित रहेंगे। चेहरे पर हमेशा हंसी, खुशी एवं प्रसन्नता रखें तो चिंतायें अपने आप दूर हो जायेगी, ठीक उसी प्रकार जैसे प्रकाश के आने पर अंधेरा अपने आप चला जाता है। अंधेरे को भगाना नहीं पड़ता। अपने को निराश, उदासी, हताशा से दूर रखें।
अपनी दिनचर्या में अपने को व्यस्त रखे। आलसी जीवन भी शरीर को रोगी बना देता है। वृद्धावस्था में व्यस्त रहने के लिये पढ़ने का अभ्यास डाल लें। आध्यात्मिक ग्रन्थों का अध्ययन करें तो ज्यादा शान्ति मिलेगी। लिखने का अभ्यास हो जाये तो पढ़ना भी सार्थक हो जायेगा। किसी सेवा संस्था सेवा कार्यो में अपनी सेवायें दें। आप मानकर चले कि सेवा ही आपकी पूजा हो जाये तथा मानव सेवा भी माधव सेवा हो जाये। किसी प्यासे को पानी पिलाना भी भगवान शंकर का जलाभिषेक हो जाये। इस भावना से सेवा कार्य करेंगे तो सेवा भी पूजा हो जायेगी।
मनुष्य चाहे अकेला हो या एकान्त में हो, वह अपनी कल्पना की उड़ान से अनेक आदमी अपने आस-पास इकट्ठा कर लेता है। विशेषतः विद्वान लोगों में कल्पना-विलास अधिक होता है अतः विचार करना ही हो तो अपने इष्ट, अपने गुरू के विषय में करें। हमारे इष्ट रूपी गुरू हमारे दाता है, त्राता है, सुख देने वाले है। इस प्रकार का विचार करने में ही सच्चा सुख समाया है, इसी में हमारा हित है। कल्पना या विचार से निर्माण करें, उसे सगुण बनायें और वहीं अपना चित्त स्थिर करने का प्रयास करें।
संसार के प्राणी, पदार्थ अर्थात् स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि सभी वस्तुयें क्षण भंगुर है, ये सदा-सर्वदा साथ रहने वाली नहीं है। इसीलिये हमारे शास्त्रों में इन्हें असत्य और अनित्य बताया गया है, फिर भी जब तक जीवन है तब तक स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि से सम्बन्ध रखना ही पड़ता है। प्रतिकूल वातावरण में दुःख निवृत होने का एकमात्र उपाय है-अपने किये हुये पाप कर्मो के प्रति अन्तर्मन से पश्चाताप किया जाये तथा भविष्य में इन पापकर्मो से पूरी तरह दूर रहते हुये परमात्मा प्रभु रूपी गुरू के शरणागत होकर उनकी आज्ञा का पालन किया जाये। आज्ञा पालन का मतलब है कि अपना जीवन सदाचारी बनाकर प्राप्त हुये सुख-दुःख को धैर्यपूर्वक सहन करते हुये अपने कर्तव्य का पालन करते रहना चाहिये।
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