आर्य वैदिक संस्कृति में केवल साधना, पूजन और आध्यात्म के बारे में ही विवरण नहीं है, वैदिक संस्कृति में जीवन के प्रत्येक पहलू के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है। उनमें से कई बातों को हमने परम्परा के रूप में ले लिया है। उसके मूल में क्या बात है, उसे जानने का प्रयास ही नहीं किया। आरती क्या है? संकल्प क्या है? यज्ञोपवीत का क्या महत्व है? ग्रह किस प्रकार से प्रभावित करते हैं? क्या देवता वास्तव में आते है? देव-पूजन क्यों आवश्यक है? इन सारे प्रश्नों की वैज्ञानिक व्याख्या हमारे आर्य ऋषियों ने की है और प्रत्येक प्रश्न को विस्तृत रूप से समझाया भी है। आप स्वयं भी इन बातों को समझें और इस सम्बन्ध में अपनी शंकाओं का निराकरण कर बता सकें कि अमुक क्रिया किस लिये आवश्यक है? इस स्तम्भ में इस बार संकल्प, देवआह्वान, देव पूजन के सम्बन्ध में जानकारी दी जा रही है।
किसी भी पूजन अर्थात् क्रिया का प्रथम भाग संकल्प, उसके पश्चात् आसनशोधन, आचमन, प्राणायाम, अर्घ्य इत्यादि क्रियाये सम्पन्न की जाती हैं। प्रत्येक धर्म अनुष्ठान के प्रारम्भ में संकल्प आवश्यक है। मनु स्मृति में लिखा है
अर्थात् समस्त कामनाये संकल्प मूलक ही हैं, संकल्प के पश्चात् ही समस्त यज्ञ सम्पन्न होते हैं। व्रत नियम धर्म कार्य संकल्प से ही प्रारम्भ होते है।
मानव जीवन पर भावनाओं का गहरा प्रभाव पड़ता है। संकल्प, अनुष्ठान कर्म और साधना के प्रति साधक की भावना का ही मूर्त स्वरूप है। संकल्प के द्वारा साधक अपने क्रियामाण कर्म के प्रति सर्वभाव से कटिबद्ध हो जाता है। आज के संसार में सभी देशों में कोई भी पदाधिकारी पद ग्रहण करने से पूर्व ईश्वर, अल्ला, जीसस अथवा किसी श्रद्धास्पद तत्व का नाम उच्चारण करते हुये ‘शपथ’ लेते हैं। वास्तव में शपथ संकल्प प्रणाली का ही निर्वाह है।
भारतीय संस्कृति में शपथ, सौगन्ध लेना बहुत ही जोखिम भरा काम माना जाता है। अपने प्राणों पर आ बनने की अवस्था में ही कोई व्यक्ति शपथ लेने को विवश होता है। ये माना जाता है कि यदि कोई व्यक्ति सौगन्ध लेता है तो वह सत्य ही कह रहा है और यदि उसने एक बार कोई शपथ ले ली तो वह उसका निर्वाह करता ही है।
यह हमारी संस्कृति का आर्दश वाक्य है, अर्थात् एक बार जो शपथ ले ली, वचन दे दिया उसका पालन आवश्यक ही है। आजकल तो शपथ लेना तो एक आम रिवाज बन गया है। बातचीत में बाय गॉड, बाय फादर, बाय यू, एक आम बात बन गई है। इन शब्दों की यदि व्याख्या करें तो इसका सीधा अर्थ यही है कि बाय गॉड अर्थात भगवान की कसम, बाय फादर अर्थात पिता की कसम, लेकिन इन वचनों को बोलते हुये भी व्यक्ति असत्य बोल जाते हैं जब कि इसका वास्तविक अर्थ है कि यदि मैं असत्य बोलूं तो भगवान मुझे सजा दे।
इसलिये हमारी संस्कृति में मनुष्य की इन निर्बलताओं को ध्यान में रखते हुये शपथ जैसी विशेष प्रथा के लिये प्रत्येक को अवसर नहीं दिया गया अपितु शपथ के बजाय अपनी प्रतिज्ञा को कार्यान्वित करने के लिये संकल्प प्रथा का ही विधान किया गया है। शपथ लेना एक अपमान सूचक प्रथा है। शपथ, सौगन्ध वही व्यक्ति उठाता है जिसकी ईमानदारी में संदेह हो और वह सामने वाले को विश्वास दिलाना चाहता हो।
संकल्प प्रथा वह अनुष्ठान है जिसमें साधक अमुक अनुष्ठान कर्म के प्रति अपनी दृढ़निष्ठा और आत्म सम्मान की भावना से युक्त होकर कर्त्तव्य पालन में संलग्न हो जाता है।
संकल्प आर्य जाति की सबसे बड़ी विशेषता है। प्रत्येक दिन कार्य करते हुये संकल्प में एक विशेष वचन अवश्य दोहराते है, जिनके शब्दों पर आप विशेष ध्यान दें जब हाथ में जल लेकर संकल्प करते हैं और बोलते हैं-
इसका सीधा तात्पर्य है कि हम अपनी उस चिरन्तन सत्ता का स्मरण करते हैं जिसका प्रादुर्भाव इस धरातल पर आज से 1 अरब 17 करोड़ 29 लाख 49 वर्ष पूर्व हुआ था।
संकल्प के रूप में उसी परम्परा में ईश्वर अर्थात् मन को साक्षी रखते हुये कार्य पूरा करने का संकल्प लेते हैं। कोई बाहर से सौगन्ध दिलाने वाला नहीं है। मन में स्थित ईश्वर को साक्षी स्वीकार कर इस क्रिया को सम्पन्न करने का निर्णय किया गया है। कोई ईमानदारी पर शक करने वाला भी नहीं है। मन में स्थित ईश्वर को वचन दिया है कि मैं इस संकल्प के साथ यह क्रिया अनुष्ठान सम्पन्न कर रहा हूँ।
संकल्प करते समय जल को अपने हाथ में रखते हुये, स्पर्श करते हुये क्रिया का विधान है क्योंकि जल में वरूण देव का निवास है और उनके साक्ष्य में जो प्रतिज्ञा सम्पन्न की जायेगी उसका निर्वाह न होने पर वरूण का ही अपमान होगा और वे ही दण्ड देंगे।
वैज्ञानिक दृष्टि से जिस प्रकार हमारा शरीर ग्रहण किये गये अन्न का परिणाम है उसी प्रकार ‘अपोमयाः प्राणाः’ इस वेद प्रमाण के अनुसार प्राण शक्ति भी ग्रहण किये हुये जल का अंतिम परिणाम है। प्रत्येक कर्म के अनुष्ठान में प्राण शक्ति की प्रबलता अनिवार्य है। प्राण शक्ति के बिना कर्म शक्ति भी जाग्रत नहीं हो सकती । इसीलिये प्राण शक्ति के जनक जल का स्पर्श करके साधक अपने आप को महाप्राण अनुभव करता हुआ अनुष्ठान कर्म साधना में प्रवृत्त होता है।
इसी प्रकार अनुष्ठान में तीन बार जल आचमन करने का शास्त्रीय विधान है। तीन बार आचमन करने से कायिक, मानसिक, वाचिक, त्रिविध ताप की निवृत्ति अदृश्य रूप से होती है, शारीरिक रूप से तीन बार जल ग्रहण करने से कण्ठ शोषण दूर होने से कफ निवृत्ति हो जाने के कारण श्वास क्रिया और मंत्र आदि के शुद्ध उच्चारण में भी शक्ति प्राप्त होती है। प्राण निरोध के कारण शरीर में उष्मा बढ़ जाती है, और कई बार तालु सूख जाने के कारण हिचकी तक आने लगती है। इसीलिये आचमन करने से वह शुष्कता भी दूर हो जाती है।
शास्त्रीय विधि के अनुसार त्रिआचमन में चुल्लुभर कर जल ग्रहण नहीं किया जाता अपितु उतने ही परिमाण में जल ग्रहण करने की विधि है जिससे जल कण्ठ और तालु को स्पर्श करता हुआ हृदय चक्र की सीमा तक समाप्त हो जाये। कण्ठ और तालु से मंत्र का उच्चारण होता है और वह उच्चारण हृदय से प्रारम्भ होना चाहिये इसीलिये सूक्ष्म मात्रा में तीन बार जल ग्रहण कर अनुष्ठान प्रारम्भ किया जाता है। अतः आवश्यक है प्रत्येक विशेष कर्म से पहले संकल्प लें। यह क्रिया मन प्राण को आधार प्रदान करती है।
वर्तमान युग में मनुष्य अपने दैनिक क्रियाकलापमें समय नहीं निकाल पाता है। कई बार तो ऐसा होता है कि साधना करने की बहुत इच्छा है लेकिन कार्य पर जाना आवश्यक है अथवा यात्रा पर जाना पड् सकता है । नवरात्रि हो या अन्य पर्व , ग्रहण हो या सवार्थ सिद्धि योग , रवि पुष्य या गुरू पुष्य किसी लौकिक कारण से मनुष्य उस समय साधना नहीं कर सकता है। ऐसी स्थिति में क्या करें, क्या केवल विशेष पल मुहर्त में की साधना ही सफल होती हैा इस हेतु शास्त्रों ने लिखा है जब भी कोई विशेष पर्व, त्यौहार, मुहुर्त आये और उन पर्वो का उपयोग साधनात्मक माध्यम द्वारा अपने भौतिक आध्यात्मिक जीवन में उन्नति चाहता है तो वह उन क्षण विशेष में साधना का संकल्प अवश्य लेले, उसके बाद समय की सुविधानुसार साधना कर सकता है। इसका यह तात्पर्य है कि उचित समय पर संकल्प लेना आवश्यक है और जब साधना करें। संकल्प में मंत्र जप संख्या का उल्लेख अवश्य करें आवश्यक है कि जो भी संकल्प ले उसे पूरा अवश्य करें। संकल्प में आप गुरू को साक्षी रख रहे है, देवताओं को साक्षी रख रहे है। अत: अपने हृदय को साक्षी रख रहे है, संकल्प के साथ की गई साधना का फल अवश्य ही प्राप्त होता है।
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